आर्यसमाज का जन्म चूहे के कारण
महर्षि दयानंद के जीवन में घटना है। उस घटना को इस भांति तो कभी समझा नहीं गया है। घटना है कि वे पूजा को बैठे हैं। उन्होंने जो मिष्ठान चढ़ाए हैं मूर्ति के सामने, एक चूहा ले भागा। एक चूहा! हो सकता है गणेशजी की मूर्ति रही हो। और चूहा तो उनका वाहन है। या शंकरजी की मूर्ति रही हो, वे गणेशजी के पिता हैं; थोड़ा दूर का संबंध है चूहे से।
चूहा मिष्ठान ले भागा। दयानंद के मन में संदेह पैदा हो गया कि जो भगवान अपनी रक्षा चूहे से नहीं कर सकता, वह मेरी रक्षा क्या करेगा? उन्होंने मूर्ति—बूर्ति फेंक दी। उसी दिन से वे अमूर्तिवादी हो गए। उस चूहे के द्वारा मिठाई का ले जाना ही आर्यसमाज का जन्म है, उसी दिन आर्यसमाज पैदा हुआ।
लेकिन थोड़ा सोचने जैसा है कि मूर्ति में दयानंद का भरोसा था क्या? अगर भरोसा था, तो एक चूहा भरोसे को तोड़ सकता है? तो चूहा दयानंद से ज्यादा बड़ा महर्षि मालूम होता है।
एक चूहा दयानंद की श्रद्धा को तोड़ दिया। श्रद्धा थी? अगर श्रद्धा होती, तो कौन तोड़ सकता है? श्रद्धा थी ही नहीं, पहले स्थान पर। ऐसे ही झूठी पूजा चल रही थी। लेकिन दयानंद को यह दिखाई नहीं पड़ा कि मेरी श्रद्धा झूठी थी। दयानंद को दिखाई पड़ा, मूर्ति व्यर्थ है। इसे थोड़ा सोचने जैसा है।
अगर दयानंद निश्चित ही आत्म—खोजी होते, तो उनको यह दिखाई पड़ता कि एक चूहे ने श्रद्धा तोड़ दी। मेरे पास श्रद्धा ही नहीं है। और हो सकता है, वह शरारत गणेशजी की ही रही हो कि चूहा ले जा मिठाई, इसकी झूठी श्रद्धा तोड़।
लेकिन उस दिन से वे मूर्ति—विरोधी हो गए। वे मूर्ति के प्रेमी कब थे? उनका मूर्ति—विरोध तो समझ में आता है। लेकिन वे प्रेमी कब थे, यह मेरी समझ में नहीं आता। प्रेमी इतनी जल्दी छोड़ देता है प्रेम? प्रेम इतना कमजोर और कच्चा धागा है? प्रेम कोई कच्चे कांच की चूड़ी है? कि ऐसे चूहा गिरा दे और तोड़ दे!
अगर दयानंद की जगह सच में कोई आस्तिक हुआ होता, तो उसने गणेशजी में तो भगवान देखा ही था, चूहे में भी भगवान देखा होता। श्रद्धा का आकाश बड़ा है। और उसने कहा होता, अरे, चूहा भगवान! तो तुम मिठाई ले चले। तो जिसको चढ़ाई थी, पहुंच गई। हम तो सोचते थे, मूर्ति मुरदा है। लेकिन मूर्ति मुरदा नहीं है। मूर्ति ने चूहे की तरफ से हाथ फैलाया और मिठाई ले ली।
अगर श्रद्धा होती, तो ऐसा दिखता। और तब यह मुल्क आर्यसमाज के दुर्भाग्य से बच जाता। लेकिन वह नहीं हो सका। चूहा आर्यसमाज को पैदा करवा गया। संदेह था भीतर।
दयानंद तर्कवादी हैं, आस्तिक नहीं हैं। और कभी आस्तिक नहीं हो पाए। तर्क ही रहा; श्रद्धा कभी न हो पाई। तर्क का ही सब जाल रहा। मरते दम तक भी श्रद्धा पैदा नहीं हो सकी। वे पहले कदम पर ही चूक गए।
उस दिन उन्हें तय करना था कि मेरी नास्तिकता अभी मरी नहीं है, मेरा संदेह अभी मरा नहीं, अभी मैं पूजा के योग्य नहीं। उन्होंने समझा कि यह शंकरजी या गणेशजी पूजा के योग्य नहीं। जानना था कि मैं अभी पूजा का अधिकारी नहीं। अभी इस मंदिर में प्रवेश के मैं योग्य नहीं हुआ; अभी मुझे श्रद्धा खोजनी पड़ेगी।
अगर ठीक आँख होती, तो चूहे ने बता दिया होता कि तुम्हारी श्रद्धा ऊपर—ऊपर है, पतले कागज की तरह चढ़ी है; भीतर संदेह विराजमान है तुम्हारे मंदिर में। चूहा कुछ पैदा कर सकता है जो तुम्हारे भीतर नहीं?
सब संदेह चूहों की तरह तुम्हें कुतर देते हैं, क्योंकि तुम्हारी श्रद्धा कपड़ों जैसी है, वह तुम्हारी आत्मा नहीं है। इसलिए फिर तुम डरते हो कि कहीं कोई ऐसी बात न कह दे, जिससे तुम्हारी श्रद्धा डगमगा जाए।
मैं ग्वालियर की महारानी के घर मेहमान था। उन्होंने पहले मुझे कभी सुना नहीं था। पता नहीं किस भूल—चूक से मुझे बुला लिया। सुनकर वे घबड़ा गईं, बहुत बेचैन हो गईं। साधारण श्रद्धालु जन, जिनकी श्रद्धा में कोई बल नहीं है, कोई बुनियाद नहीं है। शिष्टाचारवश, उनकी आने की भी हिम्मत मेरे पास न रही। उनके ही महल में मैं मेहमान हूं लेकिन शिष्टाचारवश..। शिष्टाचार वाली महिला हैं।
वे दूसरे दिन मुझे मिलने आईं और कहा कि मेरी हिम्मत नहीं रही आने की आपके पास। जो सुना, उससे मैं तो घबरा गई। आप तो हमारी श्रद्धा नष्ट कर देंगे!
मैंने कहा, जो श्रद्धा तुम्हारी मेरे बोलने से नष्ट हो जाए उसका तुम मूल्य कितना आंकती हो? शब्दों से जो श्रद्धा मिट जाए, वह पानी के बबूलों जैसी कमजोर होगी। शब्द हवा में बने बबूले हैं। मैंने कुछ कहा, तुम्हारी श्रद्धा टूट गई! श्रद्धा है या मजाक कर रखा है? उन्होंने कहा, जो भी हो, लेकिन अब आप और कुछ मत कहें। मेरा लड़का भी आपसे मिलने आना चाहता था। लेकिन मैंने उसे रोक दिया। क्योंकि वह तो अभी जवान है। हो सकता है, आप उसको बिलकुल डगमगा दें।
अब यह मां न तो यह देख पा रही है कि इसकी श्रद्धा दो कौड़ी की है। और न यह देख पा रही है कि जिस दो कौड़ी की श्रद्धा पर यह अपने बेटे को बचा रही है, उसका कितना मूल्य हो सकता है! उससे तुम नाव बनाओगे? उससे तुम भवसागर पार करोगे?
सोना आग से गुजरता है, तो डरता नहीं; कचरा गुजरता है, तो डरता है। कचरा जलेगा।
मैं तुमसे कहता हूं कि संदेह से गुजरकर जो बच जाए, वही श्रद्धा है। संदेह में जो मर जाए, तुम उसे कचरा समझना, वह सोना था ही नहीं। अच्छा हुआ मर गया। संदेह को धन्यवाद देना। क्योंकि संदेह ने तुम्हें कचरे को बचाने से बचाया, कचरे को सम्हालने से बचाया, नहीं तुम कचरे को तिजोरी में रखे बैठे रहते।
– ओशो
गीता दर्शन