अच्छे दिनों के लिए बुरे दिनों से लड़ना पड़ता है

जब भी किसी समाज, संस्था, पार्टी या देश से किसी को बहिष्कृत किया जाता है, तब वहाँ यही कहा जाता है, “वह नियमों के विरुद्ध चलता था, कहना नहीं मानता था, कानून तोड़ता था, इसलिए निकाला गया। और यदि जानकारी मिलती है कि बहिष्कृत व्यक्ति बहुत कठिनाइयों में, दरिद्रता और भुखमरी में जी रहा है, तो कहा जाता है: “यही होना था उसके साथ और जो हो रहा है अच्छा ही हो रहा है। जो व्यक्ति अपने समाज, परिवार, संस्था, संगठन, पार्टी, सरकारों द्वारा निर्धारित किए गए भेड़चाल में सर झुकाकर नहीं चलता, उसका साथ कोई नहीं देता और उसे अकेले ही जीना पड़ता है।”
लेकिन क्या कभी जानने और समझने का प्रयास किया आपने कि जो समाज नैतिकता, सात्विकता, देशभक्ति और धर्म की दुहाई देता फिरता है, वह समाज क्या वास्तव में स्वयं नैतिक, सात्विक, धार्मिक और देशभक्त होता है ?
देखा जाए तो बिलकुल भी नहीं। क्योंकि यही समाज अधर्मियों और देश व जनता को लूटने और लुटवाने वालों के सामने नतमस्तक हो जाता है। यही समाज तब मौन हो जाता है जब उनकी अपनी संताने माफियाओं और लुटेरों की चाकरी और गुलामी करती है और अपने ही देश व जनता को लूटने और लुटवाने में सहयोगी बनती है। तब यही समाज बड़े गर्व से उनका महिमामंडन करता है, यही समाज उन्हें फूलों के हार पहनाता है, यही समाज उदाहरण देता है कि कुछ बनना है, तो इनकी तरह बनो।
अर्थात समाज स्वार्थ के पक्ष में होता है। यदि उसका अपना हित हो रहा है किसी का विरोध करने पर, तो वह बुद्ध पर पत्थर बरसाएगा, मंसूर के हाथ पैर काट देगा, सुकरात को जहर दे देगा, ईशनिन्दा और बेअदबी के नाम पर किसी गरीब की हत्या कर देगा।
समाज को भले पता हो कि फलाना व्यक्ति अपने ही देश की जनता के साथ विश्वासघात कर रहा है, लेकिन यदि उसके शेयर खरीदने से मुनाफा मिल रहा हो, तो फिर उसका विरोध नहीं करेगा। वास्तविकता यह है कि समाज स्वार्थियों, लोभियों, कायरों की वह भीड़ है, जो न नैतिक होता है, न अनैतिक। जो विजेता या ताकतवर दिखता है या जहां से उसका स्वार्थ सिद्ध हो रहा हो रहा होता है, वह उसके पक्ष में खड़ा हो जाता है।
लेकिन जो वास्तव में धर्म, नैतिकता और देशहित के पक्ष में होते हैं, वे इस बात की चिंता नहीं करते कि विरोध का परिणाम क्या होगा। वे अच्छी तरह जानते हैं कि माफियाओं और देश के लुटेरों के विरुद्ध होने का परिणाम क्या होगा।
यदि आप ध्यान दें, तो पाएंगे कि आज जितने भी आदर्श, पूजनीय और वंदनीय आराध्य हैं, वे सभी कभी तिरस्कृत और बहिष्कृत हुए थे। क्योंकि उन सभी ने समाज, सरकार, पार्टी, संस्था, संगठन की मानवता विरोधी मान्यताओं, परम्पराओं और क़ानूनों का विरोध किया था। फिर चाहे वह जीसस रहे हों, चाहे मोहम्मद रहे हों, चाहे बुद्ध, चाहे महावीर, चाहे गुरुगोबिन्द सिंह, चाहे सुकरात, चाहे मंसूर, चाहे ओशो, चाहे श्री श्री आनंदमूर्ति, चाहे विश्वभर के स्वतन्त्रता सेनानी।

यदि कुछ गलत हो रहा है, तो उसका विरोध होना ही चाहिए। और विरोध वही कर सकता है, जिसने भेड़चाल में चल रही भीड़ से स्वयं को अलग कर वास्तविकता को जानने और समझने का प्रयास किया। लेकिन जिसने भीड़ से अलग होकर स्वयं को समझने का कभी प्रयास किया ही नहीं, वह दूसरों के द्वारा थोपी हुई मत-मान्यताओं को ही सत्य मानकर जीएगा। वह मवेशियों की तरह दूसरों के द्वारा ही हाँका जाएगा।
कहते हैं पाँच सौ वर्ष पहले जर्मनी में किसान और शासक के बीच युद्ध हुआ था। और अब ठीक पाँच सौ वर्ष बाद किसान और शासक फिर आमने-सामने हैं बर्लिन और फ्रांस में। क्योंकि शासकों ने किसानों और आम नागरिकों का शोषण करने के लिए इतने सारे नियम कानून और टैक्स थोप दिये कि अब किसानों के धैर्य का बांध टूट गया।
एक विडियो दे रहा हूँ, जिसमें फ्रांस के किसानों ने संसद भवन पर गोबर और गोमूत्र की बौछार कर दी।
और यह लड़ाई किसान और शासक के बीच मानी जा रही है बाकी जनता मूक दर्शक बनी हुई है। क्या किसान की समस्याएँ आम जनमानस की समस्या नहीं है ?
जिनके पास सरकारी या गैर-सरकारी नौकरियाँ हैं, जिनके पास पेंशन और अन्य सरकारी सुविधाएं हैं, वे मौन दर्शक बने हुए हैं या मूक समर्थक बने हुए हैं सरकारों के। उनकी नजर में किसान अशांति फैला रहे हैं, उनकी नजर में आम जनजीवन को बाधित कर रहे हैं। उन्हें नहीं दिख रहा कि जो सरकारी सुविधाएं उन्हें मिल रही हैं, वह बिलकुल वैसी ही है, जैसे कोल्हू के बैलों को मिलती है। शासकों की नजर में उनके नौकर कोल्हू के बैल और आम जनता मवेशियों से अधिक और कुछ नहीं होती।
किसान भी विरोध करने तब निकले, जब सहनशक्ति जवाब दे गयी। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि जब भी सरकारें कोई ऐसा कानून पास करती हैं, जो जनता और देश के हितों के विरुद्ध होता है, तब क्यों विरोध नहीं करते ?
आम जनता भी बेहोश सोती रहती है भले सरकारें माफियाओं के साथ मिलकर लूट खसोट कर रही हो।
विदेशों में सभी के लिए जीवन बीमा, मेडिकल बीमा और अन्य बीमा लेना अनिवार्य है। और अब बीमा का प्रीमियम बढ़ा दिया गया है।
क्या जनता ने प्रश्न किया कभी कि बीमा पॉलिसी लेना अनिवार्य क्यों है ?
और अनिवार्य कर भी दिया तो प्रीमियम क्यों बढ़ाया जा रहा है मनमाने तरीके से ?
नहीं कोई प्रश्न नहीं, क्योंकि दिमाग गिरवी रख दिया है पढे लिखे होने के कारण।
जर्मनी में कई ऐसे कानून है जो जबर्दस्ती थोपे गए हैं जनता पर और जनता बेहोश है। जो थोड़े बहुत लोग विरोध कर भी रहे हैं, तो भी बाकी जनता उनका साथ नहीं दे रही।
और ऐसा नहीं है कि ऐसा केवल विदेश में ही हो रहा है। अपने देश की स्थिति भी ऐसी ही है।
ऐसी कई समस्याएँ हैं जिनपर प्रश्न उठाना चाहिए जनता को। लेकिन मूर्ख जनता मंदिर, मस्जिद खेलने में मस्त है, जय श्री राम के नारे लगाने और भजन कीर्तन करने में मस्त है।
क्यों ?
क्योंकि समाज वह भीड़ है जिसे मीडिया, धर्म व जातियों के ठेकेदार और माफियाओं की गुलाम सरकारें हाँकती हैं अपने स्वार्थ और लाभानुसार।
समाज के अधिकांश लोग सम्झौता कर लेते हैं स्वार्थ, लोभ या विवशतावश। लेकिन कुछ लोग सम्झौता नहीं कर पाते और विद्रोही बन जाते हैं। सम्झौतावादियों के नजर में ऐसे विद्रोही बहिष्कार योग्य होते हैं क्योंकि उनका मानना होता है कि जब बहुमत अन्याय, शोषण और अत्याचार के समर्थन में है, तो ये कुछ सरफिरे विरोध करके अशांति और अराजकता फैला रहे हैं।
यदि इतिहास उठाकर देखें, तो पाएंगे कि धर्म, नैतिकता और राष्ट्रभक्ति के नाम पर जितना शोषण, अत्याचार और हिंसा हुए हैं, उतना किसी महामारी या प्राकृतिक आपदा में नहीं हुआ। जो अनाचार, व्याभिचार, रिश्वतख़ोरी और भ्रष्टाचार में गले तक डूबे हुए हैं, वे ही कानून के रक्षक और देशभक्त होने का प्रमाणपत्र लिए घूम रहे होते हैं। यही भ्रष्टाचारी लोग धर्म, नैतिकता और देशभक्ति की पिंपणी बजाते सबसे अधिक घूमते हैं। यही भ्रष्ट लोग सबसे अधिक ढोंग करते हैं धार्मिक होने का। यही लोग सबसे अधिक चक्कर लगाते हैं मंदिर, मस्जिद और तीरथों के। यही लोग मंदिर, मस्जिद बनवाने में सबसे अधिक ज़ोर देते हैं।
तो जब सारा समाज ही अधर्म और अन्याय के पक्ष में खड़ा हो, तब सुकरात को जहर दिया ही जाएगा। तब जीसस को सूली पर चढ़ाया ही जाएगा। तब श्री श्री आनंद मूर्ति को जेल में प्रताड़ित किया ही जाएगा। क्योंकि समाज उन्हें पसंद नहीं करता, जो समाज को जगाना चाहता है, जो समाज की आँखें खोलना चाहता है।
समाज तो चाहता है कि मंदिर बन जाए, मस्जिद बन जाये, गिरिजाघर बन जाए, तीर्थ बन जाए ताकि वहाँ बैठकर जय-जय कर सकें और वास्तविक मूल समस्याओं से आंखे मूंदकर ध्यान, भजन कर सकें।
सदैव स्मरण रखें: अच्छे दिनों के लिए बुरे दिनों से लड़ना पड़ता है। और स्वतन्त्रता, स्वाभिमान, आत्मसम्मान और मौलिक अधिकारों की लड़ाई में समाज कभी साथ नहीं देता। क्योंकि समाज हमेशा उनके पक्ष में खड़ा होता है, जो शक्तिशाली होता है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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