क्रांतिकारी होने से लाख गुना अच्छा है विद्रोही होना

पहले मेरी धारणा थी कि क्रांतिकारी होना गर्व की बात है। लेकिन बरसों बाद समझ में आया कि क्रांति करने के लिए संगठन, पार्टी का सदस्य होना पड़ता है। अकेला व्यक्ति ना तो क्रान्ति कर सकता है, न ही क्रान्तिकारी हो सकता है।
क्रांति तभी घटित होगी, जब सामूहिक चेतना जागृत होगी। लेकिन ऐसा तभी होता है, जब सबकुछ बर्बाद हो चुका होता है, जैसे जर्मनी, सीरिया, ईराक, अफगान, श्री-लंका में क्रांति घटित हुई सबकुछ बर्बाद होने के बाद।
तो क्रांतिकारी बनना गर्व की बात नहीं है। जब सबकुछ बर्बाद हो जाये, उसके बाद जागे तो क्या जागे ?
सबकुछ लुटा के होश में आए तो क्या लाभ होश में आने का ?
बरबादी के बाद बर्बाद हुई दुनिया को देखने के लिए ज़िंदा रहने से तो अच्छा है मौत ही आ जाए।
क्रांतिकारी होने से लाख गुना अच्छा है विद्रोही होना। क्योंकि विद्रोही होने के लिए किसी संगठन, किसी संस्था, किसी पार्टी, किसी समाज की आवश्यकता नहीं होती। ना ही दूसरों को समझाने सिखाने के लिए भागना पड़ता है।
यदि समाज, सरकार और राजनैतिक पार्टियाँ, संगठन, संस्थाएं गुलाम बन चुकी हैं माफियाओं और देश को लूटने व लुटवाने वालों की, तो विद्रोही हो जाओ और दूरी बना लो सभी से। फिर परिणाम चाहे जो आए। फिर भले समाज और सरकार तुम्हें भुला दे हमेशा के लिए, लेकिन तुम्हारी आत्मा तुम्हें धिक्कारेगी नहीं कि इंसान बनने के लिए आए थे दुनिया में और हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, यहूदी, कॉंग्रेसी, भाजपाई, सपाई, बसपाई, मार्गी, पंथी, संघी, बजरंगी जैसे दड़बों के भेड़, भेड़िये, पालतू मवेशी और गुलाम बनकर रह गए।
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