गुरुओं के द्वारा निर्मित दड़बों में कैद व्यक्ति अपनी मौलिकता खो देता है

साधू-संतों को क्रोध नहीं आना चाहिए, काम-वासना नहीं सताना चाहिए, बीमार नहीं पड़ना चाहिए, आरामदायक बिस्तर, गद्दे, तकिये, जूते, वस्त्र आदि का प्रयोग नहीं करना चाहिए, हमेशा फर्श पर सोना चाहिए, गरीबों, भूखों नंगों की तरह जीना चाहिए।
ऐसी धारणा बना रखी है उन लोगों ने, जो स्वयं इन सब से मुक्त नहीं हैं।
और ऐसी धारणा बनी क्यों ?
क्योंकि किसी मूर्ख ने ऐसा कह दिया, क्योंकि किसी किताब में ऐसा कहीं पढ़ लिया, क्योंकि कुछ ढोंगियों ने ऐसे कुछ फ्रेम बना दिये कि जो इस फेम में फिट न बैठे वह साधु-संत नहीं।
मैंने जब ये सब सुना पढ़ा साधू-समाज पहुँचकर अर्थात हरीद्वार, प्रयागराज, देवघर जैसे तीर्थ स्थलों पर, और चमत्कारी बाबाओं के शिष्यों, अनुयाइयों के मुँह से, तो तय कर लिया कि मुझे साधु-संत या बाबा बनना ही नहीं है।
मुझे तो संन्यासी बनना था और संन्यासी भी किसी ऐसे समाज का नहीं, जो अब दड़बा बन गया हो रट्टू तोतों और भेड़चाल में दौड़ रही भेड़ों का। मुझे मुक्त होना था थोपे गए सभी बंधनों, रीति-रिवाजों से। मुझे स्वयं को जानने समझने के लिए एकांत चाहिए था, मुझे तो ऐसा स्थान चाहिए था, जहां मेरी इच्छा के विरुद्ध कोई मुझसे मिलने भी ना आ सके।
जब एकांत मिला, स्वयं को जानने समझने का अवसर मिला, तो समझ में आया कि हर गुरु ने अपने=अपने स्वभाव, रुचि व अनुभवों के आधार पर दड़बा बनाया और उन दड़बों में कैद भक्त और अनुयायी रूपी भेड़ों को कुछ नियमों, कर्तव्यों में बांध दिया। अब उन भक्तों की स्थिति बिलकुल वैसी हो गयी जैसी स्कूल के बच्चों की हो जाती है, जैसी सेना और पुलिस में शामिल व्यक्तियों की हो जाती है, जैसी सरकारी नौकरों, अधिकारियों की हो जाती है।
अर्थात गुरुओं के द्वारा निर्मित दड़बों में कैद हो जाने के बाद व्यक्ति अपनी मौलिकता खो देता है और अपने गुरु की नकल या कार्बन कॉपी बनकर रह जाता है। गुरुजी ऐसा करते थे, हमें भी वैसा ही करना है, गुरुजी ऐसा चलते थे, हमें भी वैसा ही चलना है, गुरुजी सुबह चार बजे नहाते थे, हमें भी नहाना है, गुरुजी उबली हुई सब्जी खाते थे, हमें भी खाना है…..नहीं तो हम गुरुजी के शिष्य या अनुयायी नहीं।
लेकिन गुरुजी माफियाओं का विरोध करते थे, इसलिए हमें भी विरोध करना है यह दिमाग से निकल जाता है। क्योंकि इसमें नौकरी जाने का खतरा है, फुटपाथ पर आ जाने का खतरा है, भूखों मरने का खतरा है और जेल से लेकर जान तक जाने का खतरा हो सकता है।
अक्सर लोग कहते हैं मुझसे कि आप संन्यासी हैं, आपको क्रोध नहीं आना चाहिए। जबकि मुझे किसी साधारण सरकारी गुलाम से कई गुना अधिक क्रोध आता है।
मुझसे बेहतर तो नेता, अभिनेता हैं, जिन्हें क्रोध नहीं आता, भले कोई बीच चौराहे जूते लगा दे।
लोग कहते हैं कि आप संन्यासी हैं तो आपको बुखार नहीं होना चाहिए, बीमार नहीं पड़ना चाहिए। जबकि मैं तब तक बीमार और बुखार से दूर रहा, जब तक आश्रमवासी नहीं बना। दुनिया भर की बीमारियों ने घेरा मुझे आश्रम में स्थायी रूप से रहने के बाद। बीमारियों ने घेरा मुझे शाकाहारी हो जाने के बाद।
लेकिन अब मैं खुश हूँ, क्योंकि मुझे पता चल गया कि मैं कोई चमत्कारी बाबा या साधू-संत नहीं हूँ। मैं खुश हूँ, क्योंकि अब मैं किसी के बनाए फ्रेम में फिट नहीं बैठता। मैं खुश हूँ कि मैं किसी बाड़े की भेड़ नहीं रहा, इंसान बन गया हूँ। और इंसान भी ऐसा जो दूसरों के बनाए फ्रेम में फिट नहीं बैठता। क्योंकि मैं अब मौलिक हूँ, स्वतंत्र हूँ, युनीक हूँ। केवल भगवावस्त्र ही कॉमन है अन्यथा कुछ भी कॉमन नहीं है साधु समाज के साधु-संतों और मुझमें।
तो कृपया मुझे अपने गुरुओं के बनाए दड़बों के फ्रेम में फिट करने का प्रयास मत करिए। ईश्वर ने मुझे इंसान बनने के लिए भेजा था, ना कि माफियाओं के गुलाम दड़बों की भेड़, बत्तख और गुलाम बनने के लिए।
मैं बीमार पड़ता हूँ तो खुश होता हूँ, मुझे ठंड लगती है तो खुश होता हूँ, मुझे गर्मी सहन नहीं होती, तो खुश होता हूँ, मुझे भूख लगती है तो खुश होता हूँ। खुश होता हूँ क्योंकि मुझे यह सब अनुभव हो रहा है तो मैं ज़िंदा हूँ, मुर्दा नहीं हुआ हूँ चमत्कारी बाबाओं के समाज की तरह अभी तक। और यही कारण है कि मैं माफियाओं और देश के लुटेरों और उनके गुलामों के विरुद्ध लिखता हूँ। अन्यथा मैं भी चमत्कारी बाबाओं और उनके दड़बों में कैद भेड़ों की तरह माफियाओं के सामने नतमस्त्क होकर उनकी चाकरी और गुलामी कर रहा होता।
क्या आप जानते हैं कि वेदान्त और योगक्रिया में पारंगत स्वामी विवेकानन्द भी बीमार रहते थे ?
क्या आप जानते हैं कि विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस भी बीमार रहते थे ?
क्या आप जानते हैं कि रामानुजन भी बीमार रहते थे ?
निरंतर बीमार रहने का एक कारण यह भी होता है कि व्यक्ति का मन अब इस दुनिया में नहीं लग रहा, वह मुक्त हो जाना चाहता है माफियाओं और उनके गुलामों की इस दुनिया से।
~ विशुद्ध चैतन्य
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