लीलामंदिर आश्रम: जीर्णोद्धार अभियान

१४ जुलाई २०१३ को आरम्भ हुई उथल-पुथल, अनिश्चितता, व मानसिक तनाव के बाद ४ सितं० २०१३ को आंशिक निश्चिन्तता आई जब स्वामी शिव चैतन्यानंद को आश्रम का अस्थाई सह प्रभारी नियुक्त करने का आश्वासन मिला और …सितं० को उन्हें लिखित रूप से प्रभार सौंप कर आवंछित उपद्रवियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया | संक्षेप में (अधिक विवरण के लिए पोस्ट के अंत में दिए लिंक पर जा सकते हैं ) घटना कुछ इस प्रकार है :
ठाकुर दयानंद देव जी द्वारा सन १९२१ में स्थापित लीलामंदिर आश्रम में पिछले कुछ वर्षों से असामाजिक तत्वों ने कई तरह की अव्यवस्थाएं फैला रखी थी जिस के कारण यहाँ एक भय का वातावरण बना हुआ था | आश्रम के अध्यक्ष व ट्रस्टी स्वामी ध्यान चैतन्यानंद व अन्य ट्रस्टी भी आश्रम और ‘अरुणाचल मिशन’ का मिशन ‘विश्वशांति’ को तिलांजलि देकर अपने अपने घर-परिवार में मग्न थे | परिणाम हुआ आश्रम और मिशन अपने पैरों पर खड़ा नहीं रह पाया और लीलामंदिर आश्रम से एक एक कर सभी सन्यासी और शुभचिंतक भय, आर्थिक आभाव व मानसिक तनाव के चलते भाग गए | ऐसे में भूमाफियाओं और असामाजिक तत्वों को मनमर्जी करने से रोकने वाला कोई नहीं बचा और जो एक दो बचे भी थे तो वे भी अपनी जान के डर से खामोश रहते थे | आश्रम के काफी हिस्सों में अवैध कब्ज़ा कर लिया गया था और अध्यक्ष महोदय दिखावे के लिए केस लड़ रहे थे | अधिकतर कोर्ट की तारीख वाले दिन या तो बीमार पड़ जाते हैं या देश-भ्रमण पर निकले होते हैं और गाँव के ही एक व्यक्ति को तारीख़ आगे बढ़वाने के लिए नियुक्त किया हुआ है | सभी पक्के दस्तावेज होते हुए भी जानबूझ कर जीता हुआ केस हारने के लिए धूर्त वकील चुनना… सभी बातें आश्रम के अध्यक्ष के विश्वनीयता को खंडित करते हैं | आश्रम के अन्य ट्रस्टियों का भी मीटिंग-मीटिंग खेलने का बचपन का शौक अभी तक जारी रहना दर्शाता है कि उनमें वयस्कता व आश्रम और ठाकुर के मिशन को लेकर गंभीरता नहीं आई है | पिछले हफ्ते ही मैंने इन्टरनेट के लिए हज़ार रूपये की सहायता राशि मांगी थी लेकिन सारे ट्रस्टी मिलकर भी हज़ार रूपये का प्रबंध नहीं कर पाए और उसके लिए भी मीटिंग-मीटिंग खेलने में लगे हुए हैं | अब बताइये हम ऐसे में आश्रम का केस कैसे लड़ सकते हैं और धान के खेत में आज तक खाद डालने के लिए आवश्यक रुपयों का प्रबंध नहीं कर पाए प्रबन्धक महोदय लेकिन अपने कमर दर्द के इलाज के लिए ३६ हज़ार रूपये खर्च कर दिए |और यह पैसे भी उन्हें लीलामंदिर आश्रम के अध्यक्ष होने के कारण ही मिला है न कि उनके अपने नाम पर |
ऐसे वातावरण में मैंने इसी वर्ष मार्च में यहाँ कदम रखा | कुछ ही दिनों में मैंने यहाँ की वास्तविक स्थिति और परिस्थिति दोनों को भांप लिया | मुझे आभास हो गया था कि स्वामी ध्यान चैतन्य जी (अध्यक्ष) ने धोखा दिया है और और झूठ बोलकर मुझे यहाँ लाया है कि वे जनकल्याण के कार्य करते हैं और मैं उनके काम में उनका सहयोग करूँ | जबकि जनकल्याण तो दूर अपने आश्रम के कल्याण के लिए भी कोई कार्य नहीं करते वे | उनका खाना अलग बनता है ठाकुर के नाम पर, टीवी, फ्रिज व अन्य सुविधाएँ केवल उनके और उनके शुभचिंतकों के लिए ही हैं | स्वामी जी को भी आभास हो गया कि उन्होंने मुझे लाकर गलती कर ली इसलिए उन्होंने इन्टरनेट और फ़ोन के पैसे देने बंद कर दिए जबकि मैं मिशन के लिए ही नेट पर काम कर रहा था | मुझे लग रहा था कि हो सकता ही कि स्वामी जी सही मार्ग पर ही हों लेकिन मैं अपने मार्ग से उनके मार्ग को नहीं समझ पा रहा इसलिए मैंने यहाँ से जाने का मन बना लिया लेकिन यहाँ के सन्यासी स्वामी शिव चैतन्यानंद जी महाराज और गांववालों ने जाने नहीं दिया | न जाने क्यों इन लोगों ने मुझसे अप्रत्याशित आशाएँ बाँध लिया कि मैं शायद आश्रम के शान्ति व सुरक्षा के लिए कुछ कर पाऊं | मैंने ईश्वर की इच्छा समझ कर कुछ समय और यहीं ठहर कर आश्रम के विनाश का स्वप्न देख रहे उपद्रवियों को पाठ पढ़ाने का निश्चय किया | लेकिन मैं आर्थिक रूप से स्वयं को बहुत असहाय महसूस कर रहा था और यहाँ के लोग भी आर्थिक सहयोग या किसी और प्रकार के सहयोग देने की स्थिति में नहीं थे | ऐसे ही समय में एक ऐसी घटना घटी जो अभूतपूर्व थी | यहाँ के सबसे पुराने सन्यासी के ऊपर यहाँ के उपद्रवी ने हाथ उठा दिया और उन्हें घायल कर दिया |
मैंने अध्यक्ष से संपर्क करना चाहा तो उनका फोन बंद मिला | मैंने अन्य ट्रस्टियों से आवश्यक कदम उठाने का निवेदन किया तो वे मीटिंग-मीटिंग खेलने लग गए | कुल मिला कर यह कि उपद्रवी के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं हो पाई और वह आश्रम में ही पहले से भी ज्यादा प्रभाव से आने जाने लगा | गाँव में भी लोग यही कहने लगे कि इन लोगों का कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता… ऐसे में मैंने संगठन (भ्रष्टाचार विरुद्ध भारत जागृति अभियान) का सहयोग लिया. सोनिका शर्मा जी और शिवनारायण शर्मा जी को मैं पहले से ही जानता था, इसलिए मैंने ही आश्रम के हित के लिए उनसे सहयोग माँगा था | दोनों सहर्ष सहायता के लिए आगे आये और बिना किसी से लड़ाई झगड़ा किये ही उपद्रवियों के आश्रम में आवागमन पर प्रतिबन्ध लगवाने में सफल हो गए | लेकिन मेरे इस कदम से ट्रस्टी और अध्यक्ष मेरे विरोध में आ गए और मुझे ही आश्रम से बाहर निकालने की धमकी देने लगे |
अब तक ग्रामवासी मेरे इस कदम और संगठन के शांतिपूर्ण कार्यप्रणाली के विषय में समझ चुके थे | सभी ग्रामीण अब हमारे साथ हो गए और ट्रस्टी व अध्यक्ष के विरोध में आ गए जिससे वे मेरे विरुद्ध कोई कदम नहीं उठा पाए | इसी महीने नौ तारीख़ को आश्रम का कार्यभार और कुल साढ़े छब्बीस हज़ार रूपये चार महीने के खरचे (जबकि महीने का न्यूनतम खर्च रूपये १७०००/- है ) के लिए स्वामी शिव चैतन्यानंद जी महाराज के हाथों सौंप कर अध्यक्ष स्वामी ध्यान चैतन्यानंद जी पुनः कुछ महीनों के लिए अपने घर (कलकत्ता) चले गये अपना इलाज करवाने | अब आश्रम में शान्ति और विश्वास का वातावरण है और आश्रम की स्थिति भी धीरे धीरे सुधरने लगेगी इस बात का पूरा विश्वास है | विशेष बात यह कि स्वामी शिव चैतन्यानंद जी आजकल स्वयं अपने हाथों से खाना बनाकर खिला रहें हैं |
गाँव के सभी लोग अब हमारे साथ हो गए और उपद्रवियों के लिए यहाँ पैर रखना भी मुश्किल हो गया | कल तक हम एक एक पैसे के लिए मोहताज़ थे, लेकिन आज हर तरफ से मौखिक सहायताएँ आने लगी | अभी ४ सितम्बर को ही आश्रम के ९० वर्ष के इतिहास में पहला डेस्कटॉप कंप्यूटर उधार लेकर असेम्बल किया गया , जो कि यह बताने के लिए काफी है कि कल तक डर और संशय की स्थिति के कारण जो विकास कार्य रुका हुआ था वह अब नई उमंग के साथ शुरू हो चूका है | ट्रस्टियों ने भी मौखिक आश्वासन दिया है कि भविष्य में कभी आश्रम में आर्थिक आभाव की स्थिति नहीं आने देंगे ( यह और बात है कि अभी तक आश्वासन केवल आश्वासन ही है व्यावहारिक नहीं हुआ है ) और यहाँ से डर कर भागे कई सन्यासी-संयासिनें भी अब वापस आना चाह रहें हैं |
उपरोक्त घटना में जो बात महत्वपूर्ण है वह यह कि भयग्रस्त व्यक्ति संघर्ष नहीं कर पाता भले ही उसके पास दुश्मन से दुगुनी शक्ति व सामर्थ्य ही क्यों न हो | मैंने केवल लोगों के मन से भय निकालने का प्रयत्न किया और सभी के विरोध के बावजूद भी वह कदम उठाया जो आश्रम के परिस्थिति के अनुकूल था | कुछ ने कहा कि मैं यदि स्वयं यहाँ से नहीं जाऊँगा तो मुझे अर्थी या स्ट्रेचर में जाना पड़ेगा लेकिन मैंने उन लोगों की चेतावनियों की कोई चिंता नहीं किया | एक संयासी मृत्यु के भय से मुक्त होता है और यह गुण तो मुझे विरासत में मिला था अपने जन्मदाताओं से | मैंने स्वामी शिव चैतन्यानंद जी महाराज को इस ऐतिहासिक कदम को उठाने में सहयोग के लिए मानसिक रूप से तैयार किया और उन उपद्रवियों से संघर्ष करने का बीड़ा उठाया, तो आज संगठन के सहयोग से सारा गाँव मेरे साथ हो गया | कल जो लोग मुझे आश्रम से बाहर फेंक देने के लिए तत्पर थे अब उनकी भी बोलती बंद हो गई और इस शांतिपूर्ण कदम को एक आश्चर्य मान रहें हैं | मेरे कार्य का यह शुभारम्भ है, अभी तो आगे और बड़ी चुनौतियाँ खड़ी हैं |
मैं स्वामी शिव चैतन्यानंद जी महाराज और आस पास के सभी गाँव के उन लोगों का आभारी हूँ जिन्होंने मुझ पर विश्वास दिखाया और मुझे अपने विवेक से कदम उठाने की स्वतंत्रता दी | मैं संगठन (भ्रष्टाचार विरुद्ध जागृति अभियान) का और विशेष कर सोनिका शर्मा जी और शिव नारायण शर्मा जी का आभार मानता हूँ कि उन्होंने यहाँ के आश्रम और गांववालों को एक नया उत्साह दिया और उन्हें आपस में ही एक होकर दुश्मनों से संघर्ष करने और जीतने का हौसला दिया | ईश्वर दोनों को स्वस्थ व दीर्घजीवी रखें ताकि दोनों इसी प्रकार असहाय लोगों की मदद करते रहें |
मैं स्वामी ध्यान चैतन्यानंद जी (मेरे सन्यास पिता भी), सभी ट्रस्टियों व अरुणाचल मिशन से जुड़े सभी भक्तों, सन्यासियों व श्रद्धालुओं से निवेदन करता हूँ कि स्वार्थ व पाखंड का मार्ग छोड़ कर सद्मार्ग पर आ जाएँ तो सद्गति प्राप्त होगी अन्यथा…आप सभी मुझसे कई गुना ज्यादा ज्ञानी हैं | केवल ठाकुर जी की मूर्ति को भोग लगाकर, घंटे-घड़ियाल बजाकर और जय जय दयानंद करके आप दुनिया को मुर्ख बना सकते हैं, ठाकुर जी को नहीं | ऐसा करने का परिणाम आप लोगों के सामने है ही इस लिए मानव कल्याण के मार्ग पर आ जाएँ और मौखिक सहायता से हमारा मन न बहला कर आर्थिक सहायता करने का शीघ्र प्रयास करें और वह भी बिना किसी लोभ या शर्त के | क्योंकि अभी आश्रम की कोई निजी आय या पूंजी नहीं है कि हम संभल पायें और इस स्थिति के दोषी हम नहीं आप लोगों का स्वार्थ और स्वहित सर्वोपरि का सिद्धांत है | आप लोगों ने ठाकुर जी का पट्टा लटका कर मान लिया कि आप ठाकुर जी के मिशन का भला कर रहें हैं और ठाकुर दयानंद देव जी आप के आभारी और ऋणी होकर आपका भला करेंगे | ठाकुर जी आप लोगों के इस व्यवहार से न केवल शर्मिंदा हैं वरन दुखी भी हैं कि आप लोगों ने उनके स्वप्न को स्वार्थ के अग्नि की चिता में जला डाला |
न तो विलायती धुनों व भाषा में वह भाव और आत्मा है जो स्वदेशी गीत-संगीत और भाषा में है और न ही विलायती डॉक्टरों और दवाओं में वह गुण व सामर्थ्य जो स्वदेशी वैध व आयुर्वेद में है | इसलिए शुद्ध भारतीय संस्कृति अपनाइए तभी आप लोग ठाकुर दयानंद जी के सिद्धांत व उद्देश्य को समझ पायेंगे |
पथिक-एक लोक से दूसरे लोक, एक जन्म से दूसरे जन्म
मैं यहाँ अपने विषय में आप सभी से बार-बार यही कहता आया हूँ कि मुझे आप लोगों से कुछ नहीं चाहिए | न किसी पद की चाह है, न धन की और न ही आपके आश्रम की भूमि की | मैं स्वच्छंद स्वतंत्र सन्यासी हूँ और वही रहना चाहता हूँ ताकि जिस को भी सहायता की आवश्यकता हो और ईश्वर मेरे माध्यम से उस पीड़ित की मदद करना चाहता हो तो में सुलभता से उसे उपलब्ध हो पाऊं | मैं यहाँ कितने समय के लिए हूँ यह मैं भी नहीं जानता क्योंकि जब तक ईश्वर मुझे कोई और कार्य नहीं सौंपते तब तक तो यहीं हूँ |
और जो कुछ भी मैं कर रहा हूँ केवल एक महान संत ठाकुर दयानंद के मिशन को पुनर्जीवित करने के लिए कर रहा हूँ और आपसे (ट्रस्टियों) से भी केवल इसलिए सहायता के लिए कह रहा हूँ कि आप लोगों की लापरवाही के कारण आज यह स्थिति आई है और इस क्षति की भरपाई आप लोगों और ठाकुर दयानंद के अनुयाइयों को की करना है | चाहे आप लोग १००-१०० रूपये इकट्ठे करके भेजें या १-१ रूपये, लेकिन इस महीने के समाप्त होने से पहले चाहिए आर्थिक सहायता ताकि हम अपने खेत व बगीचों का पुनरुद्धार कर सकें | और यह वचन देता हूँ कि उन पैसों से मैं अपने लिए कुछ नहीं खरीदूंगा यहाँ तक की आवश्यक दवाएं भी | मुझे आश्रम से जो भी रुखा-सुखा मिल जाता है वही ईश्वर का प्रसाद के रूप में ग्रहण करके और आश्रम के इस पुनरुद्धार के कार्य में सहभागी होने का गौरव ही बहुत है मेरे लिए |
मैं जब यहाँ से जाऊँगा तब जो अपने साथ लाया था वही लेकर जाऊँगा अरुणाचल मिशन, आश्रम या आप लोगों का कुछ भी लेकर नहीं जाऊँगा | यहाँ तक कि मुझे आप लोगों से मान सम्मान भी नहीं चाहिए क्योंकि मान-सम्मान भी एक प्रकार का बंधन ही है जिससे मान-सम्मान देने वाला लेने वाले को अपने हाथ की कठपुतली बनाना चाहता है | हाँ प्रेम से जो कुछ भी मुझे यहाँ से प्राप्त होगा वह मेरा पुरुस्कार व ईश्वर प्रदत्त भेंट स्वरुप होगा और उसे पुरे प्रेम से ही स्वीकार करूँगा चाहे फिर वह तिरस्कार ही क्यों न हो | प्रेम ही एक ऐसा भाव है जो शाश्वत सत्य है और उसके पाश में बंधा व्यक्ति स्वयं को बंधक नहीं धन्य मानता है | यह और बात है कि प्रेम भी अब व्यवसाय और छल-कपट के लिए आवश्यक व्यवहारों में सम्मिलित हो चूका है |
आप सभी पाठकगण यदि कभी आप तपोवन (जहाँ रावण ने तपस्या की थी) और बाबाधाम (वह शिवलिंग जिसे रावण ने भूमि में रख दिया था और फिर उठा नहीं पाया था), रिकिया आश्रम या सत्संग आश्रम को कभी देखना चाहें तो लीलामंदिर आश्रम में अल्प्वास कर सकते हैं | वर्तमान में हमारे पास अन्य आश्रमों की तरह न तो साजो सामान है और न ही नौकर-चाकर केवल कुछ सन्यासी व सेवक हैं | इसलिए केवल वे लोग ही आयें जो भारतीय परिवेश व असुविधाओं में जी सकते हों क्योंकि हम आपको प्रेम और सेवा दे सकते हैं किन्तु किसी वैभवशाली आश्रम या होटल का सुख नहीं दे पायेंगे | आप लोगों से जो भी सहयोग राशि मिलेगी वह हमारे आश्रम को पुनः अपने पैरों में खड़े होने में सहायता ही प्रदान करेगी |
बाबाधाम या बैद्यनाथ धाम वह सिद्धपीठ है, जहाँ केवल आने भर से ही कष्टों से मुक्ति मिल जाती है, आपको बाबा से कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं होती | यदि आप निष्कपट, निश्छल और परोपकार के भाव से भरे हुए हैं और आपका संकल्प दृढ है तो आपके विरोधियों का पराभव और बाधाएं बाबा जी स्वतः ही दूर कर देंगे | जैसे मेरी बाधाएं अकल्पनीय तरीके दूर हुईं |
अंत में मैं ईश्वर से केवल यही प्रार्थना करना चाहूँगा कि मैंने जो भी धारणाएँ स्वामी जी और ट्रस्टियों के विषय में परिस्थिति वश बनायीं वे सभी भ्रम व मिथ्या सिद्ध हों और वे सभी मिशन को पुनः सुचारू रूप से चलाने के लिए मिल कर सहयोग करें | क्योंकि ठाकुर दयानंद देव जी ने मिशन की स्थापना इसलिए नहीं की थी कि लोग उनकी मूर्ति बना कर उसे भोग लगाएं और उनके नाम का जाप कर के मोक्ष पायें अपितु इसलिए स्थापना की गई थी कि वैमनस्यता का भाव मिटा कर लोग इंसान बन जाएँ |
सधन्यवाद, विशुद्ध चैतन्य
- धर्म व संस्कृति का संगम लीला मंदिर
- ‘ठाकुर दयानंद देव’
- लीलामन्दिर आश्रम: एक महान संत के स्वप्न की समाधि
- आवश्यकता है, हरिजन एक्ट रूपी हथियार को बाहुबलियों व भू-माफियाओं द्वारा दुरूपयोग न करने देने की
- देवघर के पाखंडी पंडे या भू-माफिया!