व्यापार, चाकरी और गुलामी के कुछ अनिवार्य सिद्धांत
फेसबुक, ट्विटर, यूटयूब से बहुत से लोग कमा रहे हैं। मुझे भी ऑप्शन मिला है कमाने का।
लेकिन मैं जानता हुं कि व्यापार, चाकरी और गुलामी के कुछ सिद्धांत हैं, कुछ नियम हैं। जिसके उल्लंघन होने पर व्यापार ठप्प, चाकरी/नौकरी जाएगी और गुलाम मारा जाएगा।
और वह नियम और सिद्धांत हैं:
१- बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो, बुरा मत सुनो।
२- सरकारों, माफियाओं और देश व जनता के लुटेरों के विरुद्ध आवाज मत उठाओ।
३- प्रायोजित महामारी और सुरक्षा कवच के विरुद्ध कुछ मत लिखो।
३- भेड़ों, बत्तखों का जीवन जीओ, कभी इंसान बनने का प्रयास मत करो।
जो भी व्यक्ति उपरोक्त सिद्धांतों के विरुद्ध होता है, वह क्रांतिकारी या विद्रोही कहलाता है।
तो स्वाभाविक है कि कमाई के सभी रास्ते बन्द हैं मेरे लिए। रह जाता है दान या भीख मांगने का मार्ग, तो वह भी बन्द। क्योंकि अधिकांश लोग जान चुके हैं कि मैं माफियाओं, पूंजीपतियों और सरकारों के पालतू साधु संन्यासियों की तरह पालतू नहीं हूं। और ना ही पालतू बनाया जा सकता हूं। तो लोगों ने दान देना भी बंद कर दिया।
और फिर जो दान शर्तों और स्वार्थों पर आधारित हों, वह दान नहीं कर्जा कहलाता है। और कर्जा लेकर वही जी सकता है, जिसमें सर झुकाकर जीने की योग्यता हो। मेरे जैसा अहंकारी व्यक्ति भला सर झुकाकर कैसे जी सकता है ?
इसीलिए आप देखेंगे कि जिन लोगों की आजीविका नौकरी, व्यापार, चापलूसी और नाम-जाप पर आश्रित है, वे लोग कभी भी प्रायोजित महामारी और प्रायोजित सुरक्षा कवच के विरुद्ध कुछ नहीं कहेंगे। वे लोग माफियाओं और देश के लुटेरों के विरुद्ध भी कुछ नहीं कहेंगे। हां चिंदी चोरों, छोटे मोटे उठाईगिरों के विरुद्ध अवश्य शोर मचाते दिख जाएंगे। लेकिन अधिकांश तो मुर्गे लड़ाएंगे डिबेट के नाम पर या कॉमेडी सर्कस करेंगे जनता के मनोरंजन के लिए।
कमाना है, तो जोकर बनना पड़ेगा। क्रांतिकारी बने तो दरबदर की ठोकरें खानी पड़ेगी।
दो कौड़ी के लोगों की गुलामी से मुक्ति का नाम है संन्यास
और संन्यासी वही हो सकता है जो क्रांतिकारी हो। संन्यास स्वयं एक क्रांति है जो व्यक्ति के भीतर घटित होता है पहले और फिर जिसका प्रभाव कई वर्षों बाद देखने मिलता है बाह्य जगत में।
संन्यास और भक्तिमार्ग परस्पर विपरीत मार्ग है। भक्तिमार्गी का जीवन स्तुतिवंदन, नामजाप, भजन-कीर्तन करते हुए माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी, चापलूसी और गुलामी करते हुए बीतता है। इसलिए वह गृहस्थ रहे या पारम्परिक साधू-संत या संन्यासी बने, कोई अंतर नहीं पड़ता।
जबकि मौलिक, जागरूक, आध्यात्मिक संन्यासी कोई तभी हो सकता है, जब वह थोपी हुई परम्पराओं, मान्यताओं, दायित्यों से स्वयं को मुक्त कर लेता है। माफियाओं और लुटेरों की चापलूसी, चाटुकारिता और गुलामी से इंकार कर देता है।
भक्तिभाव में डूबे हुए लोगों का हश्र वही होता है, जो राजनैतिक पार्टियों और उनके नेताओं की भक्ति, चाकरी, चापलूसी और गुलामी में डूबे हुए अंधभक्तों का हो रहा है।
~ विशुद्ध चैतन्य