सच कहूँ तो अब मुझे ये दुनिया रास नहीं आ रही

बाज़ार पर नजर डालिए कभी साक्षी भाव से। सड़कों पर नजर डालिए कभी शांत भाव से। राजनैतिक पार्टियों, सरकारों, संगठनों, संप्रदायों, समाजों पर नजर डालिए शांत भाव से। परिवार की गतिविधिओं पर नजर डालिए और स्वयं के परिचितों, संबंधियों और स्वयं पर नजर डालिए शांत भाव से।
आपको ऐसा लगेगा जैसे हर कोई दौड़ रहा है, हर कोई भाग रहा है, हर किसी को जल्दी है और हर कोई परेशान है।
एक घंटे शांत चित्त से रील्स, इन्स्टाग्राम, यूट्यूब व अन्य विडियो पोर्टल पर दिखाई जाने वाली क्लिपिंग्स पर नजर डालिए। ऐसा लगेगा जैसे तमाशा चल रहा हो।
फिर नजर डालिए सोशल मीडिया पर, ब्रॉडकास्ट मीडिया पर, प्रिंट मीडिया पर। नए-नए विषय उछालते रहते हैं और पहले विषय पर चर्चा ठीक से हो भी नहीं पाती कि नया विषय या समस्या उछल जाती है। ना किसी को समाधान चाहिए, ना ही किसी के पास समय है चिंतन मनन का। बस बहस किए जा रहे हैं मूरखों की तरह बिना किसी सकारात्मक उद्देश्य या महत्व के।
उपरोक्त सभी पर ध्यान दें और चिंतन-मनन करें, तो पायेंगे कि सिवाय मछली बजार के और कुछ नहीं है। जहां किसी को किसी की सुनने की फुर्सत नहीं है, सभी अपनी अपनी सुनाने में व्यस्त हैं।
जो देशभक्त बने घूम रहे हैं, उन्हें देश से कोई मतलब नहीं। केवल मालिकों ने देशभक्ति की पींपणि पकड़ा दी है बजाने के लिए, सो बजाए जा रहे हैं।
जो धार्मिकता की पींपणि बजा रहे हैं, उन्हें भी धर्म का बेसिक ज्ञान नहीं। केवल अपना अपना धंधा और अपनी-अपनी दुकानों की चिंता है, इसलिए धर्म खतरे में है का शोर मचा रहे हैं।
जिनका प्रेमी या प्रेमिका से विवाह नहीं हुआ, वे आँसू बहा रहे हैं, और जिनका हो गया वे अपनी किस्मत को कोस रहे हैं।
जिनका विवाह नहीं हुआ वे दुखी हैं और ज्योतिषियों, तीरथों के चक्कर लगा रहे हैं और जिनका हो गया वे दुखी हैं और वकीलों, अदालतों के चक्कर लगा रहे हैं।
यदि इन सब से हटकर दुनिया को देखो, तो समझ में आने लगता है कि सुखी कोई नहीं है। ऐसा कोई भी नहीं है, जिसे पाकर व्यक्ति स्वयं को सुखी व धन्य माने।
बहुत से लोग सोचते हैं कि स्विस बैंक में अकाउंट खुल जाएगा तो वे सुखी हो जाएंगे। लेकिन जिनके एकाउंट स्विस बैंक में हैं, वे भी दुखी हैं और ना चैन से सो पा रहे हैं, ना ही चैन से खा पा रहे हैं।
ऐसी दुनिया में यदि व्यक्ति अकेला हो जाए, ऐसा कोई ना हो बात करने के लिए भी, तो वह दुनिया का सबसे सुखी इंसान है। क्योंकि इन पागलों की भीड़ के साथ मैराथन प्रतिस्पर्धा करने के लाख गुना बेहतर है कि व्यक्ति एकांत चला जाये, प्रकृति से बातें करें या मौन प्राकृतिक सौन्दर्य का आनन्द ले।
जो लोग कुछ करते हुए दिखाई दे रहे हैं, वे भी वास्तव में सृष्टि को नष्ट करने के अभियान में व्यस्त हैं दीमकों की तरह।
सच कहूँ तो अब मुझे ये दुनिया बिलकुल भी रास नहीं आ रही है। दुनिया तो छोड़िए, अब तो मुझे आश्रम भी रास नहीं आ रहा। आश्रमों में भी मूरखों और गिद्धों की भीड़ नजर आती है।
अब बहुत बुरी तरह से मन मचल रहा है किसी ऐसी दुनिया में चले जाने के लिए, जहां माफियाओं के गुलाम और उनके भक्तों का आस्तित्व ना हो। ऐसी दुनिया जहां एकांत में जी सकूँ उन सभी से दूर, जो अपने ही देश को अपने ही गांवों को नष्ट करने के लिए माफियाओं से हाथ मिला चुके हैं, उनके सामने नतमस्तक हो चुके हैं।
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