पढ़े-लिखे अशिक्षित डिग्रीधारियों का समाज गुलाम मानसिकता का होता है

इतिहास साक्षी है कि आर्थिक, सामाजिक, आध्यात्मिक और बाहुबल से से समृद्ध और प्रभावशाली लोगों ने सदैव शाहों और तानाशाहों का ही साथ दिया। फिर चाहे शासक कितना ही क्रूर, लुटेरा, अय्याश, लोभी, लंपट, या मूर्ख ही क्यों ना रहा हो।
केवल चैतन्य और जागृत लोग ही विरोध और विद्रोह करने का साहस कर पाए। फिर भले वे अनपढ़, गंवार, दरिद्र ही क्यों ना रहे हों। फिर चाहे उन्हें समाज, देश और दुनिया से निष्कासित, बहिष्कृत ही क्यों ना होना पड़ा हो।
इतिहास से हमें शिक्षा मिलती है कि पढ़ा लिखा, डिग्रीधारी, किताबी धार्मिक, आस्तिक, नास्तिक, वैश्य, शूद्र (वेतन, पेंशन भोगी और दास), शास्त्रों, धर्मग्रंथों और विज्ञान के प्रकांड विद्वानों की विवेक बुद्धि इतनी विकसित नहीं हो पाती, जितनी किसी अनपढ़, चैतन्य, जागृत व्यक्ति की होती है।
ओशो ने भी कहा था कि यदि जागृत होना है, मौलिक होना है, तो अनपढ़ होना पड़ेगा। समाज, परिवार और सरकारों ने जो कबाड़ मस्तिष्क में भरा है शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान के नाम पर उससे मुक्त होना पड़ेगा।
सदैव स्मरण रखें:
जिनके पास भी आराध्य, पूजनीय, वंदनीय गुरु हैं और जिनका नामजाप करने पर सुख-समृद्धि, ऐश्वर्य, सरकारी नौकरी, लॉटरी, वीज़ा लगता हो, भारी-भरकम दहेज लाने वाली बहू मिलती हो, सरकारी या एनआरआई दामाद मिलता हो, बड़ी से बड़ी बीमारी दूर हो जाती हो…. उन्हें ज्ञान देने या जगाने का प्रयास कभी न करें।
मेरा मानना है कि जो खोये हुए हैं अपने आराध्य के नामजाप, स्तुतिवंदन में, उनसे दूरी बना लेने में ही भलाई ही जागृत और चैतन्य लोगों को। क्योंकि वे जागृत लोगों को सहन नहीं कर सकते। उन्हें ऐसे लोग बिलकुल पसंद नहीं हैं, जो माफियाओं की चाकरी और गुलामी नहीं करते, जो अपने ही देश और जनता को लूटने और लुटवाने वालों की जय जय नहीं करते।
और वैसे भी सभी के पास अपने अपने गुरु हैं, अपने अपने आराध्य हैं और उनके आराध्य गुरुओं ने उन्हें जो सिखाया है, वही उनके आचरण में दिखाई दे रहा है। तो फिर हम उनके गुरुओं के दिखाये मार्ग और सिखाई शिक्षाओं के विरुद्ध होने के लिए उन्हें क्यों कहें ?
अशिक्षित डिग्रीधारियों की भीड़ से हटकर एकाँकी जीवन जीना श्रेष्ठ है आत्मिक विकास के लिए
हमारा विवेक जागृत है, हमें जो ज्ञान प्राप्त होता है वह आत्मज्ञान से प्राप्त होता है, ना कि दूसरों के द्वारा थोपे हुए गुरुओं और आराध्यों की किताबों से। तो स्वाभाविक है हम जपनाम समाज से बिलकुल अलग ही होंगे। हमारे विचार उनके समझ में नहीं आने वाली और उनके विचार हमारे समझ में नहीं आने वाली। तो फिर काहे हम भीड़ के साथ भेड़चाल में चलें ?
हमारी नियति यदि एकाँकी जीवन जीना है, तो एकाँकी ही सही। कम से कम भीड़ से मुक्ति तो मिलेगी ?
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