आदतें केवल आदत होती हैं फिर चाहे वह अच्छी हो या बुरी

प्रश्न: पिछले जन्म के संस्कार इस जन्म में आदत बन जाते हैं। इस जन्म की आदतें अगले जन्म में फिर संस्कार बन जाएंगी। फिर अंत कहां है?
अंत है इस बात में, इस सत्य को जान लेने में कि तुम संस्कार नहीं हो, तुम आदत नहीं हो। अंत है इस सत्य के प्रति जाग जाने में कि तुम पृथक हो। अंत है होश में। अंत है साक्षी भाव में।
एक आदमी को सिगरेट पीने की आदत है, सारी दुनिया बुरा कहती है। दूसरे को माला फेरने की आदत है, सारी दुनिया अच्छा कहती है। जो सिगरेट पीता है वह अगर न पीए तो मुसीबत मालूम होती है, जो माला फेरता है अगर न फेरने दो तो मुसीबत मालूम होती है। दोनों गुलाम हैं। एक को उठते ही से सिगरेट चाहिए, दूसरे को उठते ही से माला चाहिए। माला वाले को माला न मिले तो माला की तलफ लगती है। सिगरेट वाले को सिगरेट न मिले तो सिगरेट की तलफ लगती है। ऐसे बुनियाद में बहुत फासला नहीं है। सिगरेट भी एक तरह का माला फेरना है। धुआं भीतर ले गए, बाहर ले गए, भीतर ले गए, बाहर ले गए–मनके फिरा रहे हैं। बाहर, भीतर। धुएं की माला है। जरा सूक्ष्म है। कोई अपना कंकड़-पत्थर की फेर रहा है। जरा स्थूल है।
असली सवाल आदत से मुक्त होने का है।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि माला मत फेरो। मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि सिगरेट पीओ। मैं यह कह रहा हूं कि तुम मालिक रहो। कोई आदत ऐसी न हो जाए कि मालिक बन जाए। कोई आदत। मंदिर जाने की आदत भी मालिक न हो जाए। ध्यान करने की आदत भी मालिक न हो जाए। मालिक तुम ही रहो।
मालकियत बचाकर आदत का उपयोग कर लेना, यही साधना है। मालकियत खो दी, और आदत सवार हो गयी, तो तुम यंत्रवत हो गए। तब तुम्हारा जीवन मूर्च्छित है।
ओशो : एस धम्मो सनंतनो–(प्रवचन–06)
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