कर्म और श्रम ही जीवन है चाकरों और गुलामों के लिए

कहते हैं लोग कि कुछ करो क्योंकि कर्म करने के लिए आए हैं हम दुनिया में। और कर्म भी वही करो, जो माफिया और देश के लुटेरे चाहते हैं कि करो।
यूपीएससी क्लियर करो आईएएस, आईपीएस बनो और अपने ही देश की जनता को लूटने और लुटवाने में सहयोगी बनो। छोटे-मोटे अपराधियों को पकड़ो, निर्दोषों को जेल भेजो, या कोर्ट कचहरी में उलझाओ और बड़े अपराधियों के लिए सत्ता के शीर्ष पदों पर पहुँचने का रास्ता बनाओ।
अभी हाल ही में अभिसार शर्मा व अन्य कई स्वतंत्र पत्रकारों के घरों पर छापे पड़े। लेकिन माफियाओं के गुलाम पत्रकारों पर आँख उठाने का भी साहस नहीं हुआ आईएएस, आईपीएस अधिकारियों की। क्योंकि उनके घरों पर नजर डाली, तो इनके अपने घर उजड़ जाएंगे।
सिर्फ शून्य ही पूर्ण हो सकता है

जिस दिन तुम निर्विचार होकर देखोगे उस दिन यह जीवन का सीधा सा सत्य तुम्हें दिखाई पड़ जाएगा कि साधारण होना ही यहां असाधारण होना है। ना-कुछ होना ही यहां सब कुछ होने का उपाय है।
चुपचाप जी लेना–जैसे वृक्ष जीते हैं, पशु-पक्षी जीते हैं, चांदत्तारे जीते हैं–कि किसी को तुम्हारी खबर भी न हो, तुम्हारे पदचिह्न इतिहास के पृष्ठों पर पड़ें ही न। समय की धार में तुम्हारी रेखा भी न उभरे, तुम्हारा हस्ताक्षर कहीं भी दिखाई न पड़े। ऐसे जी लेना जैसे पानी पर किसी ने लकीर खींची हो, खींची और मिट गई। तब तुम पाओगे कि तुम्हारे जीवन में बड़े फूल खिलते हैं। जब तुम ना-कुछ होने को राजी होते हो, शून्य होने को, तब तुम्हारे भीतर पूर्ण होने की क्षमता आ जाती है।
सिर्फ शून्य ही पूर्ण हो सकता है।
इसलिए शून्य को मैं परमात्मा का मंदिर कहता हूं। और साधारण होने को संन्यास कहता हूं। असाधारण होने की आकांक्षा पागलपन में ले जाती है। और असाधारण होने की आकांक्षा बड़ी साधारण है, सभी की है। और जिसने साधारण होना चाहा वही असाधारण हो जाता है। क्योंकि साधारण कौन होना चाहता है? निर्विचार होकर देखोगे तो जो लाओत्से की समझ है वही तुम्हारी समझ भी हो जाएगी।
ओशो
लाओत्से..ताओ उपनिसद्
और दुनिया कहती है कर्म करो, श्रम ही जीवन है
कर्म और श्रम ही जीवन है दीमकों के लिए, मजदूरों के लिए, चाकरों के लिए, गुलामों के लिए। क्योंकि यदि वे श्रम नहीं करेंगे, तो सेलेरी कहाँ से मिलेगी और सेलेरी नहीं मिलेगी तो बीवी बच्चे कैसे पालेंगे ?
लेकिन सभी को श्रम करने की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि बहुत से लोग जो कुछ भी कर रहे होते हैं व आत्मसंतुष्टि के लिए कर रहे होते हैं। जैसे कि चित्रकारी करना, जैसे कि संगीत बजाना, जैसे कि नाचना, गाना, जैसे कि लिखना, जैसे कि दूसरों की सहायता करना निःस्वार्थ भाव से। और ये सब श्रम के अंतर्गत नहीं आते। क्योंकि इन सब में व्यस्त व्यक्ति के लिए ये सब श्रम है ही नहीं।
श्रम केवल वही होता है, जिससे मानसिक तनाव होता है, जिससे मुक्त होकर व्यक्ति घर जाना चाहता है, छुट्टियाँ बिताना चाहता है। लेकिन जिस काम को करते हुए आनन्द आता है, जिसे करते हुए मानसिक सुख प्राप्त होता है वह श्रम कैसे हो सकता है ?
मुझे लिखना पसंद है और लिखते समय मुझे समय का बोध नहीं रह जाता। लिखते समय शब्द स्वतः उतरते चले जाते हैं, पहले से मुझे कुछ तय करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। तो लिखना मेरे लिए श्रम नहीं है। लिखना मेरे लिए कर्म भी नहीं है, क्योंकि लिखने के लिए किसी ने मुझे बाध्य नहीं किया है। लिखना मेरा प्रोफेशन भी नहीं है, क्योंकि कोई लिखने के एवज में पैसे नहीं दे रहा मुझे।
मैं वही करता हूँ जो करना मुझे पसंद है और तभी करता हूँ जब मेरा मन करता है
हाँ बहुत से लोग स्वेच्छा से मेरा सहयोग कर देते हैं क्योंकि उन्हें मेरे लेखन का महत्व समझ में आता है। क्योंकि वे चाहते हैं कि मैं निर्बाध लिखता रहूँ। लेकिन ऐसे लोग बहुत कम हैं और अधिकांश बहुत ही गरीब परिवार से हैं। कोई धनी सेठ आज तक मेरे लेखों से प्रभावित नहीं हुआ। कोई धनी राजनेता, धर्मगुरु मेरे लेखों से प्रभावित नहीं हुआ और ना ही उनहोंने कभी कोई सहायता करने की पहल की। और यह स्वाभाविक है। जो जितना धनी होता जाता है, उतना ही व्यावसायिक होता जाता है।
और व्यावसायिक लोग किसी की सहायता या सेवा नहीं करते, केवल व्यापार करते हैं, धंधा करते हैं। ऐसे लोगों को कर्मवादी लोग पसंद आते हैं, जो उनके लिए काम करें, उनकी चाकरी करें और बदले में वे सेलेरी, पेंशन, कमीशन देंगे।
लेकिन मैं थोड़ा नहीं, बहुत अलग हूँ। क्योंकि मैं ईश्वर के प्रति समर्पित हूँ। मैं जो कुछ करता हूँ उस ईश्वर की प्रेरणा से करता हूँ, जिसने इस सृष्टि को रचा, जिसने मुझे भेजा इस दुनिया में। मानव रचित ईश्वर/अल्लाह में मेरी कोई रुचि नहीं है। मानव रचित ईश्वर/अल्लाह/देवी/देवता स्वयं स्वतंत्र नहीं हैं। माफियाओ की इच्छा और आदेशों के गुलाम हैं वे सब। इसलिए प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर फरार हो जाते हैं और प्रायोजित महामारी का आतंक समाप्त होते ही फिर बैठ जाते हैं मंदिरों, तीरथों, मक्का, मदीना में कमीशन, रिश्वत चढ़ावा बटोरने के लिए।
तो कर्मवाद से मुक्त हूँ मैं। मैं वही करता हूँ, जो करना मुझे पसंद है और तभी करता हूँ जब मेरा मन करता है।
यदि आप अपने आसपास नजर डालें, तो कर्मवादियों ने पूरे विश्व को माफियाओं और लुटेरों का गुलाम बना रखा है। आप यह भी नहीं पूछ सकते कि जब एक वर्ष में 12 महीने होते हैं, मोबाइल कंपनियों के केलेण्डर में 13 या 13 से अधिक महीने क्यों होते हैं ?
नहीं पूछ सकते, क्योंकि आप कर्मवादी हैं। आपका काम है कर्म करना बिना कोई प्रश्न पुछे, बिना किसी फल की इच्छा किए।
लेकिन मेरे जैसे लोग कर्म नहीं करते। हम कर्म करने के लिए बाध्य नहीं हैं। इसलिए हम माफियाओं और लुटेरों का विरोध करने का साहस कर पाते हैं। इसीलिए हम उनके विरुद्ध लिख और बोल पाते हैं निर्भीकता से। यदि हम भी उनके गुलाम होते, उनके चाकर होते, तो हम भी गांधी जी के बंदरों की तरह आँख, कान, मुँह बंद करके कर्म किए जा रहे होते फल की चिंता किए बिना।
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