भौतिकतावादी समाज आजीवन नहीं समझ पाएगा आश्रम का उद्देश्य और महत्व

बुद्ध ने जिस दिन घर छोड़ा, अपने सारथि से कहा था–क्योंकि सारथि दुःखी था। बूढ़ा आदमी था। बुद्ध को बचपन से बढ़ते देखा था। पिता की उम्र का था। वह रोने लगा, उसने कहा, मत छोड़ो। कहां जाते हो? जंगल में अकेले हो जाओगे। कौन संगी, कौन साथी?
तो बुद्ध ने कहा, महल में भी कौन संगी था, कौन साथी था? धोखा था। महल में भी जंगल था। आज नहीं कल जंगल जाना ही होगा। और किन्हीं और कंधों पर चढ़कर जाऊं, इससे बेहतर है अपने ही पैरों से चला जाऊं। मरकर जाऊं, इससे बेहतर है जिंदा चला जाऊं तो शायद कुछ कर पाऊं।
मैंने भी सोचा था दिल्ली छोड़ हरीद्वार जाकर रहूँगा। लेकिन हरीद्वार दिल्ली से भी अधिक भौतिकता वादियों का शहर निकला। फिर प्रयागराज आया, वहाँ भी लोगों को पैसों के पीछे ही भागते देखा। फिर यहाँ देवघर आया। ठाकुर दयानंद देव (1881-1937) द्वारा 1921 में निर्मित शांत और प्राकृतिक संसाधनों से युक्त लीलामंदिर आश्रम मिला तो यहाँ अपना बसेरा बना लिया। लेकिन यहाँ भी वही लोग मिले जो पैसों के पीछे दौड़ रहे हैं।
चकाचौंध, शोर, भागदौड़ और गुलामों की दुनिया अर्थात शहर से दूर किसी वीरान आश्रम में रहना चाहता है कोई। वह ना तो अब नाम कमाना चाहता है, ना ही पैसा कमाना चाहता है, ना ही कोई पद-प्रतिष्ठा, मान-सम्मान या उपाधि पाना चाहता है। वह मस्त है अपनी दरिद्रता में।
लेकिन फिर कुछ शहरी लोग चले आते हैं वहाँ भी पिकनिक मनाने। वहाँ की शांति भंग करते हैं। क्योंकि शहरी गुलामों को ना तो शांति रास आती है, ना ही एकांत में जी सकते हैं। वे भीड़, शोर और भागदौड़ का जीवन जीने के आदि है। जहां भी शांति दिखेगी, इनके पेट में दर्द होने लगेगा।
भौतिकतावादी समाज आजीवन नहीं समझ पाएगा आश्रम का उद्देश्य शहरी नौटंकी करना नहीं, बल्कि शहरी वातावरण से बिलकुल अलग प्राकृतिक वातावरण को बनाए रखना होता है।
मेरे आश्रम में दुर्गापूजा की तैयारी चल रही है। और दुर्गापूजा वे लोग कर रहे हैं, जो प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर प्रायोजित सुरक्षा कवच लेकर घरो में दुबक गए थे मंदिरों, तीरथों पर ताला लटकाकर। जिनके देवी देवता फरार हो गए थे फर्जी महामारी से आतंकित होकर।
भले वे लोग बड़े उत्साहित हैं दुर्गापूजा से, लाखों रुपए खर्च कर रहे हैं पंडाल, लाइट और सजावट पर। लेकिन इन सब से आश्रम को या मुझे क्या लाभ ?
और उन्हें क्या लाभ यहाँ आने का ?
वे तो चार दिन का उत्सव मनाकर वापस फिर शहरी चिड़ियाघरों में कैद हो जाएंगे। ना कोई आध्यात्मिक चर्चा न ही कोई नवीन ज्ञान। वही शहरी उत्पात, वही शहरी तामझाम।
ये सारे नौटंकी और पैसों की बरबादी करने के लिए किसी आश्रम में आना आवश्यक है ?
ये सब तो शहरों में ही कर सकते थे। एकांतप्रिय लोगों का जीवन नर्क बनाने क्यों चले आते हैं ये शहरी चिड़ियाघरों में रहने वाले माफियाओं और देश के लुटेरों के गुलाम ?
मुझे बहुत बेचैनी होती है इन लोगों को देखकर। इनसे मिलकर ऐसा लगता ही नहीं, जैसे इन्सानों से मिल रहा हूँ। ऐसा लगता है जैसे इंसानी शक्ल वाले शैतानों से भेंट कर रहा हूँ।
सच तो यही है कि अब शहरी भेड़ों और गुलामों से मिलना तो दूर, शक्ल तक देखना पसंद नहीं करता मैं। क्योंकि ये लोग प्रकृति और शांति के शत्रु हैं। क्योंकि ये लोग समस्त प्राणीजगत के शत्रु हैं। क्योंकि ये लोग माफियाओं और देश के लुटेरों के सहयोगी और हितैषी हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
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