जो ज्ञान आप लोगों के पास है उससे किसे लाभ हो रहा है ?
मैं अब खेती करूंगा यह घोषणा की थी। बहुत से लोगों ने दुनिया भर की सलाह दी, खेती कैसे करना है, कैसे बीज बोना है, कितना पानी देना है, कब फसल काटना है से लेकर बाजार में कैसे बेचना है….तक का सारा ज्ञान उड़ेल दिया।
मैंने जब फावड़ा चलाना शुरू किया, तो पंद्रह मिनट में ही कमर दर्द शुरू हो गया, क्योंकि जीवन भर कम्प्युटर और डिजिटल मिक्सिंग कंसोल ही चलाया था। तो स्वाभाविक है ऐसे औज़ार चलाना मेरे लिए कठिन ही था। लोगों ने कहना शुरू कर दिया, कि मेहनत करने की आदत नहीं और निकल पड़े किसानी करने ?
किसानी क्या कोई बच्चों का काम है ?
यदि किसानी कोई आसान काम होता तो, हम अपने बच्चों को पढ़ा लिखाकर नौकरी करवाने की बजाय किसानी ही करवा रहे होते।
तो प्रश्न यह कि आधुनिक युग में क्या कोई संन्यासी किसानी नहीं कर सकता, बिना मजदूर बने ?
क्या आवश्यक है कि किसान होने के लिए शरीर भी मजदूर का ही होना चाहिए ?
क्यों ढोना चाहिए थोपी गयी पारम्परिक जीवन शैली को ?
क्यों ढोना चाहिए ऐसी जीवन शैली जिससे सिवाय माफियाओं, देश के लुटेरों और उनके दलालों, गुलामों के अन्य किसी का कोई कल्याण नहीं होता ?
ओशो के आने से पहले तक साधु-सन्त सतयुगी अर्थात अप्राकृतिक ब्रह्मचर्य जीवन जीते थे बाहरी रूप से, लेकिन भीतर से कलयुगी जीवन जीना चाहते थे।
फिर ओशो का आविर्भाव हुआ और उन्होंने कहा कि ढोंग बंद कर दो और जो हो, जैसे हो, वैसे ही स्वीकार लो स्वयं को। ओशो से प्रेरित हुए पारम्परिक साधु, संतों में होड़ लग गयी आर्थिक रूप से समृद्ध, आधुनिक होने और दिखने की।
अब पारम्परिक साधू समाज के संतों के पास महंगी-महँगी गाडियाँ हैं, स्मार्टफोन हैं, आईफोन, आइपेड, लैपटाप आ चुके हैं। अब साधू-संत, कथावाचक लाखों रुपये की फीस लेते हैं प्रवचन सुनाने के लिए।
लेकिन जो गरीब हैं, जो असहाय हैं, उन्हें ब्रह्मचर्य के नाम पर अप्राकृतिक जीवन शैली जीने के लिए विवश करते हैं। क्योंकि उन्हें दिखाकर समाज की आस्थाओं, भावनाओं और श्रद्धा का शोषण और दोहन करना आसान हो जाता है।
जैन और नागा साधु-संन्यासी बहुत ही कठिन जीवन जीते हैं, लेकिन उनकी जीवन शैली से भारी-भरकम कमाई होती है उन संस्थाओं को, जो ऐसे साधु-संन्यासी तैयार करके पालते हैं।
तो जब पारम्परिक साधू समाज सतयुगी जीवन शैली त्याग कर कलयुगी जीवन शैली अपना सकता है, तो फिर मेरे जैसे संन्यासी को वैसा ही क्यों जीना चाहिए, जैसा माफियाओं का गुलाम समाज चाहता है ?
जो समाज स्वयं किसानी त्याग कर चाकरी, गुलामी का जीवन आत्मसात कर चुका हो, उस समाज को अधिकार ही क्या है दूसरों को दिशानिर्देश देने का ?
मैंने पारम्परिक संन्यास का भी त्याग कर दिया है
92-93 में जब घर छोड़ा था, तब मेरे पिताजी ने कहा था कि अकेले अविवाहित लड़के को दिल्ली में कोई मकान नहीं देगा रहने के लिए। और कोई कमरा मिला भी तो शेयरिंग करना पड़ेगा किसी न किसी के साथ।
लेकिन मैं निकल पड़ा था एक ब्रीफकेस में अपने कपड़े रखकर दिल्ली में कमरा खोजने। और मुझे मिला भी एक कमरा दिल्ली के वेस्ट पटेल नगर में। उसके बाद जब सेलरी बढ़ी तो मैंने ओल्ड राजेन्द्र नगर में दो बेडरूम का फ्लैट किराये पर ले लिया, केवल यह दिखाने के लिए कि मुझे मकान मिल सकता है और वह भी अकेले रहने के लिए।
उसके बाद जीवन में बहुत से उतार चढ़ाव आए, और अपनों की बजाय गैरों से अधिक सहायता और सहयोग मिला।
जब तय कर लिया कि अब नौकरी नहीं करनी चाहे जो हो जाये, तो आश्रम में ठिकाना मिला और पूरे सम्मान के साथ रहा आश्रम में। लेकिन जब मेरे एक लेख से आश्रम के भक्तों की वह भावना आहत हो गयी, तो मुझे आश्रम त्यागना पड़ा।
वह भावना और आस्था आहत हो गयी थी उनकी, जो प्रायोजित महामारी में मंदिरों-तीरथों में फार्मा माफियाओं की गुलाम सरकारों द्वारा ताला लटकाने पर नहीं हुई थी। जो आस्था तब आहत नहीं हुई थी, जब मंदिरों-तीरथों में विराजमान ईश्वर प्रायोजित महामारी से आतंकित होकर, अपने भक्तों के प्राण बचाने की बजाए, फरार हो गए थे।
आश्रम के प्रमुख ने कहा था कि आश्रम त्यागने की आवश्यकता नहीं है, केवल हमारी तरह भोजन, भजन, शयन के सिद्धान्त को अपना लो और लिखना बंद कर दो। मैंने कहा कि लिखना तो बंद होगा नहीं, चाहे फुटपाथ पर रहकर लिखना पड़े। तो फिर उन्होने कहा कि जिस प्रकार के लेख तुम लिखते हो, उससे सभी संप्रदाय, समाज और राजनैतिक पार्टियां तुमसे नाराज हैं। तुम्हें स्वयं तो कोई लाभ होता नहीं लेखों से, उल्टे सभी को अपना शत्रु बना रखा है तो रहोगे कहाँ पर ?
मैंने कहा कि मैं जो काम कर रहा हूँ, वह वही कार्य है जो ठाकुर दयानन्द देव, ओशो, श्री प्रभात रंजन सरकार जैसे चैतन्य पुरुषों ने आरंभ किया था और मैं वही कार्य आगे बढ़ा रहा हूँ। तो मेरे ठहरने की व्यवस्था से लेकर अन्य सभी आवश्यकताएँ भी वही पूरी करेंगे अपने प्रिय भक्तों के माध्यम से।
तो उन्होंने कहा कि यदि जीवन में कभी ऐसा लगे, तुम बिलकुल अकेले हो चुके हो, भूखों मरने की नौबत आ गयी है और कोई पानी पूछने वाला भी न हो, तो लौट आना। मेरे दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा खुले रहेंगे।
मेरा उत्तर था: “मेरी चिंता करने के लिए ईश्वर हैं और वे ही निश्चित करेंगे कि मेरी मौत कैसे होनी है। वापस लौटना अब असंभव होगा मेरे लिए, क्योंकि एक बार कदम आगे बढ़ गए, तो कदम वापस लेना बहुत कठिन हो जाता है मेरे लिए।
सारांश यह कि जब भी कभी ऐसा समय आए कि आप बेसहारा हो जाएँ, तो ईश्वर को धन्यवाद दीजिये। क्योंकि बेसहारा होते ही, वे सारे सहारे दूर हो जाते हैं, जो आपसे नहीं, आपके नाम, पद, सत्ता और प्रतिष्ठा से जुड़े थे। केवल वही लोग आपसे जुड़े रह जाते हैं, जो केवल आपसे जुड़े थे।
और जो आपसे जुड़े होते हैं, वे बिना कहे ही जान जाते हैं कि कब और क्या सहायता करनी है आपकी। यह और बात है कि प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में कुछ दो चार लोग ही ऐसे होते हैं और कुछ के जीवन में तो एक भी नहीं होते ऐसे, जिन्हें सोलमेट कहा जा सके।
अधिकांश सभी पद, प्रतिष्ठा, सत्ता और बैंक बेलेन्स से जुड़े होते हैं। और जिस दिन आप बेसहारा हो जाते हैं, सबकुछ छिन जाता है आपसे बिलकुल नयी शुरुआत करने के लिए।
और जब सबकुछ छिन जाता है आपसे, तब गली-गली में गुरु बैठे मिल जाते हैं सिखाने के लिए कि कैसे लिखना चाहिए, कैसे बोलना चाहिए, कैसे खेती करना चाहिए, कैसे….
लोग कहते हैं मुझसे कि तुम्हें कोई भी ज्ञान नहीं है, केवल व्यर्थ का कबाड़ परोसते रहते हो। तुम्हारे दिये ज्ञान से किसी को कोई लाभ नहीं होता, केवल दिमाग का दही होता है।
तो प्रश्न यह कि जो ज्ञान आप लोगों के पास है, उससे किसे लाभ हो रहा है ?
क्या पर्यावरण, वन, खेत और नदियाँ सुरक्षित संरक्षित हो पा रही हैं ?
क्या समाज के सदस्य परस्पर सहयोगी हो पा रहे हैं ?
क्या परिवार बिखरने से बच पा रहा है ?
क्या शोषितों, पीड़ितों और असहायों को सुरक्षा, सेवा और सहायता मिल पा रहा है ?
क्या इंजीनियरिंग कर चुके युवा इस योग्य हो पाये कि अपने गाँव के घरों के चूल्हे को स्मोकलेस कर घर की छतों को कालिख से मुक्त कर पाएँ ?
क्या आपके ज्ञान से गाँव, देहातों की दरिद्रता, भुखमरी, जातिवादी भेदभाव, साम्प्रदायिक द्वेष और घृणा मिट गयी ?
ऐसा क्या कर दिया आपने अपनी शिक्षा से, जिससे यह प्रमाणित हो कि आपकी शिक्षा श्रेष्ठ है मुझे प्राप्त शिक्षा से ?
क्या माफियाओं और देश के लुटेरों की नौकरी, गुलामी और चापलूसी करने मात्र से आप शिक्षित और समझदार हो गए ?
यह सब तो वे मवेशी भी कर रहे हैं जो डेरी, पोल्ट्री फार्म में दूध, अंडे और माँस उपलब्ध करवाते हैं।
क्या पैसे कमाने के लिए दौड़ रहे हैं, इसलिए आप शिक्षित माने जाएँगे ?
यह सब तो नीलामी में बिकने वाले रेस के घोड़े, विधायक और खिलाड़ी भी कर रहे हैं। लेकिन उनके बिकने और दौड़ने से समाज और देश को क्या लाभ हो रहा है ?
क्या कभी जानने का प्रयास किया कि आपके घर का सोना जा कहाँ रहा है ?
क्या कभी जानने का प्रयास किया कि आपके खून पसीने की कमाई जा कहाँ रही है ?
क्या कभी जानने का प्रयास किया कि सारा धन केवल कुछ मुट्ठीभर लोगों के गोदामों में क्यों जमा होने लगा है ?
नहीं सोचा होगा और सोचने का समय भी कहाँ है आप लोगों के पास ?
लेकिन मैंने सोचा है और इसीलिए मैं उन सभी पारम्परिक जीवन शैलियों के विरुद्ध हूँ, जो इंसान को यह सिखाती हैं कि उनका जन्म माफियाओं की चाकरी और गुलामी करने के लिए हुआ है। जो यह सिखाती है कि इंसान का कार्य है माफियाओं के लिए कर्म करो फल की चिंता मत करो। जो यह सिखाती है कि खाली-हाथ आए थे, खाली हाथ जाना है, इसलिए सभी प्रकार से सुखों से वंचित रहो, ताकि स्वर्ग/जन्नत में कई गुना अधिक सुख भोगने मिले। तब तक गुलामी करो, अपने ही देश को लूटने और लुटवाने वालों की जय जय करके सर झुकाकर ज़िंदगी काट लो।
मैं किसानी अवश्य करूंगा लेकिन अपनी शैली में
ऐसा शैली जो पारम्परिक भूखे नंगे, विवश, असहाय किसानी से बिलकुल विपरीत होगी।
संन्यासी होने का अर्थ ही है थोपी हुई व्यर्थ की मान्यताओं, परम्पराओं, कानूनों से विद्रोह करना। संन्यासी होने का अर्थ यह बिलकुल भी नहीं है कि दरिद्रता में जीना है, भुखमरी में जीना है, या फिर माफियाओं और देश के लुटेरों की चापलूसी और गुलामी करना है।
फावड़ा चलाने से यदि मेरे कमर में दर्द हो रहा है, तो मैं मशीनों का प्रयोग करूंगा। क्योंकि मैं कलयुगी संन्यासी हूँ और कलयुगी संन्यासी तकनीकी का उपयोग करेगा ही। फिर चाहे वह स्मार्टफोन हो, चाहे लेपटॉप हो, चाहे पावर टिलर हो, चाहे ट्रैक्टर हो, चाहे अन्य कोई भी अत्याधुनिक तकनीकी हो।
और किसानी से मेरा यह तात्पर्य नहीं कि मुझे कार्पोरेट्स या सरकारों के लिए अनाज उगाकर गोदामों में सड़ाना है। मेरे लिए किसानी मेरी अपनी आजीविका का माध्यम होना चाहिए केवल। मैं कोई व्यावसायिक कृषि करने नहीं निकला हूँ कि लाखों टन अनाज उगाकर विदेशों में निर्यात करना है। मैं केवल उतना ही अनाज, फल और सब्जियाँ उगाना चाहता हूँ, जिससे मैं आत्मानिर्भर हो सकूँ और जब सारी दुनिया मेरे विरुद्ध हो जाएगी, तब भी मैं अपने खेतों में उगाई सब्जियाँ खाकर जीवित रह सकूँ और निर्बाध अपने लेखन के माध्यम से माफियाओं की गुलाम समाज, सरकार और भक्तों पर प्रहार करता रहूँ।
मैं जानता हूँ कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ, उससे सारी दुनिया मेरे विरुद्ध हो जाएगी। इसीलिए मेरा साथ देने वाले भी मेरा साथ छोड़ देंगे। इसीलिए मैं अपने लिए ऐसी भूमि खोज रहा हूँ, जो मेरे अपने नाम पर हो और जिसमें किसी भी पंथ, सम्प्रदाय, पार्टी के नेता या ठेकेदार का हस्तक्षेप न हो।
यदि इतना सबकुछ जानने के बाद भी आप मुझसे जुड़े रहना चाहते हैं, तो स्वागत है। यदि सहयोग करना चाहते हैं तो नीचे डोनेशन बटन पर क्लिक करिए। और यदि दूरी बनाना चाहते हैं तो भी मेरे लिए शुभ ही है।
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️