जब से होश संभाला है, दुनिया को ढोंग करते हुए ही देखा है

मैं भी कुछ नहीं लिखता। मेरे भीतर स्वाधीनता संग्राम में शहीद हुए सैंकड़ों क्रांतिकारियों की आत्माएँ बसती हैं। और वे जब रोते हैं देश के बिकाऊ नेताओं, अभिनेताओं, खिलाड़ियों और जनता को देखकर, तब मेरी उँगलियाँ टाइपिंग बोर्ड पर चलने लगती हैं और कोई लेख उभर आता है।
मेरे भीतर बसती हैं उन महान चैतन्य व्यक्तित्वों की आत्माएँ जिन्होंने दुनिया भर के कष्ट सहे, अत्याचार सहे, तिरस्कार सहे, यंत्रणाएं सहीं और फिर अधर्मियों द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुए, केवल इस अपराध में कि वे समाज को आध्यात्मिक और धार्मिक बनाना चाहते थे, जगाना चाहते थे।
वे जब देखते हैं कि आध्यात्मिक और धार्मिक गुरु चाटुकार, चापलूस और गुलाम हो चुके हैं माफियाओं और देश के लुटेरों के। जब देखते हैं देश की जनता आज भी आध्यात्मिक और धार्मिक होने का ढोंग कर रही है। नामजाप, स्तुति-वंदन, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास करके केवल परम्पराओं को ढो रही है और माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी व गुलामी करने के लिए विवश हैं। ईश्वर/अल्लाह को सर्वशक्तिमान मानने वाले प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर फार्मा माफियाओं और उनके एजेंट्स को सर्वशक्तिमान मानकर उनके सामने नतमस्तक हो रहे हैं, तो वे भी दुःखी होते हैं कि किन मूरखों के लिए अपने जीवन को कष्ट दिया, क्यों अपने प्राणों की आहुतियाँ दी।
इसीलिए ही ओशो ने कहा था, “तुम दुनिया की चिंता छोड़ दो। दुनिया जैसी पहले थी, वैसी ही आज भी है। ना तब सुधरी थी, ना अब सुधरी है और ना भविष्य में कभी सुधरेगी। तुम तो नाचो गाओ, उत्सव मनाओ। मेरा संन्यासी नाचेगा, गाएगा, उत्सव मनाएगा, ना कि दुनिया की चिंता में दुबला हुआ जाएगा।
लेकिन मैं लिखता हूँ, कई बरसों से खुलकर हंस नहीं पाया, नाच नहीं पाया, गा नहीं पाया…क्योंकि जब से होश संभाला है, दुनिया को ढोंग करते हुए ही देखा है। वास्तविक आध्यात्मिक और धार्मिक तो आजतक नहीं मिला मुझे। इसीलिए किसी को आध्यात्मिक/धार्मिक गुरु भी नहीं बना पाया। जीतने भी गुरु मिले, सभी ढोंग-पाखंड में लिप्त परम्पराओं को ढोने वाले मिले।
जितने भी गुरु हुए, उनके द्वारा स्थापित समाज आजा माफियाओं और देश के लुटेरों के गुलाम ठेकेदारों के दड़बों में रूपांतरित हो चुके हैं। आज ऐसा कोई भी समाज नहीं है, कोई भी पंथ नहीं, कोई भी पार्टी या संगठन नहीं है, जो माफियाओं और देश के लुटेरों के विरुद्ध खड़े होने का साहस करता हो। यहाँ तक कि जब देश के स्वतंत्र पत्रकारों पर माफियाओं के गुलाम सीबीआई, ईडी रेड करती है, पुलिस गिरफ्तार करती है, तब भी समाज मुक दर्शक बना तमाशा देखता रहता है। जनता थाली, ताली और बर्तन बजाकर नाच रही होती है।
क्या कभी सोचा है कि जिन गुरुओं के आदर्शों को उनका अपना समाज ही नहीं अपना पाया, जिन गुरुओं की शिक्षाओं को उनका अपना समाज ही आचरण में नहीं उतार पाया, उन गुरुओं को पूजने और उनकी किताबें पढ़ने और पढ़ाने का लाभ क्या ?
जब जन्म ही लिया है माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी और गुलामी करने के लिए, तब आध्यात्मिक और धार्मिक दिखने का ढोंग करने की आवश्यकता ही क्या है ?
~ विशुद्ध चैतन्य
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