प्रायोजित महामारियों से रक्षा के लिए प्रायोजित सुरक्षा कवच हैं, लेकिन प्रायोजित प्रदूषण से रक्षा के लिए कुछ नहीं ?

क्या कभी सोचा है कि भारत के पढ़े-लिखे डिग्रिधारियों और विदेश के पढ़े-लिखों में इतना अंतर क्यों होता है ?
विदेशी पढ़े-लिखे अपने गाँव और शहरों को स्वच्छ रखते हैं, जबकि भारतीय पढ़े-लिखे जब तक कूड़ा-कर्कट ना बिखेर लें अपने आसपास तब तक उन्हें लगता ही नहीं कि वह उनका अपना एरिया है।
क्यों विदेशी पढ़े-लिखे लोग नदियों और जलाशयों में कूड़ा-कर्कट नहीं फेंकते, जबकि भारतीय पढ़े-लिखे ऐसा करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं ?
शायद इसका प्रमुख कारण यह है कि भारत आज भी विदेशियों का उपनिवेश है और यहाँ जो शिक्षा दी जाती है, वह केवल गुलाम बनने की दी जाती है देशभक्त बनने की नहीं। यही कारण है कि भारतीय कभी भी भारत को अपना देश नहीं मानते, बल्कि यहाँ तो बच्चा पैदा होते ही माता-पिता अपने बच्चे को विदेश में सेटल करने का सपना देखने लगते हैं।
और चूंकि भारत को अपना देश ही नहीं मानते यहाँ के भारतीय, इसीलिए मोहल्ले से लेकर नदियों तक को कूड़ादान और गंदा नाला बनाने में संकोच नहीं करते।
करोड़ों रुपए फूँक दिये जाते हैं नदियों के स्वच्छता अभियान के प्रचार-प्रसार, आडंबरों और नौटंकियों में, लेकिन फिर भी नदियों को गंदे नालों में रूपांतरित होने से रोक नहीं पा रहे। क्यों ?
क्योंकि नदियों को स्वच्छ करने या रखने का ढोंग करके रुपये डकारने हैं, न की स्वच्छ करना है।
यदि वास्तव में नदियों को स्वच्छ रखने का संकल्प होता सरकारों और नागरिकों का, तो जैसे प्रायोजित महामारी से सुरक्षा के नाम पर देशव्यापी बंदीकरण (Lock-Down) अभियान चलाया गया, वैसे ही नदियों में कूड़ा और गंदगी उगलने वाले कारखानों और सीवेज पाइप्स पर प्रतिबंध लगाया जाता। स्कूल, कॉलेज में बच्चों को सिखाया पढ़ाया जाता कि नदियों और जलाशयों पर कूड़ा-कर्कट फेंकने वाले मानसिक रूप से विक्षिप्त होते हैं।
प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को सड़क पर उतरने की अनुमति देने से पहले उन वाहनों पर कोई ऐसा सुरक्षा कवच क्यों नहीं लगवाया जाता, जैसे प्रायोजित महामारी से बच्चने से के लिए प्रायोजित सुरक्षा कवच चेपा जाता है पूरे देश को बंधक बनाकर ?
जब प्रदूषण फैलाया जा रहा होता है, तब सारे डबल्यूएचओ के गुलाम वैज्ञानिक, डॉक्टर और सरकारें घोड़े बेचकर सो रहे होते हैं। और बाद में प्रदूषण नियंत्रण के नाम पर आम जनता पर जुर्माना लगाकर करोड़ों रुपए की कमाई करने लगते हैं। और वह कमाई भी प्रदूषण नियंत्रण पर खर्च न होकर स्विस बैंक में दफन हो जाते है।
अभी हाल ही में जानकारी मिली कि कुछ कंपनियाँ शुद्ध हवा बेचने का धंधा शुरू कर चुकी हैं। और मूर्ख लोग खरीद भी रहे हैं।
अब प्रश्न यह कि वायु को शुद्ध रखने के लिए वैसा ही विश्व व्यापारी अभियान आज तक चलाया क्यों नहीं गया, जैसा प्रायोजित सुरक्षा कवच बेचकर मोटा मुनाफा कमाने के लिए फार्मा माफियाओं और उनकी गुलाम सरकारों द्वारा चलाया जाता है ?
Pure Himalayan Air कंपनी का दावा है कि वो 10 लीटर शुद्ध हवा से भरी बोतल 550 रुपये में ग्राहकों को बेच रही है. इस हवा भरी बोतल से आप करीब 160 बार सांस ले सकेंगे। सांस लेने के लिए बोतल के साथ मास्क भी दिया जा रहा है. कंपनी की मानें तो बोतल में उत्तराखंड के चमोली में हवा को कम्प्रेस करके बोतलों में भरा जाता है। एक बोतल से कुल 160 बार सांस ले सकेंगे। 160 बार सांस लेने के बाद बोतल खाली हो जाएगी।
ऑस्ट्रेलिया की कंपनी ऑजेयर (AUZAIR) दो साइज की बोतलों में हवा बेच रही है. साढ़े 7 लीटर ताजा हवा की बोतल की कीमत 1499 रुपये है और 15 लीटर ताजा हवा वाली बोतल की कीमत 1999 रुपये है।
चिंतन-मनन करिए कि आप कमा क्यों रहे हैं ?
यही सब खरीदने के लिए कमा रहे हैं, या फिर सुखी-समृद्ध जीवन जीने के लिए कमा रहे हैं ?
~ विशुद्ध चैतन्य
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