क्या परम्पराओं के नाम पर आडम्बर और दिखावा करना पूजा है ?

जब फार्मा माफियाओं ने आपके मंदिर, तीर्थ बंद करवा दिये थे, तब आपकी भावनाएं क्यों आहत नहीं हुईं थी ?
अब मेरे यह लिखने पर कि “मेरे आश्रम में दुर्गापूजा की तैयारी चल रही है। और दुर्गापूजा वे लोग कर रहे हैं, जो प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर प्रायोजित सुरक्षा कवच लेकर घरो में दुबक गए थे। मंदिरों, तीरथों पर ताला लटकाकर जिनके देवी देवता फरार हो गए थे फर्जी महामारी से आतंकित होकर” आपकी भावनाएं आहत हो गईं ?
क्या गलत कह दिया मैंने ?
आप कहते हैं हम पूजा करने आते हैं आश्रम में लेकिन मैंने तो कभी देखा नहीं आपको पूजा करते ?
पूजा तो कोई पंडित कर रहा होता है पैसे लेकर, बाकी सब लोग पिकनिक मना रहे होते हैं, गप्पें हांक रहे होते हैं।
क्या परम्पराओं को ढोते रहना पूजा है ?
और वह परंपरा जो सरकारी आदेशों पर कभी भी रोकी जा सकती है, मौत के डर से रोकी जा सकती है, फर्जी महामारी के आतंकियों द्वारा रोकी जा सकती है वह ईश्वर की आराधना या पूजा कैसे हो सकती है ?
यदि वास्तव में इन पूजाओं से कोई जागृति आती, तो प्रायोजित महामारी काल में प्रश्न पूछते कि जो महामारी राजनैतिक रैलियों और दारू के ठेकों में जाने से डरती है, वह शादी-ब्याह में कैसे पहुँच रही थी ?
यदि वास्तव में जागृति आती, तो सौ वर्ष पुराना वह आश्रम जर्जर न हो रहा होता, जिसके शिष्य और अनुयायी धनवान हैं, बड़े बड़े सरकारी पदों पर आसीन हैं ?
यदि वास्तव में जागृति आती तो ठाकुर दयानन्द देव जी के दिखाये मार्ग का अनुसरण कर रहे होते, न कि मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त पर जी रहे होते।
और सबसे बड़ी बात यह कि आश्रम का उद्देश्य होता है समाज को जागृत करना ना कि भेड़ों की भीड़ इकट्ठी करना।
मेरे लेखों से आपकी भावनाएं आहत हो जाती हैं, लेकिन क्या कभी सोचा है कि जो गलत है, धर्म और अध्यात्म के नाम पर चल रहे व्यापार से समाज का पतन ही हुआ है उत्थान नहीं ?
कितने आश्चर्य की बात है कि समाज जो स्वयं को धार्मिक कहता है, वह चाहता है कि लोग वेद, पुराण, कुरान, बाइबल पढ़ें, पूजा पाठ करें संस्कृति की रक्षा करें। लेकिन व्यावहारिक रूप से वही समाज भारतीय परिधान पहनने में संकोच करता है। विलायती कपड़े पहनकर, विलायती पढ़ाई करके स्वयं को धन्य मानता है ?
आप कहते हैं कि मुझे नहीं देखना चाहिए कि दूसरे लोग क्या कर रहे हैं। क्योंकि दूसरों को देखने से स्वयं का कोई भला नहीं होता। बल्कि हानि ही होती है।
बिलकुल सही कहते हैं आप। लेकिन क्या आप जानते हैं कि ठाकुर दयानंद देव तीन बरस तक जेल में क्यों रहे ?
वे भी तो फिरंगी सरकार का विरोध करने की बजाय कीर्तन-भजन करते हुए मैं सुखी तो जग सुखी के सिद्धान्त पर जी सकते थे।
मैं वही कर रहा हूँ जो ठाकुर दयानंद कर रहे थे, वही कर रहा हूँ जो एक चैतन्य व्यक्ति को करना चाहिए। केवल समयान्तराल के कारण मेरा कार्य करने का तरीका आधुनिक है। तब इन्टरनेट नहीं था, कंप्यूटर नहीं था, आज है। तो मैं आज की तकनीकी का प्रयोग कर रहा हूँ।
बड़े ही आश्चर्य की बात है कि जो स्वयं भेड़चाल से मुक्त नहीं हो पाये, जो दिखावों और आडंबरों से मुक्त नहीं हो पाये, वे सिखाने चले आते हैं कि संन्यासियों को कैसा होना चाहिए, क्या बोलना चाहिए, क्या लिखना चाहिए ??
एक संन्यासी यदि माफियाओं के गुलाम समाज द्वारा संचालित या नियंत्रित होगा, तो संन्यास का उद्देश्य ही नष्ट हो जाता है। संन्यासी यदि भेड़ों के झुंड में शामिल हो जाएगा, आडंबरों, दिखावों में उलझे लोगों के दिशानिर्देश पर चलने लगेगा, उनकी तरह जीने लगेगा, तो फिर वह मवेशी और गुलाम ही बनेगा संन्यासी नहीं।
मेरा विरोध करते हैं आप स्वाभाविक है, क्योंकि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। मैं आप लोगों के आडंबरों, दिखावों, ढोंग-पाखंड का विरोध करता हूँ, इसलिए आप मेरा विरोध करते हैं। क्योंकि सुधरना आपको है नहीं, लेकिन मुझे अपने जैसा बनाना चाहते हैं।
आप चाहते हैं कि मैं आपकी तरह हो जाऊँ, माफियाओं और लुटेरों का विरोध करने की बजाय मौन समर्थक बन जाऊँ और सारे-सुख वैभव भोगूँ।
लेकिन दुर्भाग्य से मैं अब वापस नहीं लौट सकता उस जन्म में, जिस जन्म में भेड़ या गुलाम रहा हौङगा। मैंने हर जन्म में कुछ न कुछ सीखा और निरंतर सीख रहा हूँ। अब मेरे लिए गुलामी असंभव है क्योंकि जो एक बार जाग गया भीतर से, उसे फिर सुलाया नहीं जा सकता। जो एक बार इंसान बन गया मानसिक रूप से, उसे फिर भेड़ नहीं बनाया जा सकता। और यही कारण है कि मेरे समर्थक, सहयोगियों की संख्या निरंतर घटती चली गयी। और इसका अर्थ यह नहीं कि मैं असफल हो गया। इसका अर्थ यही है कि मैं भेड़चाल और भेड़ों के झुंड से अलग हो गया।
इसीलिए मुझे अपने जैसा या किसी और के जैसा बनाने का प्रयास मत करिए। मेरे लेखों और विचारों को समझ पाना जिसे कठिन लगता है, वह अपनी ऊर्जा नष्ट ना करें। और हाँ अपनी दोषों को छुपाने के लिए मुझपर यह आरोप लगाना बंद करिए कि मैं किसी धर्म की निंदा कर रहा हूँ, या किसी जाति की निंदा कर हूँ, किसी मंदिर या आश्रम की निंदा कर रहा हूँ। मैं केवल ढोंग-पाखण्ड की निंदा करता हूँ, अधर्मियों की निंदा करता हूँ, माफियाओं और देश के लुटेरों और उनके गुलामों की निंदा करता हूँ और किसी की नहीं।
मेरे ब्लॉग साइट पर लिखे अन्य लेखों को भी पढ़िये और समझने का प्रयास करिए कि मैं क्या लिख रहा हूँ और क्यों लिख रहा हूँ।
~ विशुद्ध चैतन्य
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