मनुष्य को छोड़कर सारी प्रकृति विश्राम में जी रही है

… हम निरंतर एक अजीब बीमारी से ग्रसित हैं, और वह बीमारी है अत्याधिक व्यस्त होने की, आक्युपाइड होने की। हर आदमी ऐसा लग रहा है, जैसे बहुत भारी काम में उलझा हुआ है। शायद काम कुछ भी नहीं है, लेकिन आदत अत्याधिक काम में उलझे होने की हमने खड़ी कर ली है। हर आदमी भाग रहा है, दौड़ रहा है और इस भांति संलग्न है, जैसे सारे जगत का भार उसके ऊपर है। इतना व्यस्त मालूम हो रहा है।
और यह व्यस्तता, यह जो आक्युपाइड माइंड है–यह दिन-रात व्यस्त होना इसके कारण चित्त निरंतर क्षीण होता चला जाता है। विश्राम का कोई भी क्षण न होने से चित्त दुर्बल हो जाता है। और दुर्बल चित्त सत्य को नहीं जान सकता है। सत्य को जानने के लिए शक्ति से परिपूर्ण, बहता हुआ, भरा हुआ चित्त चाहिए। और ऐसा चित्त तभी हो सकता है, जब आप अव्यस्त होने की थोड़ी सामर्थ्य पैदा कर लें।
एक आदमी को मैं देखता था रोज सांझ वे घूमने जाते थे। लेकिन घूमने भी वे ऐसे जाते थे, इतनी तेजी से कि जैसे किसी युद्ध पर जा रहे हों। तो मैंने उन्हें टोका और मैंने कहा कि आप किसी लड़ाई पर जाते हैं रोज?
उन्होंने कहा, लड़ाई पर? मैं तो घूमने जाता हूं।
तो मैंने कहा, लेकिन जाते आप ऐसे हैं, इतने तने हुए, इतने खिंचे हुए, इतने परेशान, इतने भागे हुए, जैसे कहीं पहुंचना हो। कहां पहुंचने के लिए जाते हैं?
उन्होंने कहा, पहुंचने! मैं सिर्फ घूमने जाता हूं।
लेकिन मैंने कहा, आपका मन घूमने की दशा में नहीं होता। घूमने जाने का मतलब है ऐसे जाना, जैसे कहीं पहुंचना नहीं है। कोई हम यात्रा थोड़े ही कर रहे हैं। यात्रा जब कोई करता है तो तना हुआ, खिंचा हुआ–उसे कहीं पहुंचना है।
सारी प्रकृति इसी भांति विश्राम में जी रही है, सिर्फ मनुष्य को छोड़कर। मनुष्य अति तनाव में है। और उसे खयाल भी नहीं है कि इतना तना हुआ होना, इतना व्यस्त, इतना उलझा हुआ होना ही उसे वंचित कर रहा है किसी सत्य को, किसी आनंद को जानने से।
आपको कहीं पहुंचना नहीं है। और अगर आप Some Where, कहीं पहुंचने की कोशिश करेंगे तो एक बात तय समझ लेना, वहां नहीं पहुंच सकेंगे जहां आप हैं। और जिस दिन आप इस तरह जीएंगे, No Where, कहीं भी नहीं पहुंचना है, उस दिन आप वहां पहुंच जाएंगे, जहां आप हैं। जहां मैं बैठा हूं, वहां पहुंचने के लिए मुझे सब पहुंचने की जो दौड़ है चित्त से, वह छोड़ देनी होगी।
– ओशो – पुस्तक :- असंभव क्रान्ति
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