रिलीजन हो या सम्मान दूसरों से प्राप्त होता है
रिलीजन अर्थात किसी मत, मान्यता, परम्परा, धारणा, विचार या व्यक्ति विशेष को मानने वालों का समूह/सम्प्रदाय। रिलीजन का हिन्दी अर्थ सम्प्रदाय ही होगा, धर्म नहीं।
और रिलीजन चाहे कोई भी हो, वह उसका अनुभव है, जिसके कारण रिलीजन अस्तित्व में आया, ना कि अनुयाइयों का। इसीलिए अनुयायी रिलीजन बदलते रहते हैं अपने अपने स्वार्थ और लाभ के अनुसार। जबकि जिसका अनुभव होता है, वह बदल नहीं सकता। जो बुद्ध हो गया, वह महावीर नहीं हो सकता। जो जीसस हो गया, वह सुकरात नहीं हो सकता।
बौद्ध से ईसाई, या ईसाई से बौद्ध होना सहज है। हिन्दू से मुस्लिम या मुस्लिम से हिन्दू होना सहज है। सिक्ख से जैन या जैन से सिक्ख हुआ जा सकता है। लेकिन गुरु नानक या गोबिन्द से जीसस नहीं बन सकते, और जीसस नानक या गोविंदसिंह नहीं बन सकते।
जीसस, नानक, बुद्ध, ओशो के नाम के आगे श्री-श्री, गुरु, जगतगुरु, परमेश्वर, तारब्रम्ह जैसे उपाधियाँ न लगाई जाएँ तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। लेकिन उनके अनुयाईयों की भावनाएं आहत हो जाएंगी। क्योंकि अनुयाइयों का साम्प्रदायिक आस्तित्व उनके आराध्य के सम्मान पर ही आधारित है। जबकि जो मौलिक हैं, जो ओरिजिनल हैं, जो जागृत हैं, वे दूसरों के दिये गए सम्मान को भी अपना नहीं समझते। क्योंकि दूसरों का दिया जो कुछ भी होता है, वह सब किराए पर दिया गया होता है, शर्तों पर दिया गया होता है और जैसे ही आपने उनकी शर्तों का उल्लंघन किया, सम्मान छीन लिया जाएगा।
जीसस ईसाई नहीं थे, गौतम बुद्ध बौद्ध नहीं थे, नानक सिक्ख नहीं थे, महावीर जैन नहीं थे। वे जो कुछ भी थे, मौलिक थे, ओरिजनल थे दूसरों के द्वारा थोपे गए मत-मान्यताओं और परम्पराओं से स्वयं को मुक्त कर चुके थे।
रिलीजन हो या सम्मान दूसरों से प्राप्त होता है। और जो दूसरों से प्राप्त होता है वह शर्त और बंधनों पर आधारित होता है। शर्तें टूटी और मान-सम्मान और रिलीजन ध्वस्त !!! इसीलिए अक्सर रिलीजन खतरे में पड़ा नजर आता है कट्टर रिलीजियस व्यक्ति को। आए दिन धर्म रक्षा करने के लिए लाठी, तलवार, कट्टा लहराते फिरते हैं। क्योंकि इन धर्म-रक्षकों को धर्म का बेसिक ज्ञान ही नहीं होता, इसीलिए रिलीजन को धर्म मानकर जी रहे होते हैं।
रिलीजन से स्वयं को मुक्त कर लेने वाला व्यक्ति या तो नास्तिक हो जाता है, या फिर आध्यात्मिक मार्ग पर कदम रख देता है। नास्तिक व्यक्ति और आस्तिक व्यक्ति में कोई अंतर नहीं होता, दोनों ही माफियाओं और देश के लुटेरों के गुलाम होते हैं, दोनों ही इस अंधविश्वास में जीते हैं कि फार्मा माफिया और उनकी गुलाम सरकार, डॉक्टर और साइंटिस्ट उनके भले के लिए होते हैं, जनता की भलाई के लिए ही लूटते हैं इलाज के नाम पर।
लेकिन जो आध्यात्मिक हो जाता है, वह आत्मचिंतन करने की योग्यता विकसित करने लगता है। वह दूसरों के द्वारा थोपे गए ज्ञान, मत-मान्यताओं के आधार पर कोई धारणा नहीं बनाता, बल्कि चिंतन-मनन और अनुभवों के आधार पर धारणा बनाता है, निर्णय लेता है। यही कारण है कि आध्यात्मिक व्यक्ति समाज और सरकारों के समझ के परे होते हैं। और यही कारण है कि आध्यात्मिक व्यक्ति दुर्लभ होते हैं।