अधर्मियों की मनोकामनाएँ जीते जी क्यों पूरी हो जाती हैं ?
भौतिक सुखों के लिए ईश्वर/अल्लाह/गुरुओं की उपासना करने वालों ने कभी सोचा है कि अधर्म के पक्ष में रहने वाले अधर्मियों की मन्नतें/मनोकामनाएँ क्यों पूरी करते हैं ईश्वर/अल्लाह और गुरु ?
कई बरसों से मैं यह सोचकर परेशान हूँ कि धन, ऐश्वर्य और वह सबकुछ जो स्वर्ग/जन्नत में मिलता है, वह इसी जगत में अधर्मियों, पापियों और उनके सहयोगियों, भक्तों को ही क्यों उपलब्ध होता है ?
जबकि ईमानदार, धार्मिक, सात्विक व्यक्ति को ऐश्वर्य, सुख, समृद्धि, हूरें, अप्सराएँ, शराब की नदियां….आदि सबकुछ मरणोपरांत स्वर्ग/जन्नत पहुँचने के बाद ही प्राप्त होता है। ऐसा भी तो हो सकता है कि जैसे भक्तों को 15-15 लाख और अच्छे दिन मिले, वैसे ही स्वर्ग/जन्नत में भी मिलता हो ?
अधर्मियों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि उन्हें ईश्वर/अल्लाह पर किसी भी आस्तिक, धार्मिक या आध्यात्मिक व्यक्ति से कई गुना अधिक विश्वास होता है। और वे पाप, अपराध या विश्वासघात करते समय रत्तीभर भी चिंतित नहीं होते कि ईश्वर/अल्लाह देख रहा होगा और सजा देगा। क्योंकि वे अच्छी तरह से जानते हैं कि ईश्वर/अल्लाह अंधाकानून के रक्षक न्यायाधीश की तरह होते हैं। उन्हें चढ़ावा, चादर, कमीशन भेंट कर देने से और साल में एक बार यमुना, गंगा में डुबकी लगा लेने से, जमजम के पानी का छींटा मार लेने से सारे पाप धूल जाते हैं।
देखा होगा आपने कि राज्यसभा की सीट के लिए न्यायाधीश कठपुतली बन जाते हैं। बस वैसे ही ईश्वर/अल्लाह कठपुतली बन जाते हैं उन लोगों के जो उन्हें भारी-भरकम चढ़ावा चढ़ाते हैं। बड़े-बड़े आयोजन करते हैं, लाखों रुपए खर्च करते हैं आडंबरों, दिखावों में। और जो भारी-भरकम चढ़ावा चढ़ाते हैं, खर्चा करते हैं, वे तय करते हैं कि ईश्वर/अल्लाह को क्या खाना है, क्या पीना है, कब उठना है, कब सोना है। ऐसे दानवीर भक्तों की इच्छा से ईश्वर/अल्लाह, देवी, देवता और गुरु चलते हैं।
जितने भी मंदिर, मस्जिद, तीर्थ, दरगाह और धार्मिक उत्सव हैं, सभी का आधार ईश्वर नहीं, धन है। धन हटा दीजिये, सबकुछ ध्वस्त हो जाएगा।
अधर्मी लोग यह अच्छी तरह समझ चुके हैं कि जेब में यदि पैसा है, तो फिर कोर्ट कचहरी क्या, ईश्वर/अल्लाह भी जेब में विराजमान हो जाएंगे। और यही कारण है कि अधर्मियों की मन्नतें/मनोकामनाएँ जीते जी पूरी हो जाती हैं। अधर्मियों को वह सब जीते जी उपलब्ध हो जाता है जिसे प्राप्त करने के लिए धार्मिक और सात्विक लोगों को मृत्योपरांत स्वर्ग/जन्नत में प्राप्त होने की संभावना होती है लेकिन गारंटी नहीं होती।
और आश्चर्य तो यह कि जो अधर्मी लोग ही हमेशा तय करते आए हैं कि संन्यासियों को कैसे जीना चाहिए, कैसे रहना चाहिए, क्या खाना चाहिए, क्या पीना चाहिए। ओशो ही पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने धनवानों, माफियाओं और अधर्मियों को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया था। वे अपने अंदाज़ में जीए और अपने अंदाज़ में विदा ले लिए शांति से।
क्या कभी सोचा है कि जैन समाज के त्यागी-बैरागी साधु-संन्यासी सबसे कठिन जीवन जीते हैं, फिर भी जैन साधु-समाज सबसे अमीर होता है। एक जैन साधु की मृत्यु होती है, तब उस साधु की अंतिम यात्रा से लेकर अंतिम संस्कार तक की बोलियाँ लगती हैं जिससे करोड़ों रुपये की कमाई होती है साधु-समाज को।
ओशो ने त्यागी, बैरागी होने का ढोंग नहीं किया, साधु-समाज के साधु-संतों, संन्यासियों की तरह। और त्यागी, बैरागी ना कहलाने की उनकी जिद ही उन्हे अधर्मियों पर भारी कर दिया। क्योंकि धनवान और बलशाली लोग त्यागी, बैरागी जमुरा खोजते हैं, जिन्हें सामने रखकर जनता से सिंपैथी बटोर कर अपना धंधा चमका सकें।
यह सब लिखने का उद्देश्य आपको अधर्मी बनाना नहीं है। बल्कि यह समझाना है कि सामाजिक ढांचा ऐसा बन चुका है कि धन के बिना जीवन लगभग असंभव कर दिया गया है। माफियाओं और सरकारों ने मिलकर ऐसा मायाजाल रच दिया है कि आप यदि धन के विरुद्ध हो गए, तो वे आपको अपना जमुरा बना लेंगे, बिलकुल वैसे ही जैसे त्यागी, बैरागी साधु-संन्यासियों को अपना पालतू जमुरा बना लिया।
वे तय करेंगे कि आपको कैसे जीना है, क्या खाना है, क्या पीना है। वे तय करेंगे कि आपको क्या बोलना है और क्या नहीं बोलना है। और यदि आप उनका जमुरा बनने से इंकार करते हैं, तो फिर आपको कहीं से कोई सहयोग नहीं मिलेगा। जो लोग आपको दान कर रहे थे, किसी भी प्रकार का आर्थिक, सामाजिक या भावनात्मक सहयोग कर रहे थे, वे सभी आपसे दूर हो जाएंगे। आप इतने अकेले पड़ जाएंगे कि समाज को यदि कुछ समझाना चाहते हैं, तो वह भी समझा नहीं पाएंगे। क्योंकि आपके पास धन नहीं होगा तो आप अपनी बात समाज तक पहुंचा भी नहीं पाएंगे।
और यदि आप यह कहते हैं कि मैं अकेले ही ठीक हूँ, तो वे यही चाहते हैं। वे चाहते हैं कि जागृत लोग समाज से दूर अलग-थलग पड़े रहें, ताकि भेड़ों और जोंबियों के झुण्ड में रूपांतरित हो चुके समाज को वापस कोई इंसान ना बना पाये, कोई उन्हें मायाजाल से मुक्त करने का प्रयास न कर पाये।