उद्देश्यपूर्ण जीवन शैली: क्या यह दासत्व को आमंत्रण है?

क्या आपने कभी सोचा है कि जिम्मेदारियों का बोझ इंसान को कितना थका देता है?
एक पिता, एक माता, एक बड़ा भाई, एक बहन, घर का मुखिया, आश्रम का नेतृत्वकर्ता, राज्य या देश का प्रमुख – हर भूमिका के साथ जिम्मेदारियों का एक भारी बोझ जुड़ जाता है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि लोग इन बोझों को उठाने के लिए अपने धन, समय, स्वास्थ्य, स्वाभिमान, और यहां तक कि अपने प्राण तक दांव पर लगाने को तैयार रहते हैं। आखिर क्यों?
जिम्मेदारियां: तनाव या जीवन का हिस्सा?
जिस व्यक्ति के कंधों पर जितनी अधिक जिम्मेदारियां होती हैं, वह उतना ही अधिक बेचैन, उलझा हुआ और तनावग्रस्त दिखाई देता है। उसके पास खुद के लिए समय नहीं होता। शांति से भोजन करना, चैन से सोना, या आधा घंटा चिंतन के लिए निकाल पाना – सबकुछ उसके जीवन से गायब हो जाता है।
लेकिन पशु-पक्षी तो यही जिम्मेदारियां बड़ी सहजता से निभा लेते हैं, बिना किसी तनाव के। तो सवाल उठता है, ये प्राकृतिक जिम्मेदारियां इंसानों के लिए बोझ क्यों बन जाती हैं?
प्राचीन कथाओं से आधुनिक सोच तक
सुमेरियन पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवता अनुनाकी ने इंसान को अपनी सेवा के लिए बनाया था। उन्होंने इंसानों को ‘गुलाम’ की तरह काम में लगाए रखा और बदले में कुछ पद-प्रतिष्ठा और मान-सम्मान का लालच दिया।
समय के साथ, यह मानसिकता हमारे समाज में रच-बस गई। लोग इस सोच के साथ जीने लगे कि जिम्मेदारियां निभाना, पद प्राप्त करना या सत्ता संभालना जीवन का मुख्य उद्देश्य है। लेकिन क्या यह वास्तव में सही है?
दासत्व के नए रूप
आज का समाज उन लोगों से भरा है जो काम में उलझे रहना पसंद करते हैं। ऐसे लोग या तो किसी नेता के पीछे झंडा लेकर खड़े हो जाते हैं या फिर गलत गतिविधियों में शामिल होकर अपने अंदर के खालीपन को भरने की कोशिश करते हैं।
गुलाम प्रवृत्ति के ये लोग जब सत्ता या जिम्मेदारी के उच्च पद पर पहुंच जाते हैं, तो वे खुद को भगवान समझने लगते हैं। बुलडोजर न्याय प्रणाली और अन्य अन्यायपूर्ण व्यवस्थाएं ऐसे ही मानसिकता की उपज हैं।
सच यह है:
जो भी हमारे स्वभाव और प्रकृति के विरुद्ध होता है, वह बोझ बन जाता है। फिर चाहे वह सत्ता हो, मान-सम्मान हो या जिम्मेदारियां।
वर्ण व्यवस्था का परिप्रेक्ष्य
वर्ण व्यवस्था, जो कभी एक स्वस्थ सामाजिक संरचना थी, के तहत शूद्रों को सत्ता नहीं सौंपी जाती थी। इसका उद्देश्य यह था कि गुलाम मानसिकता के लोग कभी नेतृत्वकर्ता न बनें। लेकिन आधुनिक समय में यह भेद मिट गया है। अब पद और प्रतिष्ठा के आधार पर किसी को भी सत्ता सौंपी जाती है, चाहे वह गुलाम मानसिकता का ही क्यों न हो।
आज के पढ़े-लिखे व्यक्ति, चाहे वे डॉक्टर, वैज्ञानिक, या प्रशासनिक अधिकारी हों, केवल ‘सेवक’ बनने तक सीमित रह गए हैं।
क्या इसका कोई समाधान है?
जब व्यक्ति यह समझ लेता है कि डिग्रियां या किताबें उसे विद्वान या समझदार नहीं बनातीं, तभी असली सवाल उठता है:
“क्या भेड़ों का भी समाज होता है?”
इस सवाल का जवाब हर इंसान को खुद के अंदर ढूंढना होगा।
क्या आप अपने जीवन के उद्देश्य को समझ पाए हैं, या केवल समाज की बनाई परिभाषाओं का पालन कर रहे हैं?

सदैव स्मरण रखें: जो कुछ भी प्रकृति और स्वभाव के विरुद्ध थोपा जाता है, वह बोझ बन जाता है। फिर वह दायित्व हो, मान-सम्मान हो या सिंहासन या सत्ता हो।
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️
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