सोये हुए समाज में यदि जाग गए हो तो जगाओ मत मौन हो जाओ

कुछ नास्तिक लोग इस भ्रम में हैं कि वे जागृत हो चुके हैं, अंधविश्वासों से मुक्त हो चुके हैं। और वे समाज को अंधविश्वासों से मुक्त करने के लिए प्रतिमाओं की पूजा करने का विरोध कर रहे हैं। वे यह समझाने में लगे हुए हैं कि पत्थर, मिट्टी या धातु की प्रतिमा की पूजा करना मूर्खता है, अंधविश्वास है।
इसी क्रम में कोई थाइलेंड, कम्बोडिया, मलेशिया भटक रहा है हिन्दू धर्म खोजने के लिए, तो कोई यह खोज रहा है कि किस देवी-देवता की प्रतिमा पहली बार कब पूजी गयी, किसने पूजना शुरू किया।
क्यों हुई पहली बार दुर्गा पूजा
अभी हाल ही में दुनिया को पता चला कि देवी दुर्गा की पहली बार पूजा 265 वर्ष पहले पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा का आयोजन 1757 के प्लासी के युद्ध के बाद शुरू हुआ. कहा जाता है कि प्लासी के युद्ध में अंग्रेजों की जीत पर भगवान को धन्यवाद देने के लिए पहली बार दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ था. प्लासी के युद्ध में बंगाल के शासक नवाब सिराजुद्दौला की हार हुई थी.
कहा जाता है कि युद्ध में जीत के बाद रॉबर्ट क्लाइव ईश्वर को धन्यवाद देना चाहता था. लेकिन युद्ध के दौरान नवाब सिराजुद्दौला ने इलाके के सारे चर्च को नेस्तानाबूद कर दिया था. उस वक्त अंग्रेजों के हिमायती राजा नव कृष्णदेव सामने आए. उन्होंने रॉबर्ट क्लाइव के सामने भव्य दुर्गा पूजा आयोजित करने का प्रस्ताव रखा. इस प्रस्ताव पर रॉबर्ट क्लाइव भी तैयार हो गया. उसी वर्ष पहली बार कोलकाता में भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ.
पूरे कोलकाता को शानदार तरीके से सजाया गया. कोलकाता के शोभा बाजार के पुरातन बाड़ी में दुर्गा पूजा का आयोजन हुआ. इसमें कृष्णनगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों को बुलाया गया. भव्य मूर्तियों का निर्माण हुआ. बर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं. रॉबर्ट क्लाइव ने हाथी पर बैठकर समारोह का आनंद लिया. इस आयोजन को देखने के लिए दूर-दूर से चलकर लोग कोलकाता आए थे.
इस आयोजन के प्रमाण के तौर पर अंग्रेजों की एक पेटिंग मिलती है. जिसमें कोलकाता में हुई पहली दुर्गा पूजा को दर्शाया गया है. राजा नव कृष्णदेव के महल में भी एक पेंटिंग लगी थी. इसमें कोलकाता के दुर्गा पूजा आयोजन को चित्रित किया गया था. इसी पेंटिंग की बुनियाद पर पहली दुर्गा पूजा की कहानी कही जाती है.

1757 के दुर्गा पूजा आयोजन को देखकर बड़े अमीर जमींदार भी अचंभित हो गए. बाद के वर्षों में जब बंगाल में जमींदारी प्रथा लागू हुई तो इलाके के अमीर जमींदार अपना रौब रसूख दिखाने के लिए हर साल भव्य दुर्गा पूजा का आयोजन करने लगे. इस तरह की पूजा को देखने के लिए दूर-दूर के गांवों से लोग आते थे. धीरे-धीरे दुर्गा पूजा लोकप्रिय होकर सभी जगहों पर होने लगी.
आज भी दुर्गापूजा धनाढ्य वर्गों के लिए धन, वैभव और शक्ति प्रदर्शन का माध्यम है। जो जितना भव्य आयोजन करवाता है, वह उतना समृद्ध और शाकिशाली माना जाता है। यह भी माना जाता है कि यदि पूजा भव्य हुआ तो आराध्य देवी-देवता प्रसन्न होते हैं और सुखी-समृद्ध जीवन का आशीर्वाद देते हैं।
और भारतीयों की विशेषता यह है कि नाचने, गाने खुशी मनाने के लिए कोई न कोई बहाना चाहिए होता है। फिर चाहे वह देवी पूजा का उत्सव हो, या फिर गणेशोत्सव, या फिर वेलेंटाइन डे या फिर राजनैतिक रैलियाँ। बस ढ़ोल-ताशे बजने चाहिए, डीजे बजना चाहिए, भंडारा चलना चाहिए….और हो गया उत्सव। और उत्सव कालांतर में परम्पराएँ बन जाती हैं और परम्पराओं को धर्म घोषित कर दिया जाता है। क्योंकि उन परम्पराओं का व्यावसायिक महत्व हो जाता है, करोड़ों का व्यापार खड़ा हो चुका होता है। और व्यापार स्वयं एक धर्म है आधुनिक समाज का।
कुछ वर्ष पहले तक संतोषी माता भी हुआ करती थीं और उसकी पूजा भी बड़ी धूम-धाम से की जाती थी। लेकिन अब उनका पता नहीं। लोगों ने संतोषी माता को भुला दिया और किसी की भावना आहत नहीं हुई।
लेकिन जो मूर्ति पुजा का विरोध करते हैं, कहते हैं वेदों में नहीं लिखा मूर्ति-पूजा, क्या वे स्वयं अंधविश्वासों से मुक्त हो पाये ?
आधुनिक युग में जबकि इन्टरनेट के माध्यम से पूरे विश्व की जानकारी हम कुछ ही सेकेंड में प्राप्त कर सकते हैं, पढ़ा-लिखा समाज इस अंधविश्वास से मुक्त नहीं हो पाया कि फार्मामाफिया और देश की सरकारें जो कुछ भी करते हैं, वह जनता की भलाई के लिए करते हैं। आँख मूंदकर इनपर विश्वास करते हैं और माफिया पूरी बेशर्मी से जनता को लूटते और लुटवाते हैं।
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जिस प्रकार दुर्गा-पूजा, गणेशोत्सव, स्वतन्त्रता दिवस, गणतन्त्र दिवस, होली, दिवाली, ईद, क्रिसमस मानया जाता है, वैसे ही नास्तिकों का भी पर्व होता है। भले आस्तिकों का पर्व दूसरों पर थोपा न जाता हो, जिसे मानना हो मनाए, जिसे न मानना हो ना मानाए। लेकिन लेकिन नास्तिकों का पर्व मनाने के लिए पूरे विश्व को बंधक बना लिया जाता है। जैसे कि पोलियो ड्रॉप उत्सव, टीकाकरण उत्सव, जैसे कि टैबलेट उत्सव जो कि 10 फरवरी से मनाया जाएगा।


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और पढ़े-लिखे नास्तिकों का ही नहीं, पढ़े-लिखे आस्तिकों का भी समाज मानता है कि माफियाओं की गुलाम सरकारें जो कुछ कर रही हैं, वह जनता के भले के लिए ही कर रही है। और इसीलिए राजाओं, सरकारों, साहूकारों, माफियाओं द्वारा थोपी गयी मत-मान्यताओं, परम्पराओं को ढोये चले जा रहे हैं।
यदि कोई विरोध करता है तो समाज कहता है कि हमारी मान्यताओं और परम्पराओं के विरुद्ध कुछ मत बोलो भले उन परम्पराओं, अंधविश्वासों से समाज का अहित ही क्यों ना हो रहा हो। यदि कोई सही मार्ग दिखाने के प्रयास करता है, तो सबसे पहले समाज ही विरोध में खड़ा होता है। समाज जिसका स्वयं कोई आस्तित्व नहीं, जो केवल स्वार्थियों, लोभियों की भीड़ मात्र होती है। ऐसी भीड़ जो अपनी ही समाज के गरीबों, पीड़ितों, शोषितों की तो कोई सहायता कर नहीं पाती, जो किसी सुपरमेन, किसी कल्कि, किसी करण-अर्जुन के इंतज़ार में बैठी रहती, लेकिन किसी निर्बल, असहाय व्यक्ति को घेर कर मार देने में संकोच नहीं करती।

गुजरात मे बच्ची ने गरबा में जीता 2 इनाम,लेकिन आयोजकों ने सिर्फ 1 इनाम दिया,पिता ने बहस की तो भीड़ ने उन्हें पिट कर मार दिया
भीड़ केवल भीड़ होती है और भीड़ किसी भी पागल पशु से अधिक घातक होती है। यह और बात है कि लोग भीड़ को समाज समझकर जी रहे हैं।
जो भी समाज को जगाने आया समाज ने उसे चलता कर दिया
समाज जैसा चल रहा है वैसा ही चलता रहेगा। जो भी समाज को जगाने आया समाज ने उसे चलता कर दिया।
सरकार जैसी चलती आ रही है वैसी ही चल रही है। जिसने भी सरकार की कार्यप्रणाली पर उंगली उठाई उसे चलता कर दिया गया।
आश्रम जैसे चलते आए हैं, वैसे ही चल रहे हैं। जिसने आश्रमों की कार्यप्रणाली पर उंगली उठाई उसे चलता कर दिया गया।
क्योंकि जहां भी स्वार्थ और लोभ से ग्रस्त समूह हावी होगा, वहाँ चैतन्य लोगों को सहन नहीं किया जाएगा। जो स्वयं लोभ और मोह, आडम्बर और दिखावों से मुक्त नहीं, वे चैतन्य लोगों को त्याग और धर्म सिखाने निकल पड़ते हैं।
सोये हुए लोग कहते हैं कि जाग गए हो तो भाग जाओ या मौन हो जाओ। जो जैसा चल रहा है चलने दो, जगाओ मत हमें, सोने दो।
समाज सदैव चैतन्य लोगों का विरोधी रहा, समाज सदैव उन्हें समाज से दूर करता रहा, समाज सदैव उन्हें सूली पर लटकाता रहा, समाज सदैव उन्हें जहर देकर मारता रहा और करण-अर्जुन की प्रतीक्षा मैं बैठा रहा, कल्कि अवतार की प्रतीक्षा में बैठा रहा कि वे आएंगे और सबकी समस्याएँ सुलझा देंगे। तब तक किसी भी चैतन्य व्यक्ति को टिकने नहीं दिया जाएगा। और यही कारण है कि माफियाओं का समूह पूरे विश्व को अपना बंधक बनाकर शासन कर रहे हैं।
चैतन्य व्यक्ति के पास दो ही विकल्प बचते हैं। पहला यह कि वह सर-झुकाकर भीड़ में शामिल हो जाए और भजन-कीर्तन करता रहे और गलत को गलत न कहे। दूसरा विकल्प यह कि वह किसी निर्जन स्थान पर चला जाये और समाज से सदा के लिए अलग हो जाये।
जो भी चैतन्य हुआ, जो भी जागृत हुआ, उसे समाज से बहिष्कृत जीवन जीना पड़ा। जो कुछ चैतन्य व्यक्ति समाज में उभर पाये, अपना वर्चस्व स्थापित कर पाये, वे अपवाद रहे जैसे कि बुद्ध, महावीर, ओशो। समाज ने जिन्हें चैतन्य माना, वह भी केवल इसलिए क्योंकि उनके नाम पर उनका धंधा चमक रहा था, उनके नाम पर परम्पराओं को ढोने में सहजता थी।
आज बुद्ध और ओशो के नाम भी वही हो रहा है जो बाकी सभी सम्प्रदाय कर रहे हैं, अर्थात जपनाम और नाच-गान। उनका संदेश उठाकर फेंक दिया गया और सभी ने अपने-अपनी सुविधाओं के अनुरूप उठा लिया। जैसे कि कृष्ण ने अधर्म के विरुद्ध हथियार उठाने के लिए कहा तो उनके नाम पर दूसरे पंथों, संप्रदायों के विरुद्ध हथियार उठा लिया गया। वहीं दूसरा पक्ष हरे-रामा, हरे-कृष्णा करके नाचने गाने लगा। और इन दोनों ही समूह को अधर्म और अधर्मियों के विरुद्ध आवाज उठाते कम से कम मैंने तो नहीं देखा।
लोग चैतन्य पुरुषों की किताबें पढ़ते हैं, उनके विचार दूसरों से शेयर करते हैं, जैसे कि ओशो के विचार, जैसे कि बुद्ध के विचार, जैसे कि नीत्से के विचार, जैसे कि श्री आनंदमूर्ति के विचार, जैसे कि कृष्ण के विचार……लेकिन भीतर की चेतना जागृत नही हो पाती।
अनगिनत चैतन्य आत्माएँ इस धरा पर आकर चली गयीं। लोगों ने उनके नाम पर मठ बना लिए, उनके नाम पर संप्रदाय बना लिए, उनके नाम पर बड़े बड़े व्यापार खड़े कर लिए। लेकिन उनके संदेशों को आत्मसात कर पाने में अक्षम रहे।
बुद्ध के अनुयायी हों या ओशो के या श्री आनन्दमूर्ति के, या ठाकुर दयानंद देव के….. उनके विचारों और सिद्धांतों से किसी को मतलब नहीं रहा। सभी को अपने-अपने स्वार्थों से मतलब रहा। किसी ने जानने समझने का प्रयास भी नहीं किया कि वे वास्तव में शिक्षा क्या दे रहे थे। क्योंकि सभी व्यस्त हैं परम्पराओं को ढोने में, सभी व्यस्त हैं भेड़चाल में दौड़ रही भीड़ के साथ कदम-ताल मिलाने में।
और भौतिकवाद से ग्रस्त मानसिक रूप से विक्षिप्त ऐसी भीड़ के बीच यदि कोई चैतन्य हो जाये, कोई जागृत हो जाये, तो उसे मौन हो जाना होगा। अन्यथा मानसिक रूप से विक्षिप्त आस्तिकों और नास्तिकों की भीड़ सदा के लिए मौन कर देगी।
इसीलिए ओशो ने कहा कि अब आध्यात्मिक लोगों से काम नहीं चलेगा, अब दुनिया को भौतिकवाद के गर्त से बचाना असम्भव है।
विराट ध्यान आंदोलन की आवश्यकता है: – ओशो

मनुष्य—जाति के इतिहास में आनेवाले कुछ वर्ष बहुत महत्वपूर्ण हैं। और अगर एक बहुत बड़ी स्प्रिचुएलिटी का जन्म नहीं हो सकता— अब आध्यात्मिक लोगों से काम नहीं चलेगा— अगर आध्यात्मिक आंदोलन नहीं हो सकता, कि लाखों—करोड़ों लोग उससे प्रभावित हो जाएं, तो दुनिया को भौतिकवाद के गर्त से बचाना असंभव है।
और बहुत मोमेंटस क्षण हैं कि पचास साल में भाग्य का निपटारा होगा—या तो धर्म बचेगा, या निपट अधर्म बचेगा। इन पचास साल में बुद्ध, महावीर, कृष्ण, मोहम्मद, राम, जीसस, सबका निपटारा होने को है।
इन पचास सालों में एक तराजू पर ये सारे लोग हैं और दूसरे तराजू पर सारी दुनिया के विक्षिप्त राजनीतिज्ञ, सारी दुनिया के विक्षिप्त भौतिकवादी, सारी दुनिया के भ्रांत और अज्ञान में स्वयं और दूसरों को भी धक्का देनेवाले लोगों की बड़ी भीड़ है। और एक तरफ तराजू पर बहुत थोड़े से लोग हैं। पचास सालों में निपटारा होगा।
वह जो संघर्ष चल रहा है सदा से, वह बहुत निपटारे के मौके पर आ गया है। और अभी तो जैसी स्थिति है उसे देखकर आशा नहीं बंधती। लेकिन मैं निराश नहीं हूं क्योंकि मुझे लगता है कि बहुत शीघ्र बहुत सरल—सहज मार्ग खोजा जा सकता है जो करोड़ों लोगों के जीवन में क्रांति की किरण बन जाए।
और अब इक्का—दुक्का आदमियों से नहीं चलेगा। जैसा पुराने जमाने में चल जाता था कि एक आदमी ज्ञान को उपलब्ध हो गया। अब ऐसा नहीं चलेगा। ऐसा नहीं हो सकता। अब एक आदमी इतना कमजोर है, क्योंकि इतनी बड़ी भीड़ पैदा हुई है, इतना बड़ा एक्सप्लोजन हुआ है जनसंख्या का कि अब इक्का—दुक्का आदमियों से चलनेवाली बात नहीं है। अब तो उतने ही बड़े व्यापक पैमाने पर लाखों लोग अगर प्रभावित हों, तो ही कुछ किया जा सकता है।
लेकिन मुझे दिखाई पड़ता है कि लाखों लोग प्रभावित हो सकते हैं। और थोड़े से लोग अगर न्युक्लियस बनकर काम करना शुरू करें तो यह हिंदुस्तान उस मोमेंटस फाइट में, उस निर्णायक युद्ध में बहुत कीमती हिस्सा अदा कर सकता है। कितना ही दीन हो, कितना ही दरिद्र हो, कितना ही गुलाम रहा हो, कितना ही भटका हो, लेकिन इस भूमि के पास कुछ संरक्षित संपत्तियां हैं।
इस जमीन पर कुछ ऐसे लोग चले हैं, उनकी किरणें हैं, हवा में उनकी ज्योति, उनकी आकांक्षाएं सब पत्तों—पत्तों पर खुद गई हैं। आदमी गलत हो गया है, लेकिन अभी जमीन के कणों को बुद्ध के चरणों का स्मरण है। आदमी गलत हो गया है, लेकिन वृक्ष पहचानते हैं कि कभी महावीर उनके नीचे खड़े थे। आदमी गलत हो गया है, लेकिन सागर ने सुनी हैं और तरह की आवाजें भी। आदमी गलत हो गया है, लेकिन आकाश अभी भी आशा बांधे है। आदमी भर वापस लौटे तो बाकी सारा इंतजाम है।
तो इधर मैं इस आशा में निरंतर प्रार्थना करता रहता हूं कि कैसे लाखों लोगों कै जीवन में एक साथ विस्फोट हो सके। आप उसमें सहयोगी बन सकते हैं। आपका अपना विस्फोट बहुत कीमती हो सकता है— आपके लिए भी, पूरी मनुष्य—जाति के लिए भी। इस आशा और प्रार्थना से ही इस शिविर से आपको विदा देता हूं कि आप अपनी ज्योति तो जलाएंगे ही, आपकी ज्योति दूसरे बुझे दीयों के लिए भी ज्योति बन सकेगी।
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