सम्प्रदाय और साम्प्रदायिकता में क्या अंतर है ?

सम्प्रदाय और साम्प्रदायिकता में वही अंतर है जो जाती और जातिवाद में है।
जो पार्टी और पार्टीवाद में है।
जो ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद में है।
जो दलित और दलितवाद में है।
उदाहरण के लिए ब्राह्मण होना जन्मजात स्वभाव है। लेकिन ब्राह्मणवादी होना साम्प्रदायिकता है। और साम्प्रदायिकता भीड़ पर आधारित होती है। सम्प्रदाय में ब्राह्मण होना अनिवार्य नही होता, केवल ब्राह्मण लेबल लगा हुआ पट्टा होना अनिवार्य होता है। आप ब्राह्मण जैसे दिखने चाहिए, भले आचरण ब्राह्मणों वाले न हों, भले प्रवृति से वैश्य हों, भले प्रवृति से शूद्र हों। लेकिन ब्राह्मण का पट्टा गले में है, तो आप ब्राह्मण माने जाएंगे।
साम्प्रदायिकता अपने सम्प्रदाय के विस्तार को महत्व देता है। अर्थात जो जिस सम्प्रदाय का होगा, वह अपने सम्प्रदाय में दुधारू मवेशियों की भीड़ बढ़ाएगा। दूसरे संप्रदायों से दुधारू मवेशी अपने सम्प्रदाय में लेकर आएगा। और फिर वे मवेशी उनके लिए दूध देंगी, उनके बाड़ों में कैद रहेंगी और वे जैसा चाहेंगे उनका उपयोग करेंगे।
साम्प्रदायिकता से ग्रस्त समाज में इंसान बहुत दुर्लभ होते हैं, अधिकांश मवेशी ही होते हैं। यही कारण है कि सम्प्रदाय चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो जाए, चाहे करोड़ों की संख्या हो जाये सदस्यों की, लेकिन माफियाओं और देश के लुटेरों का विरोध करने का साहस नहीं कर पाएंगे सम्प्रदाय के सदस्य। क्योंकि सम्प्रदाय का मालिक या ठेकेदार माफियाओं का गुलाम या पिट्ठू हो गया तो पूरा सम्प्रदाय माफियाओं का गुलाम हो जाएगा।
प्रत्येक सम्प्रदाय में ऐसे लोग नियुक्त किए जाते हैं जो दूसरे संप्रदायों के लोगों को अपने सम्प्रदाय में लाने के लिए लालच देते हैं, स्वर्ग, जन्नत, हूरों, अप्सराओं के किस्से कहानियाँ सुनाते हैं। यह समझाते हैं कि तुम्हारे दड़बे का मालिक तुम्हारा ध्यान नहीं रखता, इसलिए दुःख भोग रहे हो। जबकि हमारे दड़बा का मालिक बड़ा उदार है, तुम्हारे सारे पाप अपने सर ले लेता है और तुम्हें दुःखों से मुक्त करवा देता है। हमारे दड़में तो पूरे साल पाप करो, लूटो, खसोटो, माफियाओं की चाकरी और गुलामी करो, देश को बर्बाद करने में सहयोगी बनो….केवल एक बार गंगा स्नान कर लो, तीरथों के चक्कर लगा लो, ईश्वर को चढ़ावा, रिश्वत, कमीशन चढ़ा दो तो सारे पाप दूर हो जाएंगे।
ईश्वर/अल्लाह वाले संप्रदायों के अलावा गुरुओं द्वारा स्थापित सम्प्रदाय हैं, फिर नेताओं के द्वारा स्थापित कॉंग्रेस, भाजपा जैसे सम्प्रदाय हैं। और सभी यही समझते हैं कि हमारे दड़बों में शामिल हो जाओ, तो सारे कष्ट दूर हो जाएंगे। और सभी यही सपने संजोय बैठे हैं कि जब सारी दुनिया की भेड़े उनके दड़बों में आ जाएंगी, तो विश्व के सभी प्राणी सुखी व समृद्ध हो जाएंगे।
लेकिन वास्तविकता यह है कि दुनिया के सभी दड़बे (सम्प्रदाय) और भेड़ें माफियाओं और देश के लुटेरों के अधीन हैं। इसलिए कोई किसी भी दड़बा में चला जाए, करनी तो माफ़ियों और देश के लुटेरों की चाकरी और गुलामी ही है।
इसलिए मैं सांप्रदायिकता के विरुद्ध हूँ, पार्टीवाद के विरुद्ध हूँ, मोदीवाद, अंबेडकरवाद, पेरियारवाद के विरुद्ध हूँ। मेरा मानना है कि भेड़ों की दड़बों में शामिल होने के बाद कहलाओगे तो भेड़ ही, चाहे कितनी कोशिश कर लो इंसान दिखने की।
दुनिया के सभी दड़बों के ठेकेदार व्यक्ति को पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास, ध्यान, भजन में उलझाएँ रखेंगे। और यदि कोई इन सबसे हटकर माफियाओं और देश के लुटेरों का विरोध करने लगेगा, तो दुनिया का सबसे बड़ा दड़बा भी साथ नहीं दे पाएगा। उसे अकेले ही लड़ना पड़ेगा।
और जब अकेले ही लड़ना है, तो फिर किसी दड़बा में शामिल होने की आवश्यकता ही क्या है ?
जिसके साथ भी वाद जुड़ जाता है, वह विवादित ही नहीं, विनाशक भी हो जाता है। इसी प्रकार साम्प्रदायिकता विनाशक है उनके लिए जो इंसान बन चुके हैं,जो भेड़चाल से मुक्त हो चुके हैं, जिनकी चेतना जागृत हो चुकी है, जिनकी आँखें खुल चुकी हैं, जिनमें चिंतन-मनन करने की योग्यता विकसित हो चुकी है।
सम्प्रदाय वह दड़बा है, माफियाओं द्वारा निर्मित वह जाल है, जिसमें फँसने के बाद इन्सानों की वही गति होती है, जो मछुआरों के जाल में फँसने के बाद मछलियों की होती है। कुछ सौभाग्यशाली मछली एकेरियम में पहुँच जाती हैं और अमीरों का मनोरंजन करती हैं और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जीती हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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