जागृत लोगों के विरुद्ध क्यों रहता है समाज और शासक ?
पारम्परिक साधू-संत, संन्यासियों, मौलवियों, पादरियों, पंथियों का काम है समाज को कर्मकांडों, पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास, भजन-कीर्तन और ध्यान में उलझाए रखना।
नेताओं, अभिनेताओं और मीडिया का काम है समाज का ध्यान मूल और गंभीर समस्याओं से भटकाये रखना।
पढे-लिखे डिग्रिधारियों का काम है अपने ही देश की जनता और प्राकृतिक संपदाओं को लूटने, नष्ट करने वाले माफियाओं और उनकी गुलाम सरकारों (शासकों) की चाकरी, गुलामी और चापलूसी करना।
उपरोक्त सभी को उचित परिश्रमिक, मान सम्मान और सेवानिवृति पर उचित पेंशन मिलता है, इस शर्त के साथ कि कभी भी जनता को नहीं बताएँगे कि कैसे उनका शोषण और दोहन किया जा रहा है।
और जो जनता को सत्य बता रहा होता है, उसे देशद्रोही, पाकिस्तानी, कोस्न्पिरेसी थियरिस्ट कहकर बहिष्कार किया जाता है समाज, सरकार और सोशल मीडिया प्लेटफार्म के द्वारा।
तो प्रश्न यह कि क्या दुनिया के सभी धार्मिक ग्रंथ, गुरु और संविधान चैतन्य और जागृत लोगों के विरुद्ध होने की शिक्षा देते हैं ?
यदि नहीं तो फिर जागृत लोगों के विरुद्ध क्यों रहता है समाज और शासक ?