ये कैसी दोगली दया और करुणा है ?

डायनासोर काल से शाकाहारी समाज मानव प्रजाति को शाकाहारी बनाने का अभियान छेड़ हुए हैं। अब तो स्थिति यह हो गई है कि कुत्ता, बिल्ली से लेकर मछलियों तक को शाकाहारी बनाया जा रहा है।
शाकाहारी लोग तालाबों, झीलों में जाकर मछलियों को आटा खिलाते हैं और सांप दिख जाए तो दूध पिलाते हैं।
संभवतः डायनोसोर्स के लुप्त होने का मुख्य कारण शाकाहारी गुरु और समाज रहा।

बात उन दिनों की है, जब समस्त पृथ्वी पर डायनोसोर्स का वैसा ही साम्राज्य स्थापित था, जैसा आज माफियाओं, लुटेरों और बिकाऊ नेताओं, अभिनेताओं, खिलाड़ियों और पत्रकारों का साम्राज्य स्थापित है। डायनोसोर्स वैसे ही इन्सानों का जीवन नर्क बनाए हुए थे, जैसे आज माफिया और उनके गुलाम शासन, प्रशासन और प्रशासनिक अधिकारी नर्क बनाए हुए हैं जनता का जीवन।
डायनोसोर्स की सेनाएँ और पुलिस आती और इन्सानों का कत्ल-ए-आम करतीं बिलकुल वैसे ही, जैसे आज आदिवासियों का कर रही हैं। वे इन्सानों से घृणा करते थे, क्योंकि इंसान शुद्ध शाकाहारी थे और केवल घास, फूस, दूध, दहि घी खाकर ज़िंदा रहते थे। जबकि डायनोसोर्स शुद्ध मांसाहारी थे और खून बिलकुल वैसे ही पीते थे, जैसे आज की सरकारें पीती हैं जनता का खून।
तो इन्सानों ने एक योजना बनाई कि शाकाहार पर प्रवचन देने का अभियान चलाया जाये। डायनोसोर्स समाज को समझाया जाये कि मांसाहार बहुत बड़ा पाप है और मांसाहार करने वालों को नर्क की आग में जलना पड़ता है, तेल की कढ़ाई में तला जाता है मछली की तरह। मांसाहार से बड़ा पाप दुनिया में और कुछ नहीं। यदि शाकाहारी बन जाओ और फिर पूरे देश को प्रायोजित महामारी से आतंकित कर बंधक बनाकर लूटो, लूटवाओ और चाहे पूरे देश की जनता का सामूहिक बलात्कार करो प्रायोजित सुरक्षा चेपकर, कोई पाप नहीं लगेगा। लेकिन यदि मांसाहार करते हुए पूजा-पाठ, रोज़ा-नमाज, व्रत-उपवास करो या दान, पुण्य करो, तो भी महापाप लगता है और नर्क की आग में जलना पड़ता है।
शाकाहारियों ने डायनोसोर्स को दया, करुणा, नर्क, पाप का इतना प्रवचन सुनाया कि उन्होंने आत्मग्लानि से त्रस्त होकर सामूहिक आत्महत्या कर ली किसी ज्वालामुखी में कूद कर।
मेरा अनुमान है कि इतने लंबे चले अभियान से अब तक 99% मानव जाति शाकाहारी हो चुकी होगी। जो 1% बचे हैं वे भी केवल इसलिए, क्योंकि शाकाहारी समाज की पहुंच के बाहर किसी घने जंगल में छुपे हुए हैं।
अब प्रश्न यह कि हंसदेव जंगल के काटे जाने का विरोध केवल आदिवासी समाज क्यों कर रहा है, शाकाहारी समाज क्यों नहीं ?
क्या हँसदेव जंगल के पेड़ पौधों और उसमें रहने वाले जीवों से प्रेम नहीं इन्हें ?
यदि शाकाहारी समाज ने विरोध किया होता, तो जंगल काटने वाले अब तक रेगिस्तान में जंगल खड़े कर चुके होते।
लेकिन शाकाहारी समाज मौन है ना जाने क्यों ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि शाकाहारी समाज यह सोच रहा है कि जंगल कटने से सब्जियों और फलों के दाम घट जाएंगे ?
दया और करुणा से भरे शाकाहारियों को हंसदेव जंगल पर आश्रित पशु-पक्षियों के बेघर हो जाने या बेमौत मारे जाने से कोई दुःख नहीं। लेकिन मांसाहारियों द्वारा मांस खाने से दुःख पहुंचता है।
शाकाहारियों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले प्लास्टिक और कैमिकल युक्त भोजन के कारण पशु-पक्षियों के मारे जाने से कोई दुःख नहीं, लेकिन मांसाहारियों के द्वारा मांसाहार करने से दुःख पहुंचता है।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा मांस निर्यातक देश बन चुका है, यह देखकर दुःख नहीं पहुंचता। लेकिन मांसाहारियों के द्वारा मांस खाने से दुःख पहुँचता है।
फार्मा कंपनियों द्वारा फार्मा लैब में मासूम, निर्दोष पशु-पक्षियों पर किए जा रहे अत्याचार से कोई दुःख नहीं पहुंचता। लेकिन मांसाहारियों द्वारा मांसाहार करने से दुःख पहुंचता है।
ये कैसे दोगली दया और करुणा है शाकाहारियों की ?
क्यों नहीं आवाज निकलती जंगलों को नष्ट करने वाले माफियाओं के विरुद्ध ?
सत्य तो यह है कि समाज चाहे कोई भी हो, स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को निकृष्ट समझने वाली भीड़ और गिरोह के सिवाय और कुछ नहीं।
समाज ने कभी किसी के लिए कुछ नहीं किया
कहते हैं लोग कि समाज के लिए कुछ करो, तभी समाज कुछ करेगा तुम्हारे लिए।
लेकिन मैंने कभी नहीं देखा समाज ने किसी के लिए कुछ किया हो।
क्या आपने देखा है ?
यदि समाज किसी के लिए कुछ करने योग्य होता, तो समाज में कोई गरीब न होता, कोई शोषित, पीड़ित न होता, माफिया और लुटेरों के हाथों कोई लुट-पिट ना रहा होता। और समाज खड़ा होकर यह ना कह रहा होता कि सब किस्मत का खेल है, जो लिखा है भाग्य में वही मिलेगा।
यदि समाज किसी के लिए कुछ करता होता, तो मंदिरों, मस्जिदों, तीरथों, दरगाहों की आवश्यकताएँ ना होतीं।
यदि समाज किसी के लिए कुछ करता होता, तो दुनिया भर की राजनैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, साम्प्रदायिक, जातिवादी पार्टियों, संगठनों, संस्थाओं और सरकारों की आवश्यकता न होती।
सत्य तो यह है कि समाज किसी के लिए कुछ नहीं करता। समाज केवल तमाशा देखता है, दूसरों की ज़िंदगी को नर्क बनाए रखने के उपाय खोजता है, किस का चक्कर किससे से चल रहा है, कौन किसके घर आ रहा है, कौन किसके घर जा रहा है यह नजर रखता है। राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर चर्चा करता है और फिर माफियाओं और देश के लुटेरों के सामने नतमस्तक होकर चैन की नींद सो जाता है।
यदि आपने कहीं देखा हो समाज को माफियाओं और देश के लुटेरों के विरुद्ध आवाजें उठाते हुए तो मुझे जानकारी अवश्य दीजिएगा। मैंने कभी नहीं सुना या देखा कि समाज ने कभी कोई आवाज उठाई हो अधर्म, अन्याय, अत्याचार के विरुद्ध। जब भी आवाज उठाई है, तो किसी व्यक्ति ने उठाई है और कुछ लोगों ने उस आवाज के साथ आवाज भी मिलाई है। लेकिन उसी का अपना समाज उसके साथ नहीं खड़ा हुआ, बल्कि अत्याचारियों, अधर्मियों के पक्ष में खड़ा होकर उस आवाज को दबाने में सहयोग किया, जो उनके अपने ही समाज के हितों के लिए उठ रहा था।
Support Vishuddha Chintan
