समाज और सरकारें नहीं चाहते कि समाज में कोई जागृत हो जाये

जागृत/चैतन्य होने का सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि परिवार, समाज और सरकारों का विरोध और प्रकोप सहना होता है और कई बार तो प्राणो से भी हाथ धोना पड़ता है। जैसे कि बहुत से जागृत पत्रकार समाज सेवक जेलों में कैद कर दिये गए, कई को मौत दे दी गयी। और जिस समाज के हितों के लिए वे कार्य कर रहे थे, वे सब मौन धारण करके “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धान्त पर जीने लगे।
लेकिन ऐसा होता क्यों है कि जो समाज जागृत/चैतन्य आत्माओं को पूजता है, उनकी जय-जय करता है, नामजाप करता है, वही समाज नहीं चाहता कि उनके समाज में कोई जागृत हो जाये ?
जहां तक मेरी समझ में आया है अब तक के जीवन के अनुभवों से, तो प्रमुख कारण है यह भ्रम कि समाज नामक कोई व्यवस्था होती है। असल में भय, लोभ, मोह, कामनाओं से ग्रस्त व्यक्तियों के समूह को समाज माना गया है। जबकि मेरा मानना है कि भय, लोभ, स्वार्थ और कामनाओं से ग्रस्त व्यक्तियों का समाज बन ही नहीं सकता। ऐसे लोगों का केवल गिरोह बनता है।
मैंने देखा है कि ऐसे लोग जो स्वयं भौतिक आडंबरों और दिखावों से मुक्त नहीं हैं, वे अक्सर दूसरों को त्यागी होने के लाभ बता रहे होते हैं। दूसरों को समझा रहे होते हैं कि संन्यासियों को अनासक्त होना चाहिए, लंगोट में घूमना चाहिए। और ऐसा इसलिए ताकि व्यक्ति के पास जो भी संपदा है वह उसे या उसके गिरोह को मिल जाये।
एक चैतन्य व्यक्ति भली-भांति जानता है कि उसके पास जो कुछ भी भौतिक वस्तु है, वह सब उसके उपयोग के लिए है, लेकिन इस दुनिया से कुछ नहीं जा सकता। इसलिए वह वस्तुओं का मोह कर ही नहीं सकता। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि कोई भी चला आए और कहे कि तुम तो त्यागी हो, लाओ जो कुछ भी तुम्हारे पास है दान कर दो।
एक जागृत/ चैतन्य व्यक्ति की सबसे बड़ी भूल यह होती है कि वह अपने आसपास की भीड़ को अपना समझ लेता है। कुछ ऐसे लोग जो शुभचिंतक होने का दावा करते हैं, जो नारे लगाते हैं कि तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं, वे विपरीत परिस्थियों में गायब हो जाते हैं। और तब व्यक्ति को दुःख होता है कि जिन्हें अपना समझा वे ही गायब हो गए। इसलिए चैतन्य व्यक्तियों को कभी भी दूसरों पर आश्रित नहीं होना चाहिए।
यह भी कह सकते हैं कि जब तक व्यक्ति अपने आसपास की भीड़ को अपना शुभचिंतक, अपना हितैषी माने रहता है वह चैतन्य नहीं हो पाता। चैतन्य होने का अर्थ ही यह है कि वह यह जान चुका है कि भीड़ केवल भीड़ होती है चाहे वह छोटी हो या बड़ी। और भीड़ सदैव स्वार्थियों, लोभियों और भय से ग्रस्त लोगों की ही होती है। जब तक भीड़ का स्वार्थ आपसे पूरा हो रहा है, वह आपके साथ खड़ी दिखाई देगी। लेकिन जैसे ही भीड़ का स्वार्थ आपसे पूरा होता हुआ नजर नहीं आएगा, वह गायब हो जाएगी और किसी और के पीछे खड़ी नजर आएगी।
बहुत से लोग कहते हैं मुझसे कि जब आपको आश्रम और उसके कर्मकाण्ड, नियम कानून सही नहीं लगते, शोर और भीड़ पसंद नहीं है, तो किसी एकांत में अपने दम पर अपना आश्रम क्यों नहीं बना लेते ?
और जब लोग ऐसा कहते हैं, तो वे मुझे स्मरण करवा रहे होते हैं कि भले तुम आश्रम के संन्यासी हो, लेकिन यह तुम्हारा आश्रम नहीं है। भले तुम आश्रम के स्थायी सदस्य हो, भले तुम्हारा स्थायी निवास प्रमाण आश्रम का, सारे सरकारी दस्तावेज़ आश्रम से ही संबन्धित हों, फिर भी यह आश्रम तुम्हारा नहीं है। यह आश्रम उन लोगों का जो आश्रम में पिकनिक मनाने आते हैं, पूजा करवाने आते हैं। यह आश्रम उनका है, जिनका व्यापारी लाभ जुड़ा है आश्रम से। और आश्रम के नियम कानून वे लोग तय करेंगे, जो साल में एक दो बार पिकनिक मनाने आते हैं।
सच तो यह है कि वे लोग गलत नहीं हैं। वास्तविकता यही है कि आश्रम होता ही है पर्यटकों और व्यापारियों के लिए। जागृत लोगों का कोई आश्रम होता ही नहीं। व्यक्ति जब आश्रम में आता है, तो वह भटका हुआ होता है, असमंजस की स्थिति में होता है। और ऐसी मानसिकता में आश्रम आने के बाद या तो वह स्लेव बन जाता है या फिर जागृत हो जाता है।
यदि जागृत व्यक्ति को सहन करने योग्य नहीं होता आश्रम, तब उसे आश्रम का त्याग करना पड़ता है। और यह कोई नई बात नहीं हैं, सदियों से यही होता आया है। क्योंकि आश्रम में केवल वही रह सकता है जो परम्पराओं को ढोने का सामर्थ्य रखता है।
जागृत होने के साथ ही व्यक्ति संकीर्णमानसिकता से मुक्त हो जाता है और उसे अब अपना निजी स्थान चाहिए होता है। अब वह अपने नियम, अपने सिद्धान्त स्वयं बनाना चाहता है। लेकिन जबतक वह दूसरों के आश्रम या समाज में होता है, उसे विवश होना पड़ता है भेड़चाल में चलने के लिए। क्योंकि आश्रम हो, जेल हो, समाज हो या सरकार, सभी निजता और मौलिकता के घोर विरोधी होते हैं। इसीलिए दुनिया के जितने भी जागृत लोग हुए, वे सभी समाज द्वारा बहिष्कृत हुए, भले बाद में जब उनके नाम से लोगों को आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक लाभ दिखने लगा तो उनके नाम की जय-जय करने लगे वह अलग बात है। जैसे कि बुद्ध और ओशो के साथ हुआ।
तो जब लोग कहते हैं कि तुम अपना स्वयं का आश्रम क्यों नहीं बना लेते ?
तो मेरे भीतर से प्रश्न उठता है कि जब दुनिया में इतने सारे आश्रम मिलकर भी समाज को जागृत नहीं बना पाये, तो आश्रम बनाने का लाभ क्या है ?
जब अधिकांश आश्रम माफियाओं, वैश्यो, शूद्रों के अधीन हैं, जब अधिकांश आश्रम आज आध्यात्मिक उत्थान से अधिक आर्थिक और भौतिक लाभ पर आधारित व्यावसायिक केन्द्रों, होटलों, हॉलिडेइन और पिकनिक स्पॉट में रूपांतरित हो चुके हैं, तो फिर एक और नया पिकनिक स्पॉट बनाने का लाभ क्या ?
नहीं मैं कोई आश्रम नहीं बनाऊँगा यह तय है। यह भी तय है कि अब मैं किसी अन्य आश्रम का सदस्य भी नहीं बनूँगा। क्योंकि आश्रम, समाज, सरकार चैतन्य व्यक्ति को सहन नहीं कर सकते, इसलिए इनसे दूर रहना ही श्रेष्ठ है।

यदि हुई कभी कोई व्यवस्था तो माफियाओं के गुलाम शहर और गांवों से दूर किसी एकांत में अपने लिए छोटा सा मकान बनाऊँगा। ताकि शोर और भीड़ से दूर शांति से ध्यान करते हुए गुलामों के इस जगत से मुक्ति पा सकूँ।
सिद्धार्थ ताबिश का यह लेख अवश्य पढ़िये:
“मोह और माया” रहित जीवन सिर्फ़ पश्चिम के लोग जीते हैं
असल में अगर आप देखेंगे तो पायेंगे कि “मोह और माया” रहित जीवन सिर्फ़ पश्चिम के लोग जीते हैं.. उनका सारा जीवन उधार और क्रेडिट कार्ड में चलता है.. धन संचय न के बराबर.. सोना और चांदी तो बिलकुल न के बराबर ख़रीदते हैं क्यूंकि उन्हें मुसीबत के दिनों की फ़िक्र नहीं होती है.. और रिश्तों का ये मामला होता है कि लड़कों को अपने माता पिता से मिले भी चालीसों साल हो जाते हैं कभी कभी.. बाक़ी रिश्तेदारी छोड़ ही दीजिये.. अंकल ,आंटी, कज़िन के सिवा उनके शब्दकोष में और रिश्तेदारी के नाम ही नहीं होते हैं.. शादी के बाद वो कभी भी माँ और पिता के पास नहीं रहते हैं.. अपने 2 साल के बच्चे को भी अलग कमरे में सुलाते हैं.. दुनिया में कहीं भी जा कर एकदम अकेले बस जाते हैं.. ठीक से सिर्फ़ एक त्यौहार क्रिसमस मनाते हैं बस.. मोह और माया से मुक्त होना उनके बचपन की ट्रेनिंग होती है.. ख़तरों से खेलना और जग कर जीना उनके रोज़ मर्रा का जीवन होता है.. इसलिए ज़्यादातर “जग” कर और मोह माया से मुक्त होकर ही मरते हैं
और भारतीय अपना जीवन उम्र भर सोना खरीदने, प्रॉपर्टी खरीदने, अपनी दस पुश्तों तक के लिए धन संचय करने, बेटा बेटी समेत दो दर्जन रिश्तेदारों को अपने आसपास रखने, कम से कम 50 तरह के रिश्तों के नाम, फुफेरी मौसी, चचेरी बुआ, लुटेरी ताई इत्यादि, इनका 35 साल का बेटा बहु को लेकर अलग जा कर रहने लगे तो कोई जतन नहीं छोड़ते हैं उसे अपने पास घसीटने में, सिर्फ़ परिवार और अपने परिवार को सीने से लगाने, सारी उम्र अपना और पराया करने, अम्मा बेटे के लिए मरी जाती है बेटा माँ के लिए भले दोनों 70 साल के हो गए हों, दुनिया में कहीं भी अकेले नहीं बस पाते हैं, सारा परिवार हर जगह ले जाते हैं, अकेलापन इनका सबसे बड़ा डर होता है.. मरते दम तक अकेला रहने से डरते हैं.. साल में 300 त्यौहार मनाते हैं.. खतरे और जोखिम से कोसो दूर रहते हैं.. जाति और धर्म को अपना जीवन मानते हैं और जो कुछ भी भौतिक है बस उसी में जीवन बिताने में इनका सारा जीवन निकल जाता है फिर ये बेहोशी में मर जाते हैं.. और बाद में इनको मोक्ष दिलाने के लिए कव्वे को खाना खिला दिया जाता है जिस से इन्हें मोक्ष मिल जाता है
भारतीय सिर्फ़ आध्यात्म के नाम पर गाल बजाते हैं और लोगों को उल्लू बनाते हैं.. भारतीयों से बड़ा भौतिकवादी संसार में कोई दूसरा नहीं होता है
~सिद्धार्थ ताबिश
Support Vishuddha Chintan
