किसी भी विवेकशील आदमी का कोई वाद नहीं होता
जब गाँव का कोई व्यक्ति शहर की तरफ भागता है, तो लोग उसका बहुत सम्मान करते हैं। यदि शहर में उसका स्वागत होता है और सौभाग्य से कोई मल्टीनेशनल कम्पनी या ,माफियाओं का गिरोह यानि सरकार उसे अपना सेवक नियुक्त कर लेती है, तो गाँव में मिठाइयाँ बंट जाती है। उसके परिचित, मित्र मंडली और सगे-सम्बन्धी खुशी के मारे नाचने लगते हैं।
लेकिन यदि कोई व्यक्ति शहर से गाँव चला आता है, अपनी खेती, बाग-बगीचे संभालने लगता है, गिटार या बांसुरी आदि बजाने लगता है, चित्रकारी करने लगता है, या कोई किताब लिखने लगता है, तो लोग कहते हैं कि बेचारा शहर में जम नहीं पाया, पढ़ाई में भी कोई अच्छा नहीं था, अँग्रेजी भी नहीं बोल पाता था, तो भला शहरियों ने भगा दिया। वहाँ तो पढ़े लिखे और गुणवानों का ही सम्मान होता है।
क्या सोचा है कभी किसी ने कि मानव का जन्म मानव बनने के लिए हुआ था, न कि माफियाओं और देश के लुटेरों की गुलामी करने के लिए ?
शहरियों पर नजर डालें तो पाएंगे कि वे विवश, विवेकशून्य गुलाम हैं माफियाओं और देश को लूटने व लुटवाने वालों के। उन्हें तो इतना भी अधिकार नहीं है कि गलत को गलत कह दें। जहां उन्होंने गलत को गलत कहने का साहस किया, बेरोजगार हो जाएंगे, फुटपाथ पर आ जाएंगे।
उनका जीवन ही है कोल्हू के बैल की तरह माफियाओं द्वारा बनाए गए कोल्हू पर चलते रहना। पागलों की तरह दौड़ रहे हैं, ना जाने कहाँ पहुँचने की जल्दी है ?
जिददु कृष्णमूर्ति का विचार सुनिए:
मुझे अब एकांत में रहना अधिक रास आता है
सगे-संबंधियों समेत लगभग सभी परिचितों से दूरी बना ली मैंने। जो एक दो बचे थे, वे भी अब अजनबी हो गए। क्योंकि जैसा वे मुझे बनाना चाहते थे, वैसा मैं बन नहीं पाया। और जैसा मैं उन्हें बनाना चाहता था, वैसा वे बन नहीं पाये।
मुझे अब एकांत में रहना अधिक रास आता है, व्यर्थ की चर्चा और वाद-विवाद में रत्तीभर भी रुचि नहीं रही।
एकांत में तो कई बरसों से रह रहा था, लेकिन तब भी किसी अपने की खोज अवश्य थी। अब ना तो किसी अपने की खोज है, ना ही कोई इंतज़ार। क्योंकि मैंने देखा है जिनका भरा पूरा परिवार है, वे भी अकेले हैं। वे भी किसी अपने को खोज रहे हैं, किसी ऐसे को खोज रहे हैं जिन्हें वे अपना कह सकें, जिनके साथ बिना कोई स्वार्थ, लोभ के समय बिता सकें।
कुछ लोग कहते हैं कि वे मेरे साथ वक्त बिताना चाहते हैं। लेकिन सच तो यह है कि अब सिवाय स्वयं के और किसी के साथ वक्त नहीं बिताना चाहता। अब किसी भी दूसरे व्यक्ति के साथ नहीं रह सकता। क्योंकि जैसे ही कोई दूसरा आता है जीवन में, मेरा अपना जीवन तनाव में भर जाता है।
क्योकि दूसरा जो भी आता है, वह मुझे वैसा बनाना चाहता है जैसा उसने पढ़ा-सीखा या देखा। वह मुझे वैसे ही स्वीकार नहीं सकता, जैसा मैं हूँ।
बहुत से लोग ऐसे भी मिले, जो स्वयं को नहीं बदलना चाहते लेकिन मेरे साथ रहना चाहते हैं। मैं तो जैसा हूँ, वैसा ही हूँ और आप जैसे हैं, वैसे ही रहना चाहते हैं, तो फिर मेरे साथ क्यों रहना ?
अपने ही साथ रहिए, वैसे ही रहिए, जैसे आप हैं ?
मेरे जीवन में आकर मेरी शांति भंग क्यों करना चाहते हैं ?
आप जैसे हैं, वैसे ही रहना चाहते हैं, तो किसी दूसरे को मत खोजिए। क्योंकि दूसरा जब भी कोई आएगा, वह आपको बदलेगा। और यदि आप नहीं बदले तो वह चला जाएगा।
तुम्हारा एकान्त ही तुम्हें मनुष्य बना सकता है,
भीड़ तुम्हें भेड़ बना देगी।
इसीलिए मुझसे भी दूर रहिए…..क्योंकि मैं किसी दूसरे के साथ नहीं रह सकता। मेरी प्रवृति ही नहीं है दूसरे के साथ रहने की, इसीलिए एकांत पसंद है मुझे। हाँ जीवन के किसी पड़ाव पर कोई अपना मिल गया कभी, जिसके होने पूर्णता का भाव प्रकट होता हो, तब हो सकता है कि मैं किसी के साथ नजर आऊँ रहता हुआ। लेकिन वर्तमान में ऐसा कोई नहीं है।
ओशो के प्रवचन का एक अंश पढिए मेरे एकांत का अर्थ समझ में आ जाएगा;
किसी भी विवेकशील आदमी का कोई वाद नहीं होता
मैंने सुना है, एक बार एक आदमी को सत्य मिल गया। शैतान के शिष्य भागे हुए शैतान के पास गए और उन्होंने कहा, क्या सो रहे हो, एक आदमी को सत्य मिल गया है! सब मुश्किल पड़ जाएगी।
शैतान ने कहा, घबराओ मत, जाकर गांव में खबर कर दो कि एक आदमी को सत्य मिल गया है, किसी को अनुयायी बनना हो तो बन जाओ।
शैतान के शिष्यों ने कहा, इससे क्या फायदा होगा; हम ही प्रचार करें?
शैतान ने कहा कि मेरे हजारों साल का अनुभव यह है कि अगर किसी आदमी को सत्य मिला हो और उस आदमी को और उसके सत्य को खत्म करना हो तो अनुयायियों की भीड़ इकट्ठी कर दो। तुम जाओ, गांव-गांव में डुंडी पीट दो कि किसी आदमी को अगर सत्य गुरु चाहिए हो तो सत्य गुरु पैदा हो गया है। तो जितने मूढ़ होंगे वे भाग कर उसके आस-पास इकट्ठे हो जाएंगे और एक बुद्धिमान आदमी हजार मूढ़ों के बीच में क्या कर सकता है ?
और यही हुआ। शैतान के शिष्यों ने गांव-गांव में खबर कर दी। जितने बुद्धिहीन जन थे वे सब इकट्ठे हो गए। और वह आदमी भागने लगा कि मुझे बचाओ।
लेकिन उसे कौन बचाता! शिष्यों ने उसे जोर से पकड़ लिया। दुश्मन से आप बच सकते हैं, शिष्यों से कैसे बच सकते हैं?
इसलिए अगर कभी किसी को सत्य मिल जाए तो अनुयायियों से सावधान रहना, शिष्यों से बचना। वे हमेशा तैयार हैं, शैतान उनको सिखा कर भेजता है।
गांधी जिंदगी भर चिल्लाते रहे कि मेरा कोई वाद नहीं है और अब गांधीवादी उनके वाद को सुव्यवस्था देने की कोशिश में लगे हैं। वे रिसर्च कर रहे हैं, शोध-केंद्र बना रहे हैं, स्कॉलरशिप्स दे रहे हैं, और कह रहे हैं कि गांधी के वाद का रेखाबद्ध रूप तय करो। गांधी के वाद को खड़ा किया जा रहा है। गांधी जिंदगी भर कोशिश करते रहे कि मेरा कोई वाद नहीं है।
सच बात तो यह है कि किसी भी विवेकशील आदमी का कोई वाद नहीं होता। विवेकशील आदमी प्रतिपल अपने विवेक से जीता है, वाद के आधार पर नहीं। वाद के आधार पर वे जीते हैं जिनके पास विवेक नहीं होता है।
वाद का क्या मतलब होता है?
वाद का मतलब होता है, तैयार उत्तर। जिंदगी रोज बदल जाती है, जिंदगी रोज नए सवाल पूछती है और वादी के पास तैयार उत्तर होते हैं। वह अपनी किताब में से उत्तर लेकर आ जाता है कि यह उत्तर काम करना चाहिए। जिंदगी रोज बदल जाती है, वादी बदलता नहीं, वादी ठहर जाता है।
जो महावीर पर ठहर गए हैं वे ढाई हजार वर्ष पहले ठहर गए हैं। ढाई हजार वर्ष में जिंदगी कहां से कहां चली गई और वादी महावीर पर ठहरा है। वह कहता है, हम महावीर को मानते हैं। जो कृष्ण पर ठहरा है वह साढ़े तीन, चार हजार वर्ष पहले ठहरा है। जो क्राइस्ट पर ठहरा है वह दो हजार साल पहले ठहरा है। वे वहां ठहर गए हैं जिंदगी वहां नहीं ठहरी है, जिंदगी आगे बढ़ती चली गई है।
जिंदगी प्रतिपल बदल जाती है। जिंदगी रोज नए सवाल लाती है और वादी के पास बंधे हुए रेडीमेड उत्तर हैं। रेडीमेड कपड़े हो सकते हैं, रेडीमेड उत्तर नहीं हो सकते। वह बंधे हुए उत्तर को लेकर नए सवालों के सामने खड़ा हो जाता है। वह कहता है कि हमारे उत्तर सही हैं। तब ये उत्तर हारते चले जाते हैं। इसलिए वादी व्यक्ति के पास निरंतर हार आती है, कभी जीत नहीं आती। वादी हमेशा हार जाते हैं। – ओशो
तो वादी हों, या मार्गी हों, या पंथी हों, हिन्दू हों, या मुस्लिम हों, या सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध, यहूदी हों, या कॉंग्रेसी हों, या भाजपाई हों, या सपाई हों, बसपाई हों……सभी किताबों और दड़बों में कैद हो चुके हैं। आरएसएस, इस्कॉन, ब्रह्मकुमारी, गायत्री परिवार, साधु-समाज, आनन्दमार्ग, विश्वहिन्दू परिषद, जैसे बड़े-बड़े संगठन, समाज भी माफियाओं के अधीनस्थ दड़बे बन चुके हैं, जिनके ठेकेदार अपने मालिकों के आदेशों के आधार पर तय करते हैं कि दड़बों में कैद गुलामों, ज़ोम्बियों, मवेशियों को कैसे और किस ओर हाँकना है।
ओशो भी अपने अंतिम दिनों में समझ चुके थे कि उनका कम्यून हाइजेक हो चुका है, इसलिए ही उनहोंने कहा था: