बचपन के दौरान लालटेन में पढ़ाई कम हंसी-ठिठोली और आनंददायक जीवन!
मैं बचपन में जो जिंदादिल जिंदगी जी वह बहुत ही खूबसूरत थी। जिसे आज के बच्चों की जिंदगी के मुकाबले में लाख गुना अलग थी। शायद आज के मॉडर्नाइज बच्चों को, यह हमारे बचपन की जिंदादिली कहानी शायद एक सपना लगे। पर हमारी तो हकीकत भरी खुशनुमा जिंदगी की पूरी कहानी थी।
जब हमारे बचपन के दिन थे तो हमारे छोटे से 10 हजार की जनसंख्या की गांव में, आसपास के छोटे-छोटे कस्बे अपने-अपने हाट-बाजार लगाने हमारे ही गांव में आया करते थे।
हमारा गांव बहुत ही खुशहाली, स्वतंत्र, आत्मनिर्भर, आनंदित और समृद्ध हुआ करता था। वहां कभी भी कोई किसी भी गांव की कृषि परिवार के सदस्य पूंजीवादी सरकारी व्यवस्थाओं की नौकरी या गुलामी नहीं किया करते थे।
बल्कि सब के सब आत्मनिर्भर और स्वतंत्र हुआ करते थे। अपने-अपने खेत-खलियान के बाग-बगीचों में, किचन गार्डनिंग हुआ करते थे और खेतों की अच्छे पैदावार कर, सभी परिवार और समाज स्वस्थ दायक खुशहाल भरी जिंदगी जिया करते थे, और बहुत ही संतुष्ट जीवन जीते थे।
और हम सब छोटे-छोटे बच्चे भी अपनी मां-पिता, चाचा-चाचा, नाना-नानी और दादा-दादी के घर आंगन में पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की सेवा कर विश्व बंधुत्व जीव-जंतुओं के परिवार से जुड़ कर खुद को गौरवान्वित हुआ करते थे। यहां तक गांव परिवार के सारे लोग हमारे अपने हुआ करते थे।
उस समय गांव के बच्चे स्कूल कम, घर में ज्यादा समय व्यतीत किया करते थे। क्योंकि आज की तरह इतने नियम कानून से गांव का स्कूल बंधा नहीं हुआ करता था। हां एक दो छड़ी लड़कों को पैरों में जरूर लगते थे और लड़कियों को हाथों में शिक्षक की छड़ी जरूर लगते थे। कि हम सब अपने पाठ याद क्यों नहीं किया।😀
उस समय लड़के स्कूलों में किचन गार्डनिंग में शिक्षक को मदद करने पर उनकी गलतियां माफ कर दी जाती थी और लड़कियों की मार्क्स कम मिलने पर लड़कियां कढ़ाई बुनाई या पूरी सब्जी बनाकर खिला देती थी तो शिक्षक-शिक्षिका उन्हें पास कर दिया करते थे। उस समय हमें अच्छे मार्क्स मिलना आसान होता था क्योंकि सभी अपने गांव के ही अपने होते थे।😀
पर हर बार हम लोग स्कूल से बाहर होने पर, अपनी मस्ती को कम नहीं होने देते थे। हम सब गांव के बच्चे की एकता और प्रेम ऐसे होते थे कि बड़े बुजुर्ग अगर लड़ भी जाए तो हम लोग आपस में मिल-जुलकर अपनी प्रेम और एकता भरी मस्ती भरे दिन को किसी भी तरह का आंच नहीं आने देते थे।
उस समय हमारे गांव में न टीवी चैनल होते थे, न बिजली होती थी, न मोबाइल होती थी, पर हम गांव के बच्चे अपने मनोरंजन में इतने निपुण होते थे कि पूरे गांव के मनोरंजन कर दिया करते थे।
रात में ढ़िबरी, लैंप या लालटेन के नीचे पढ़ने के लिए बैठने पर, पढ़ाई कम अंताक्षरी और हंसी-ठिठोलीयां ही ज्यादा हुआ करती थी। क्योंकि हम सबों को पता था कि पढ़ लिख कितना भी जाएं, करनी तो पड़ेगी इन्हीं पूंजीवादी सरकारी व्यवस्थाओं की गुलामी।
इसीलिए हम सबों ने अपनी जिंदगी को पूरी तरह उन गांव में समा समा कर, खुद को उस गांव के कोने-कोने में हंसी ठिठोलीयों में खुद को खोकर अपनी पूरी जिंदगी जी ली है, जितना हमें जीना था, आज उसका कहीं भी अफसोस भी नहीं है हमें। बल्कि बहुत खुश हैं, आज भी अपने जीवन में उन पलों को याद कर, कि हमने कहीं भी किसी भी परिस्थिति में अपने बचपन को नहीं खोया बल्कि बहुत कुछ पाया।
क्योंकि उस समय कभी किसी से कंपेयरिंग करने की भावना उत्पन्न होने का कोई साधन नहीं था। और आज हर व्यक्ति के पास हर कुछ होते हुए भी खोखले हैं। हर परिवार समाज देश विवादों और विभेदों में बटता जा रहा और अपनी ही परिवार, समाज देश दुनिया के रिश्ते-नातों के अपनापन से से दूर होता जा रहा।
उस वक्त हमारे गांव में जात बिरादरी की भावना नहीं हुआ करती थी। हम छोटे-छोटे बच्चों को यह सब पता भी नहीं होता था। हम सब आपस में हर बिरादरी के बच्चों के साथ छुपा-छिप्पी मिलजुल कर हर प्रकार के खेल खेला करते थे और हंसी ठिठोलीयां किया करते थे। जिससे पूरा गांव में खिलखिलाहट, झनझनाहट और खनखनाहट की आवाज से पूरा का पूरा गांव के बड़े बुजुर्ग भी हंसी-ठिठोलिया ले लिया करते थे।
और हमारे उस गांव में बिना बिजली के भी हम बच्चों को न कभी डर और भय हुआ करता था और न ही गांव के माता-पिता को उसे समय किसी भी तरह की चिंता करने की जरूरत होती थी, इतनी शुद्ध सात्विक और विचार माहौल हुआ करता था।
हम हर छोटे वर्ग, बड़े वर्ग और हर प्रकार के गांव के बच्चों के साथ, आपस में प्रेम स्पर्धा और सहयोग की भावना लिए, आपस में इतने मस्त जीवन व्यतीत किए है, जो आज आपको किसी भी गांव में शायद ही अब कभी देखने को मिलेगा।
जो भी 50 साल पहले के जिंदगी गांवों में गुजरे होंगे, वे ही शायद अपनी बचपन की यादों को ताजा कर सकते हैं, हमारे इस लेख के माध्यम से जरूर सहमत होंगे। सच में वह हमारे जैसे आनंदित भरी बचपन के दिन आज के आधुनिक बच्चों को कभी न मिल सकेगा।
हम सबों ने आज गुलामी की बस्ती में, पूंजीवादी सरकारी व्यवस्थाओं के माफियाओं और धुंरंधरों की कश्ती में कैसा समाज बना डाला। जहां हर एक बच्चा गुलाम पैदा किया जाता है। और इन्हीं पूंजीवादी सरकारी व्यवस्थाओं को समर्पित कर दिया जाता है। जैसे उस बच्चे का अपना कोई व्यक्तिगत मौलिक और निजता का अधिकार रही नहीं गई?
आज हर एक बच्चा अपने प्रतिभाशाली गुणों को कभी देख भी नहीं पता और न समझ पाता, कि हम इस धरती पर क्यों आए हैं। हमारा इस अमूल्य जीवन में उद्देश्य क्या है?
बस उसे इस शोधित और कुपोषित व्यवस्था में एक मछली की तरह बिन पानी के तड़पता हुआ, अपनी जीती जागती जिंदगी को मारता हुआ आज की पूंजीवादी सरकारी गुलामी भरी व्यवस्था में गुजरना पड़ता है। जिसके कारण हर एक बच्चा आज समाज में जन्मतिथि के साथ अन्तर्मन से तड़पता हुआ शोषित और कुपोषित होकर मरता जा रहा। जिसका न आज शांतिपूर्ण आनंददायक परिवार रहा, न समाज रहा।
बल्कि आज का हर एक मानव प्रजाति एक मशीन रोबोट में तब्दील होकर रह गया है। उसमें इंसानियत होती जा रही। जिसके कारण उस मन अंदर की पूरी विश्व की मानवता की क्रांतिकारी गुण धर्म मरते जा रहे। उसे विश्व की मानवता से कोई लेना-देना नहीं।
वह सिर्फ आज की समाज में एक घोड़े की रेस की तरह दौड़ रहा। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता की विश्व की जीव-जंतु, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे या छोटी सी छोटी जीव इस धरती से लुप्त हो रहे, उसे बचाया जाना चाहिए या नहीं? और इस धरती के शुद्ध पानी, शुद्ध हवा तक, शुद्ध प्राकृतिक अनाज और शुद्ध प्राकृतिक स्वदेशी बीज तक नष्ट हो रही।
और विश्व के पूंजीवादी व्यवस्थाओं द्वारा किसानों की जमीनें पैरों तले जमीन खिसक रही और उस पर कब्जा की जा रही। क्या इसे ही आज की मानव जाति विकास कहते हैं?
क्या इसे ही पढ़ी-लिखे डिग्री धारियों का समाज कहेंगे या गुलाम कहेंगे? या शिक्षित मानव जाति का अति उत्तम इंसान कहेंगे? जिसने मानव जाति का उत्थान किया है या जो ध्वंस होते मानव जाति और प्रकृति को देख रहा था और फिर भी उसे विकास कह रहा था?
सरिता प्रकाश ✍️🌱🙈🙉🙊