क्या ‘गृहस्थ जीवन’ वास्तव में सबसे महान तप है ?

कहते हैं लोग कि गृहस्थ जीवन सबसे महान तप है और जो ‘गृहस्थ जीवन’ के दायित्यों को निभा पाने में अक्षम होते हैं वे भगोड़े संन्यास ले लेते हैं।
क्या वास्तव में ‘गृहस्थ जीवन’ सबसे बड़ा तप है ?
यह उन लोगों के द्वारा थोपी हुई मान्यता है, जिन्हें अपने लिए आगजनी, दंगा-फसाद, मोबलिंचिंग, हत्याएँ, जयकारा, स्तुति वंदन, चापलूसी करने वाले भक्त, गुलाम, नौकर, चाकर, लठैत, सेना, गिरोह की आवश्यकता होती है।
क्योंकि गृहस्थ व्यक्ति राजनैतिक, साम्प्रदायिक और सामाजिक बंधनों में बंधा ऐसा प्राणी है इस सृष्टि में, जो विवश होता है माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी, चापलूसी और गुलामी करते हुए बच्चे पैदा करने के लिए। गृहस्थ विवश होता है पाँच किलो राशन और पाँच सौ रुपये की रिश्वत लेकर वोट देने के लिए क्योंकि उसे उन बच्चों को पालना होता है जो माफियाओं और देश के लुटेरों की गुलामी करने के लिए पैदा किए हैं। गृहस्थ विवश होता है आँख, कान, मुँह बंद रखकर वेतन, पेंशन और राजनैतिक पार्टियों के झूठे आश्वासनों, जुमलों पर आश्रित रहने के लिए, क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसका जीवन नर्क बना दिया जाएगा।
संस्कृत शब्द गृहस्थ दो शब्दों गृह और स्थ से मिलकर बना है। गृह का अर्थ घर जबकि स्थ का अर्थ “उसके अन्दर रहना”। अर्थात जो घर बनाकर रहता है वह गृहस्थ और जो बेघर होता है, जो भ्रमणशील होता है, जिसका कोई स्थायी निवास नहीं होता, वह संन्यस्त माना जाता है।
लेकिन क्या वर्तमान समाज में ऐसा कोई सरकारी साधु-संत मिलेगा, जिसके पास अपना घर ना हो, या जो बेघर भटक रहा हो ?
साधु, संतों के घरों को या तो कुटिया कहा जाता है, या फिर आश्रम कहा जाता है। कुटिया हो या आश्रम, हैं तो दोनों घर ही ?
कुटिया और आश्रम दोनों में परिवार ही रहते हैं, क्योंकि साधू-समाज को भी परिवार कहा जाता है। बहुत से आश्रम ऐसे हैं, जिसमें साधू, संत अपने परिवार के साथ रहते हैं, जिनमें उनकी पत्नी, बच्चे, सगे सम्बन्धी और शिष्य आदि होते हैं।
तो यह कहना कि गृहस्थ जीवन सबसे बड़ा तप है, क्या अतिशयोक्ति नहीं है ?
कैसा तप ?
अभी हाल ही में एक खबर देखी, जिसमें बताया गया कि अमिताभ बच्चन का भाई अत्यन्त दरिद्रता में जीने के लिए विवश है।
एक खबर और पढ़ी थी कई वर्षों पहले कि किशोर कुमार और अशोक कुमार का छोटा भाई अत्यन्त दरिद्रता में जीते हुए इलाज के अभाव में मर गया।
क्या महान तप करने वाले गृहस्थ अमिताभ और किशोर कुमार, अशोक कुमार ने चिंता की अपने भाइयों की ?
अपने समाज पर नजर डालिए। आपके ही आसपास ऐसे बहुत से परिवार मिल जाएँगे जिसमें एक भाई दरिद्र है, कर्जों में डूबा हुआ है और वहीं दूसरा भाई आर्थिक रूप से समृद्ध है, ऐश्वर्य भोग रहा है। क्या ऐश्वर्य भोगने वाला तपस्वी भाई अपने दरिद्र भाई की सहायता करता है ?
आज पति-पत्नी में तनाव रहता है, जीवन को जीते नहीं, बल्कि ढो रहे होते हैं। और आप कहते हैं कि गृहस्थ जीवन महान तप है ?
गृहस्थ जीवन महान तप नहीं, विवशता है
विवशता इसलिए, क्योंकि यह जीवन नकल पर आधारित है, थोपा गया है। विवाह करना बच्चे पैदा करने के लिए और फिर इन्हें पालने के लिए अपने खेत, खलिहान बेचकर माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी करना तप कैसे हो गया ?
तप नहीं विवशता है गृहस्थ जीवन यदि गृहस्थ व्यक्ति पारिवारिक, वैवाहिक जीवन को ढो रहा है किसी ना किसी विवशतावश।
लेकिन यदि व्यक्ति विवाह करता है और विवाह पश्चात उसका जीवन सुखी समृद्ध होता है, पारिवारिक कलेशों और विवादों से मुक्त होता है, माफियाओं की चाकरी और गुलामी से मुक्त होता है, तब अवश्य कह सकते हैं कि गृहस्थ जीवन महान तप है। गुलामी करना किसी विवशता वश तप नहीं हो सकता। परिवार के लिए माफियाओं और देश के लुटेरों का पालतू कोल्हू का बैल बनना तप नहीं है। बच्चे पैदा करना और उन्हें पढ़ा-लिखा कर माफियाओं की गुलामी करने के लिए बेच देना तप नहीं है।
घर परिवार त्याग कर सरकारों, पूँजीपतियों का पालतू साधू-संत हो जाना भी तप नहीं है।
महान तप है धर्म, न्याय, सदाचार, परोपकार का पालन करते हुए जीना। क्योंकि जब आप धर्म, न्याय, सदाचार, और परोपकार के पक्ष में रहेंगे, तब सारा विश्व आपका विरोधी हो जाएगा। क्योंकि समस्त विश्व अधर्म और अधर्मियों के पक्ष में खड़ा है व्यक्तिगत स्वार्थ, लोभ और भय के कारण।
गृहस्थ हो या संन्यस्त, यदि माफियाओं और देश के लुटेरों की गुलामी स्वीकार चुका है, तो फिर उसके लिए नैतिक, अनैतिक, पाप, पुण्य, सही गलत जैसा कुछ नहीं रह जाता। जो उसका मालिक कहेगा वही सही है और जो मालिक के विरोधी कहेंगे वह गलत। यदि व्यक्ति मालिक के कहे के विरुद्ध होगा, तो सूली पर चढ़ा देंगे, ज़हर पीला देंगे, सर कलम कर देंगे, मोबलिंचिंग कर देंगे, समाज से बहिष्कृत कर देंगे। फिर चाहे सुकरात हो, चाहे जीसस हो, चाहे गेलीलियो हो, चाहे गाँधी हो, चाहे भगत सिंह हो, चाहे चन्द्रशेखर आज़ाद हो…. चाहे कोई भी कितना महान परोपकारी चैतन्य आत्मा ही क्यों न हो।
संन्यास लेने का अर्थ यह बिलकुल नहीं कि किसी पंथ, समाज, धर्म के ठेकेदारों का एजेंट या गुलाम बन जाओ और उनके लिए मार्केटिंग करो। संन्यास लेने का अर्थ केवल यह है कि समाज, धर्म और नैतिकता के ठेकेदारों द्वारा थोपी गयी मत-मान्यताओं से स्वयं को मुक्त करके भेड़ों, गुलामों के झुंड और गुलामी से मुक्त हो जाओ और वैसे जियो, जैसा जीना चाहते हो।
सही और गलत जैसा कुछ भी नहीं होता गृहस्थों के समाज में
जो ईश्वर को नहीं मानते, वे प्रायोजित महामारी और उसकी फर्जी सुरक्षा कवच को सच मानते हैं।
जो ईश्वर, भभूत, आशीर्वाद को अंधविश्वास कहते हैं, वे प्रायोजित सुरक्षा कवच को वरदान समझते हैं।
जो बलात्कार को गलत मानते हैं, वे प्रायोजित महामारी का आतंक फैलाकर समस्त विश्व की जनता को बंधक बनाकर माफियाओं और सरकारों द्वारा किए गए बलात्कार को सही मानते हैं।
तो सत्य यह है कि गलत जैसा कुछ भी नहीं और विश्वास और अंधविश्वास भी केवल मान्यताएँ मात्र हैं। और मान्यताएँ कभी भी कहीं भी बदल जाती है, जब प्रायोजित महामारी के आतंकी चार लोगों को पकड़ कर प्रायोजित महामारी से संक्रमित होने की अफवाह फैलाने के लिए पूरी मीडिया, सरकार, नेता, अभिनेता…. सभी को खरीद लेते हैं।

हिटलर गलत नहीं था, मुसोलिनी गलत नहीं था, माओत्से तुंग गलत नहीं था, स्टालिन गलत नहीं था, माफिया, डॉन, डकैत, तड़ीपार, जुमलेबाज….आदि कोई भी गलत नहीं। और इसका प्रमाण हैं उनके समर्थक, अंधभक्त और उनकी गुलाम मीडिया जो उनका प्रचार कर रही थी, जो उन्हें महान देशभक्त बता रही थी।
~ विशुद्ध चैतन्य
ओशो का एक प्रवचन प्रस्तुत है आप के लिए:
आज्ञाकारी का शोषण किया जा सकता है
मैंने सुना है, एक तर्कशास्त्री सुबह-सुबह एक तेली के घर तेल लेने गया था। तेली तेल तौलने लगा। उसी की पीठ के पीछे कोल्हू चल रहा है। कोल्हू का बैल कोल्हू को चला रहा है, तेल पेरा जा रहा है। हैरान हुआ तर्कशास्त्री। क्योंकि बैल को कोई चला नहीं रहा है, वह अपने से ही चल रहा है। पूछा उसने तेली को। एक जिज्ञासा मेरे मन में उठी है, कहा उसने, इतना धार्मिक बैल कहां पा गए कलियुग में? सतयुग की छोड़ो, ऐसे ही ऐसे बैल होते थे। लेकिन यह बैल कलियुग में कहां पा गए? अब तो मारो-पीटो तो भी बैल चलते नहीं हैं। हड़ताल कर दें, घिराव कर दें, सींग मारें, शोरगुल मचाएं, झंडा उठाएं, स्वतंत्रता की आवाज दें। यह बैल तुम्हें कहां मिल गया–ऐसा श्रद्धालु कि कोई चला भी नहीं रहा है और चल रहा है!
तेली हंसने लगा। उसने कहा, आपको राज पता नहीं है। बैल धार्मिक नहीं है, उसे चलाने के पीछे एक व्यवस्था है। देखते हैं, उसकी आंखों पर पट्टी बंधी है! उसे सिर्फ अपने सामने दिखाई पड़ता है; न इस तरफ देख सकता है, न उस तरफ; न बाएं, न दाएं। इसलिए वह यह सोचता है कि यात्रा कर रहा है, कहीं जा रहा है। उसे पता ही नहीं चलता कि गोल चक्कर खा रहा है; कहीं जा नहीं रहा है; कोई यात्रा नहीं हो रही है। उसे समझ में आ जाए कि गोल घूम रहा हूं, तो अभी रुक जाए। मगर वह सोच रहा है–कहीं पहुंच रहा हूं, कोई मंजिल, कोई मुकाम करीब आ रहा है।
तर्कशास्त्री भी तर्कशास्त्री था। उसने कहा, माना, देखा मैंने कि आंख पर पट्टी बांधी है। लेकिन कभी रुक कर भी तो देख सकता है कि कोई हांकने वाला है या नहीं।
उसने कहा, तुमने मुझे नासमझ समझा है? बैल से ज्यादा नासमझ समझा है? मैंने उसके गले में घंटी बांध रखी है। चलता रहता है, घंटी बजती रहती है। और मैं जानता हूं कि बैल चल रहा है। जैसे ही रुकता है, घंटी बंद हो जाती है। मैं जल्दी से उचक कर उसे हांक देता हूं। उसे पता नहीं चल पाता कि पीछे हांकने वाला नहीं था। जैसे ही घंटी रुकी कि मैंने हांका, कि मैंने हांक दी। तो वह डरा रहता है कि कोई पीछे है, जरा रुका कि कोड़ा पड़ेगा।
तर्कशास्त्री तो तर्कशास्त्री फिर भी। उसने कहा, एक प्रश्न, आखिरी प्रश्न, क्या बैल खड़े होकर अपना सिर हिला कर घंटी नहीं बजा सकता?
उस तेली ने कहा, महाशय, जरा धीरे बोलिए। अगर बैल सुन लेगा, मेरा सारा धंधा खराब हो जाएगा। और तेल आप आगे से कहीं और से खरीदना। ऐसे आदमियों का आना-जाना ठीक नहीं। मैं बाल-बच्चे वाला आदमी हूं। यह बैल बिगड़ जाए तो मेरा सारा व्यवसाय टूट जाएगा। और बैल ही नहीं, मेरे बच्चे सुन लें तुम्हारी बातें, तो वे भी बिगड़ जाएंगे।
इसलिए तो जीसस को सूली देनी पड़ी, सुकरात को जहर पिलाना पड़ा। ये वे लोग थे जो तुम्हारी आंखों की पट्टियां उतारने की कोशिश कर रहे थे। ये वे लोग थे जो तुम्हारे गले में बंधी हुई घंटी से तुम्हें सचेत कर रहे थे। ये वे लोग थे जो कह रहे थे कि तुम गोल चक्करों में घूम रहे हो; तुम कहीं जा नहीं रहे हो; तुम व्यर्थ ही मेहनत कर रहे हो। रुको! सोचो पुनः! ये वे लोग थे जो तुम्हें समझा रहे थे कि आदमी बनो, कोल्हू के बैल नहीं।
स्वभावतः, जिनके हित तुम्हें कोल्हू के बैल बनाने में हैं वे सभी नाराज होंगे। मां-बाप चाहते हैं बच्चे आज्ञाकारी हों–बिना इसकी फिक्र किए कि उनकी आज्ञाएं मानने योग्य हैं या नहीं। शिक्षक चाहते हैं बच्चे आज्ञाकारी हों–बिना इसकी फिक्र किए कि उनकी आज्ञाएं मानने योग्य हैं या नहीं। राजनेता चाहते हैं कि जनता आज्ञाकारी हो। पंडित-पुरोहित चाहते हैं कि जनता आज्ञाकारी हो। हरेक चाहता है कि दूसरा आज्ञाकारी हो, क्योंकि आज्ञाकारी का शोषण किया जा सकता है। कोई नहीं चाहता कि दूसरा विचारशील हो।
विचारशील कभी मानेगा और कभी नहीं मानेगा। मानेगा तब जब उसके अंतःकरण से मेल होगा; नहीं मानेगा, जब उसके अंतःकरण से मेल नहीं होगा। उसके पास अपना मापदंड है, अपनी कसौटी है। कसेगा। सोना होगा तो हाँ कहेगा और पीतल होगा तो फेंक देगा।
और सभी चमकने वाली चीजें सोना नहीं हैं। और सभी आज्ञाएं सत्य नहीं हैं; और सभी आज्ञाएं शुभ नहीं हैं; और सभी आज्ञाएं सुंदर नहीं हैं।
-ओशो
काहे होत अधीर, प्रवचन 18
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