धर्म विद्रोह है: औपचारिक धर्म से मुक्ति और वास्तविक धर्म की खोज
धर्म विद्रोह है–वैयक्तिक विद्रोह है
विद्रोह का अर्थ है: उधार धर्म से मुक्ति; नगद धर्म की खोज।
विद्रोह का अर्थ है: औपचारिक धर्म से मुक्ति; वास्तविक धर्म की खोज।
एक औपचारिक धर्म है। तुम्हारी मां है, तो तुम पैर छूते हो, चाहे पैर छूने का कोई भाव हृदय में उठता न हो; चाहे पैर छूने की कोई भावना न हो। शायद पैर छूना तो दूर, क्रोध हो मन में। शायद मां को क्षमा करने की भी क्षमता तुममें न हो। लेकिन तुम पैर छूते हो। एक औपचारिक, एक व्यावहारिक बात है। छूना चाहिए–मां है।
ऐसे ही तुम मंदिर जाते हो। ऐसे ही तुम शास्त्र पढ़ लेते हो। ऐसे ही तुम प्रार्थना कर लेते हो। तुम्हारा हृदय अछूता ही रह जाता है। तुम्हारे हृदय में कोई तरंगें नहीं उठतीं; संगीत नहीं गूंजता; कोई नाद नहीं उठता। तुम्हारी हृदय की वीणा अकंपित ही रह जाती है। बस, औपचारिक; करना था कर लिया–ऐसे करते जाते हो, जैसे तुम्हें प्रयोजन ही नहीं है।
तुमने मंदिर जाते लोगों को देखा! तुमने अपने पर खुद विचार किया, जब तुम सुबह उठ कर बैठ कर गीत पढ़ लेते हो; या पूजा कर लेते हो; या घंटी बजा देते हो, पानी ढाल देते हो! सब यंत्रवत! न तो तुम्हें रोमांच होता परमात्मा पर पानी ढालते वक्त: न तुम्हारी आंख से आनंद के अश्रु बहते। न भगवान को भोग लगाते वक्त तुम्हारे हृदय में कोई उत्सव होता; न तुम गीत गुनगुनाते। बस उपचार।
धार्मिक होना हो, तो हार्दिक होना जरूरी है। विद्रोह का अर्थ है: जीवन में हार्दिकता आए। वही करो, जो तुम्हारा हृदय करना चाहता है। रुको; अगर अभी सच्ची प्रार्थना पैदा नहीं हुई है, तो कोई जरूरत नहीं है प्रार्थना के साथ मन बहलाने का।
किसको धोखा दोगे?
परमात्मा को तो धोखा नहीं दे सकते। अपने को ही धोखा दे रहे हो। तो व्यर्थ क्यों समय खोते हो?
**ओशो, कन थोरे कांकर घने, # 9