विवाह को आध्यात्मिक विकास के लिए सर्वोच्च माध्यम माना गया

सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को वयस्क समलैंगिकों के बीच सहमति से बनाए गए यौन संबंध को गैर-क़ानूनी करार दिया था. पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल और वृंदा करात सहित कई सांसदों ने सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले पर निराशा जताई है. सर्वोच्च अदालत ने धारा 377 को दोबारा वैध करार देते हुए कहा है कि इस मसले पर किसी भी बदलाव के लिए अब केंद्र सरकार को विचार करना होगा.
“मेरी निजी राय ये है कि ये निजी स्वतंत्रता के मामले हैं. ये व्यक्तिगत पसंद का मुद्दा है. ये देश अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए जाना जाता है.” -कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी
“हाई कोर्ट ने समझदारी के साथ एक पुरातन, दमनकारी और अन्यायपूर्ण कानून को खत्म किया था जो बुनियादी मानवाधिकारों का उल्लंघन करता था. …मुझे उम्मीद है कि संसद इस मामले पर गौर करेगी.” -कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी
“इस फ़ैसले के साथ ही भारत वापस 1860 के दौर में चला गया है. ….कानूनी याचिका में समय लग सकता है लेकिन में इससे इनकार नहीं कर रहा हूं. यूपीए सरकार सभी विकल्पों पर विचार करेगी.” – केन्द्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम
अभिव्यक्ति की आजादी के लिए भारत जाना जाता है यह सत्य है और खजुराहो, कामसूत्र इसके प्रमाण हैं | हमारे शास्त्रों में भी हर नैतिक या अनैतिक आचरण को बिना काट-छांट के पूरी ईमानदारी से सामने रखा, फिर चाहे किसी ऋषि या अन्य देवताओं के नैतिक या अनैतिक कार्य ही क्यों न रहें हों | यह हमारी संस्कृति ही है जो हमें स्पष्टतावादी होने के लिए प्रेरित करती रही और आज भी स्पष्टवादिता को सराहा जाता है |
लेकिन आज उन्ही का उदाहरण देकर लोग हमारी ही संस्कृति को तहस नहस करने पर आमादा हो गए | जो देवताओं और ऋषियों ने गलतियाँ की उनकी सजा उन्हें मिली यह भी उदाहरण है लेकिन ये लोग आज उसका उदाहरण हमें लांछित करने के लिए कर रहें | ये वे लोग हैं जिनकी संस्कृति आध्यात्म प्रधान नहीं बल्कि विलासिता और भोग प्रधान है | जिनके लिए शरीर मात्र भोगने का साधन है और जो यह मानकर चलते हैं कि मनुष्य का केवल एक ही जन्म होता है इसलिए जितना भोगना है भोग लो |
लेकिन हम अपनी संस्कृति में झांकें तो पायेंगे कि हमारी हर एक विधान व कर्म-काण्ड भौतिक व आध्यात्मिक संतुलन के महत्व पर आधारित है | यह और बात है कि तथाकथित धर्म के ठेकदारों और पंडितों को इनका ज्ञान नहीं है क्योंकि उनके लिए धर्म और कर्म-काण्ड केवल राजनीति और व्यवसाय मात्र ही है |
शारीरिक सुख प्राप्त करना प्रत्येक प्राणी के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह प्रकृति का अनुपम उपहार है प्राणी जगत के लिए | यही मूल है सृजन और विकास का | इसलिए विवाह को आध्यात्मिक विकास के लिए सर्वोच्च माध्यम माना गया क्योंकि यही एक ऐसा माध्यम है जिससे प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक क्रिया से सरलता से सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए आध्यात्मिक ज्ञान अर्जन किया जा सकता है | इसके लिए कठोर ब्रम्हचर्य और तपस्या की आवश्यकता नहीं रह जाती |

आइये पहले समझते हैं भारतीय दर्शन में विवाह का क्या महत्व है ?

वैदिक संस्कृति के अनुसार सोलह संस्कारों को जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण संस्कार माने जाते हैं। विवाह संस्कार उन्हीं में से एक है जिसके बिना मानव जीवन पूर्ण नहीं हो सकता। हिंदू धर्म में विवाह संस्कार को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है।
शाब्दिक अर्थ
विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है – विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है, परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
सात फेरे और सात वचन
विवाह एक ऐसा मौक़ा होता है जब दो इंसानो के साथ-साथ दो परिवारों का जीवन भी पूरी तरह बदल जाता है। भारतीय विवाह में विवाह की परंपराओं में सात फेरों का भी एक चलन है। जो सबसे मुख्य रस्म होती है। हिन्दू धर्म के अनुसार सात फेरों के बाद ही शादी की रस्म पूर्ण होती है। सात फेरों में दूल्हा व दुल्हन दोनों से सात वचन लिए जाते हैं। यह सात फेरे ही पति-पत्नी के रिश्ते को सात जन्मों तक बांधते हैं। हिंदू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर इसके चारों ओर घूमकर पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन बिताने के लिए प्रण करते हैं और इसी प्रक्रिया में दोनों सात फेरे लेते हैं, जिसे सप्तपदी भी कहा जाता है। और यह सातों फेरे या पद सात वचन के साथ लिए जाते हैं। हर फेरे का एक वचन होता है, जिसे पति-पत्नी जीवनभर साथ निभाने का वादा करते हैं। यह सात फेरे ही हिन्दू विवाह की स्थिरता का मुख्य स्तंभ होते हैं।
सात फेरों के सात वचन
विवाह के बाद कन्या वर के वाम अंग में बैठने से पूर्व उससे सात वचन लेती है। कन्या द्वारा वर से लिए जाने वाले सात वचन इस प्रकार है।
प्रथम वचन
तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी !!
(यहाँ कन्या वर से कहती है कि यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत–उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान दें। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।
द्वितीय वचन
पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम !!
(कन्या वर से दूसरा वचन मांगती है कि जिस प्रकार आप अपने माता–पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अमूमन देखने को मिलता है–गृहस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
तृतीय वचन
जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात,
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं !!
(तीसरे वचन में कन्या कहती है कि आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं (युवावस्था, प्रौढावस्था, वृद्धावस्था) में मेरा पालन करते रहेंगे, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।)
चतुर्थ वचन
कुटुम्बसंपालनसर्वकार्य कर्तु प्रतिज्ञां यदि कातं कुर्या:,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं चतुर्थं !!
(कन्या चौथा वचन ये माँगती है कि अब तक आप घर-परिवार की चिन्ता से पूर्णत: मुक्त थे। अब जबकि आप विवाह बंधन में बँधने जा रहे हैं तो भविष्य में परिवार की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति का दायित्व आपके कंधों पर है। यदि आप इस भार को वहन करने की प्रतीज्ञा करें तो ही मैं आपके वामांग में आ सकती हूँ।)
इस वचन में कन्या वर को भविष्य में उसके उतरदायित्वों के प्रति ध्यान आकृ्ष्ट करती है। विवाह पश्चात कुटुम्ब पौषण हेतु पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। अब यदि पति पूरी तरह से धन के विषय में पिता पर ही आश्रित रहे तो ऐसी स्थिति में गृहस्थी भला कैसे चल पाएगी। इसलिए कन्या चाहती है कि पति पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होकर आर्थिक रूप से परिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम हो सके। इस वचन द्वारा यह भी स्पष्ट किया गया है कि पुत्र का विवाह तभी करना चाहिए जब वो अपने पैरों पर खडा हो, पर्याप्त मात्रा में धनार्जन करने लगे।
पंचम वचन
स्वसद्यकार्ये व्यवहारकर्मण्ये व्यये मामापि मन्त्रयेथा,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: पंचमत्र कन्या !!
(इस वचन में कन्या जो कहती है वो आज के परिपेक्ष में अत्यंत महत्व रखता है। वो कहती है कि अपने घर के कार्यों में, विवाहादि, लेन-देन अथवा अन्य किसी हेतु खर्च करते समय यदि आप मेरी भी मन्त्रणा लिया करें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
यह वचन पूरी तरह से पत्नि के अधिकारों को रेखांकित करता है। बहुत से व्यक्ति किसी भी प्रकार के कार्य में पत्नी से सलाह करना आवश्यक नहीं समझते। अब यदि किसी भी कार्य को करने से पूर्व पत्नी से मंत्रणा कर ली जाए तो इससे पत्नी का सम्मान तो बढता ही है, साथ साथ अपने अधिकारों के प्रति संतुष्टि का भी आभास होता है।
षष्ठम वचनः
न मेपमानमं सविधे सखीनां द्यूतं न वा दुर्व्यसनं भंजश्चेत,
वामाम्गमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं च षष्ठम !!
(कन्या कहती है कि यदि मैं अपनी सखियों अथवा अन्य स्त्रियों के बीच बैठी हूँ तब आप वहाँ सबके सम्मुख किसी भी कारण से मेरा अपमान नहीं करेंगे। यदि आप जुआ अथवा अन्य किसी भी प्रकार के दुर्व्यसन से अपने आप को दूर रखें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
वर्तमान परिपेक्ष्य में इस वचन में गम्भीर अर्थ समाहित हैं। विवाह पश्चात कुछ पुरुषों का व्यवहार बदलने लगता है। वे जरा जरा सी बात पर सबके सामने पत्नी को डाँट-डपट देते हैं। ऐसे व्यवहार से पत्नी का मन कितना आहत होता होगा। यहाँ पत्नी चाहती है कि बेशक एकांत में पति उसे जैसा चाहे डांटे किन्तु सबके सामने उसके सम्मान की रक्षा की जाए, साथ ही वो किन्हीं दुर्व्यसनों में फँसकर अपने गृ्हस्थ जीवन को नष्ट न कर ले।
सप्तम वचनः
परस्त्रियं मातृसमां समीक्ष्य स्नेहं सदा चेन्मयि कान्त कुर्या,
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रूते वच: सप्तममत्र कन्या !!
(अन्तिम वचन के रूप में कन्या ये वर मांगती है कि आप पराई स्त्रियों को माता के समान समझेंगें और पति-पत्नि के आपसी प्रेम के मध्य अन्य किसी को भागीदार न बनाएंगें। यदि आप यह वचन मुझे दें तो ही मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।)
विवाह पश्चात यदि व्यक्ति किसी बाह्य स्त्री के आकर्षण में बँध पगभ्रष्ट हो जाए तो उसकी परिणिति क्या होती है। इसलिए इस वचन के माध्यम से कन्या अपने भविष्य को सुरक्षित रखने का प्रयास करती है।

तो विदेशियों के विवाह और हमारे विवाह में जमीन आसमान का अंतर है | हमारे यहाँ विवाह केवल शरीर मात्र से नहीं होता, यहाँ विवाह में शरीर से अधिक आत्मा को महत्व दिया जाता है क्योंकि शारीरिक मोह तो कुछ समय बाद कम होने लगता है लेकिन यदि शरीर को माध्यम मान कर उससे आगे की यात्रा की जाए तो प्रेम बढ़ता ही चला जाता है | चूँकि हम पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं, इसलिए हम यह मानकर चलते हैं कि जो जीवन साथी इस जन्म में आपका साथ निभा गया अगले जन्म में भी वही जीवन साथी के रूप में मिले तो आपसी समझ अधिक होगी क्योंकि उन्हें दोबारा नए सिरे से प्रयास करने की आवश्यकता नहीं रहेगी एक दूसरों को समझने के लिए | और यह इसलिए क्योंकि हम मानते हैं कि प्रत्येक जन्म के साथ व्यक्ति कुछ नवीन सीखता है और पिछले जन्मों के अनुभवों के आधार पर नए जन्म में वह मानसिक व आध्यात्मिक रूप में अधिक विकसित होता जाता है | लेकिन दुर्भाग्य से हम ऊपर की ओर गति करने के स्थान पर नीचे की ओर चल पड़े | हम पश्चिमी देशों की नक़ल करने लगे | हमारी शिक्षा और सोच सभी आध्यात्मिक धरातल से गिर कर भौतिकता और भोग के धरातल पर पहुँच गई |

अधिकांश लोग यही मानते हैं कि विवाह का उद्देश्य केवल शारीरिक भोग और प्रजनन ही है, जबकि इससे भी बढ़कर है | प्राचीन भारत में सेक्स (काम-कला) पर गहन अनुसंधान किये गए और पाया कि काम से कुण्डलिनी को जागृत करना किसी और विधि से कहीं आसान है और उन्हीं अनुसंधानों का परिणाम है खजुराहो और वातस्यायन का कामसूत्र | तंत्र साधना में काम को ही प्रमुख माध्यम माना जाता है क्योंकि इसमें पुरुष शक्ति और स्त्री के आपसी सहयोग के कुण्डलिनी को सह्स्र्सार तक बहुत ही कम समय में व सुगमता से पहुँचाया जा सकता है | एक बार ऊर्जा को सहस्रार के चक्र तक गति मिल गयी फिर व्यक्ति काम से मुक्त हो जाएगा. ऐसा नहीं की सेक्स नहीं कर पायेगा? वह और भी कुशलता और संरक्षित ऊर्जा के साथ करेगा पर इसका दास नहीं होगा वरन इसका स्वामी होगा | काम ऊर्जा का स्विच उसके हाथ में होगा. अभी तो हमारी स्विच कामवासना के हाथ में हैं | जो प्रणय को ईश्वरीय वरदान मानकर पूरी तन्मयता व समर्पण भाव से उसमें उतरते हैं, उनके व्यक्तित्व से करुणा और प्रतिभा की रश्मियाँ विकरित होंगी | ऐसे लोग हिंसा बलात्कार या शोषण नहीं कर सकते |
जब स्त्री और पुरुष एक बार इस अनुभव को प्राप्त कर लेते हैं तो फिर उन्हें उससे आगे गति करना आसान हो जाता है और वे शरीर से परे का अद्वितीय आनंद प्राप्त करने के योग्य हो जाते हैं | उसके बाद वे जितने भी जन्म लें वे एक दूसरे को ढूँढ ही लेंगे क्योंकि वे एक दूसरे को शरीर से परे जानते हैं | इसलिए विवाह संस्कार को हमारे यहाँ विशेष स्थान प्राप्त है |

लेकिन जब आज के युग के तथाकथित विद्वानों की बात करें और समलैंगिकता के समर्थन में उनके तर्क सुने तो समझ में आता है कि वे किस स्तर तक गिर चुके हैं |
कारण है उनकी भौतिकता पर आधरित शिक्षा | उन्हें अनुभव ही नहीं है कि आध्यात्म और भौतिकता दो जीवन के दो पहलू हैं और दोनों का संतुलन ही जीवन को सुखमय बनाता है और आगे की यात्रा को सुगम बनाता है | तो उनके लिए समलैंगिक विवाह को मान्यता देना कोई गलत नहीं है क्योंकि उनके लिए विवाह मात्र शारीरक सुख प्राप्त करने का एक सामाजिक लाइसेंस है |
समलैंगिकता मानसिक विकृति है और उपचार की आवश्यकता है लेकिन हमें यहाँ यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हम बात कर रहें है उन लोगों की जो शारीरिक रूप से सक्षम हैं विपरीत लिंगी के साथ सम्बन्ध बनाने के लिए लेकिन मानसिक रूप से वे सामान लिंगियों के प्रति आकर्षित होते हैं | हम उनकी बात नहीं कर रहे जो जन्मजात उभयलिंगी हैं, जो न तो पुरुषों में आते हैं और न ही स्त्रियों में और जिन्हें किन्नर कहा जाता है | उनका अपना एक समाज है जो सामान्य समाज के साथ समन्वयता बनाकर चलता है और जिनसे सामान्य समाज को किसी प्रकार की कोई आपत्ति या असुविधा नहीं होती | क्यों नहीं ये समलिंगी इनके समाज में सम्मिलित हो जाते ?
अगर समलैंगिकों का साथ इनको मिल जाता है तो ये लोग भी औरों की तरह डिस्कोथिक, बार और रेव-पार्टीज़ में जा पाएंगे | इनको भी ऊँचे अत्याधुनिक लोगों का साथ मिल जाएगा जिससे ये लोग भी आधुनिक बन जायेंगे | किन्नरों को चाहिए कि वे समलैंगिकों को अपने समाज में स्वीकार कर लें | इससे सभी का भला होगा, उनकी समस्या भी सुलझ जायेगी और किन्नरों का समाज भी पाश्चात्य संस्कृति के पढ़े-लिखे समलैंगिकों को पाकर गौरवान्वित हो जाएगा |
वैसे भी हमारे देश में किन्नरों को सम्मान की दृष्टि से ही देखा जाता है | हर शुभ कार्यों में उनका आना शुभ ही माना जाता है | यह और बात है कि अशिक्षा की वजह से उनकी बोलचाल नहीं सुधर पायी | लेकिन यदि किन्नरों ने इन विलायती समलैंगिकों को अपने समाज में स्वीकार कर लिया तो निश्चित ही दोनों का भला हो जाएगा |
ये पश्चिमी मानसिकता के लोगों का आज भारत में बाहुल्य हो गया है और हमारे धर्माचार्यों के पास कोई भी आध्यात्मिक ज्ञान या उपलब्धि नहीं है कि वे सिद्ध कर सकें कि पाश्चात्य संस्कृति जो हमपर थोपना चाहती है वह अनुचित है |
कारण यह कि उनके ज्ञान केवल पुस्तकों को कंठस्थ करने तक ही हैं और व्यवहारिक रूप से कोई उन्नति नहीं कर पाए | वे सीमति रह गए भजन कीर्तन तक या रामलीला देख ली या कृष्ण लीला देख ली कभी डीवीडी चला कर | बस हो गया आध्यात्म इनका | इन्होने कभी नहीं प्रयास किया यह जानने की क्यों भारत में बलात्कार की घटनाएँ बढ़ रहीं हैं, क्यों स्त्री उत्पीडन की घटनाएँ बढ़ रहीं हैं, क्यों भारतीय संस्कृति हाशिये पर पहुँच गई है….
न तो ये समय के साथ स्वयं विकसित हुए और न ही किसी को विकसित होने दिया | नैतिक पतन इतना हो गया है कि कभी गाँव में कोई गाली दे देता था तो खबर बन जाती थी, लेकिन आज बच्चे पैदा होते ही गाली दे दे तो माँ-बाप का सीना चौड़ा हो जाता है | क्या यही है हमारा भारत जो आध्यात्म के लिए पूरे विश्व में सम्मानित था लेकिन आज यहाँ समलैंगिकता, लिव-इन-रिलेशनशिप, वाइफ स्वैपिंग आदि समान्य बात हो गयी ? लड़कियों का उत्तेजक अंगप्रदर्शन करना और कोई असंयमित हो जाए तो उसे नैतिकता का पाठ पढाना ?
यह सब हमारे देश को सांस्कृतिक व मानसिक रूप से ध्वस्त करने का षड्यंत्र है और इसे जितनी जल्दी समझ जाएँ उतना ही अच्छा है | अन्यथा परिणाम वही होगा जो आज विदेशियों की हो रही है और वे भारत को आदर्श मान कर भारत की ओर आकर्षित हो रहे हैं | लेकिन हम भारत को अमेरिका या इंग्लैण्ड बनाने पर तुले हुए हैं |


क्या आप जानते हैं कि आपका जीवन साथी ही आपको आध्यात्म के शिखर तक पहुँचा सकता है ?
Related Articles
- हिंदू विवाह में सात फेरे और सात वचन
- ऑस्ट्रेलिया में समलैंगिक शादी अमान्य घोषित
- Why Men Rape: The Psychological Versus Sociological View
- मरने के चार साल बाद वह लौट आया बीवी बच्चों के पास
Support Vishuddha Chintan
