स्वतन्त्रता के विरुद्ध और परतंत्रता के समर्थन में होता है समाज

स्वतन्त्रता और परतंत्रता की परिभाषाएँ भी स्पष्ट नहीं हैं यदि समाज पर नजर डालें। क्योंकि समाज ने परतंत्रता को भी स्वतन्त्रता बिलकुल वैसे ही स्वीकार लिया है, जैसे साम्प्रदायिक द्वेष और घृणा पर आधारित मानसिकता, रीतिरिवाज, मान्यताओं, परम्पराओं, कर्मकाण्डों को धर्म और साम्प्रदायिक द्वेष और आतंक परोसकर शासन करने वालों को धार्मिक मान लिया गया।
सत्य तो यही है कि सही और गलत जैसा कुछ होता नहीं। केवल मानसिक रूप से विक्षिप्त दंगाइयों, उत्पातियों, गुंडे, बदमाशों, लठैतों, हत्यारों की भीड़ जिसके साथ खड़ी दिखाई देती है, वह सही हो जाता है और जिसके साथ कोई नहीं होता, या भीड़ नहीं खड़ी कर पाता, वह गलत हो जाता है।
क्या वास्तव में भीड़ जिस तरफ अधिक होती है, वही सही होता है ?
भीड़ खड़ी करना कोई कठिन कार्य नहीं है। चारा फेंको, फ्री का राशन, पानी, बिजली बांटो, अच्छे दिनों के सपने दिखाओ, 15-15 लाख रुपए का लालच दो, मंदिर बनवाओ, मस्जिद बनवाओ, भंडारा लगाओ….. और भीड़ इकट्ठी हो जाती है जयकारे लगाने के लिए बुद्धि, विवेक गिरवी रखकर। भीड़ को सही और गलत से कोई लेना देना होता नहीं, उसे तो केवल जय-जय करना होता है चारा, दाना, पानी के लालच में।
और ऐसी भीड़ जब धर्म और नैतिकता की दुहाई देती है, तब मुझे बहुत हंसी आती है। जिस भीड़ के पास अपनी विवेक बुद्धि ही नहीं, जिसमें सही और गलत को समझने की योग्यता ही नहीं, वह भीड़ सिखाने निकल पड़ती है क्या सही है क्या गलत कट्टा, छुरा, तलवार, लाठी, डंडे और झंडे लहराते हुए। और समाज में ऐसी भीड़ को धार्मिक माना जाता है। क्योंकि वर्तमान युग में भीड़ ही समाज है और जो भीड़ माफियाओं और देश के लुटेरों के पक्ष में हो, वही सात्विक, नैतिक, धार्मिक समाज माना जाता है।
गुलामों के गिरोह/भीड़ ने अधार्मिकों का ऐसा समाज खड़ा कर लिया, जो दिन-रात लाउड स्पीकर पर अश्लील गाने बजाकर शोर करने को धार्मिक कृत्य और माफियाओं व लुटेरों की चाकरी और गुलामी करने को सौभाग्य मानता है।
आज तो बहुत ही हास्यापद दृश्य देखने मिला। सरस्वती की प्रतिमा रखकर जुलूस निकाला गया, बच्चे जय सरस्वती माँ के नारे लगा रहे थे और लाउड स्पीकर पर राजा खटिया में राति बुलवात बा जैसे अश्लील भोजपूरी गाने चल रहे थे। और समाज मौन तमशा देख रहा था।
समाज मानता है कि शोर मचाने और भीड़ जुटाने से ही धर्म और सात्विक्ता का प्रचार होता है। फिर चाहे अश्लील गाने बजाकर शोर मचाओ, या लौंडिया नचाकर भीड़ जुटाओ।
और लोग चाहते हैं कि ऐसे समाज को सभ्य और धार्मिक समाज मानकर इनकी मूर्खतापूर्ण परम्परा का अनुसरण करूं।
किसी भी जागृत व्यक्ति के लिए असम्भव होता है मूरखों और भेड़ों की भीड़ के साथ कदमताल मिलाकर भेडचाल में चलना। इसलिए मैं अकेले ही रहना पसंद करता हूँ। और वैसे भी मेरी किसी से पटती नहीं और भविष्य में भी किसी से पटने की कोई संभावना नहीं। क्योंकि समाज जिसे सही मानता है, मैं उसे गलत मानता हूँ। समाज जिनकी चापलूसी, चाकरी और गुलामी करने को अपना सौभाग्य मानता है, मैं उसे गलत मानता हूँ। तो स्वाभाविक है मेरी पटरी किसी के साथ बैठने वाली नहीं।
शाकाहारी समाज और मांसाहारी समाज
यदि आप शाकाहारी हैं, तो आप चाहे रिश्वतखोरी करें, चाहे देश के प्राकृतिक संसाधनों और जनता को लूटें, चाहे खेत और जंगलों को हजम कर जाएं, चाहे किसानों और आदिवासियों पर गोलियां बरसाएं, चाहे घोड़ों और मवेशियों की तरह नीलाम हो जाएं… आप मांसाहारियों से श्रेष्ठ ही माने जाएंगे। और स्वर्ग, जन्नत में भी वीवीआइपी कॉलोनी में प्लाट रिजर्व मिलेगा यदि मंदिरों, मस्जिदों, तीर्थों, धार्मिक स्थलों में ईएमआई (चढ़ावा, कमीशन, रिश्वत) ईमानदारी से भरते हैं।
यही कारण है आध्यात्मिक, धार्मिक गुरुओं ने शाकाहार को सर्वोच्च पाप मुक्त आहार माना।
सोशल मीडिया पर तो शाकाहारी प्रजाति के लोगों ने मांसाहारियों को इतना कोसा, इतनी निंदा शुरू कर दी कि सांप, अजगर, शेर, चीता से लेकर, व्हेल, शार्क, डॉल्फिन, मगरमच्छ तक ने शाकाहारी क्लब ज्वाइन कर लिए। अब वे सब भी रोज आलू, सोयाबीन, परमल की सब्जी खाते हैं, देसी गाय का दूध पीते हैं और नियमित सत्यनारायण की कथा सुनते हैं।

सदैव स्मरण रखें: यदि आप मांसाहारी हैं, तो शाकाहारी समाज में चैन से नहीं जी सकते। लेकिन यदि आप शाकाहारी हैं, तो मांसाहारी समाज में 56 इंची सीना चौड़ा करके घूम सकते हैं। क्योंकि मांसाहारी भी जानते हैं कि आप उनसे श्रेष्ठ हैं और स्वर्ग/जन्नत के वीवीआईपी कॉलोनी में आपका प्लाट रिज़र्व है।
समाज चाहे शाकाहारी हो, मांसाहारी हो, अंडाहारी हो, फलाहारी हो, दुग्धाहारी हो, चाहे सौर ऊर्जा पर निर्भर हो, सभी माफियाओं और देश के लुटेरों के गुलाम हैं। ये बच्चे भी पैदा करते हैं, तो माफियाओं की चाकरी और गुलामी करवाने के लिए। इसलिए दुनिया का कोई भी समाज अपने ही देश और जनता को लूटने और लुटवाने वाले माफियाओं के विरुद्ध मुंह नहीं खोल सकता।
यदि किसी गरीब का बच्चा अपने परिवार की सहायता करने के लिए मजदूरी करने लगे या किसी ढाबे या होटल में काम करने लगे, तो गुलामों का समाज कहेगा कि बच्चे का शोषण हो रहा है, बाल मजदूरी कारवाई जा रही है। लेकिन यदि उसी आयु का बच्चा टीवी सीरियल और फिल्म की डबिंग या एक्टिंग का काम कई घंटों तक करे, तो उसे बाल कलाकार कहा जाता है, उसकी जय-जय की जाती है।
क्या फर्क होता है गरीब बच्चे द्वारा किए जा रहे मजदूरी और फिल्म और टीवी जगत के बाल कलाकारों द्वारा की जा रही मजदूरी में ?
क्या कभी देखा है आपने उन्हें किस तनाव और पीड़ा से गुजरते हैं वे बच्चे ?
मैंने देखा है। मैंने देखा है जब माता-पिता बच्चों को लेकर आते थे सीरियल्स की डबिंग करवाने के लिए और बच्चे दस से बारह घंटे तक स्टुडियो में बैठे डबिंग कर रहे होते थे। क्योंकि प्रोड्यूसर को दस से बीस एपिसोड एक दिन में डबिंग करवानी होती थी और माता-पिता को अधिक से अधिक पैसों का लालच होता था। जितना अधिक एपिसोड एक दिन में डब हो जाएगा, उतनी अधिक दिहाड़ी बन जाएगी। क्योंकि पेमेंट एपिसोड के हिसाब से मिलते हैं।
वे बच्चे रो रहे होते थे और हाथ जोड़कर मिन्नते कर रहे होते थे कि बस अंकल अब हमसे नहीं होगा, कल डबिंग करेंगे। कुछ कहते थे कि हमें होमवर्क भी करना है, हम बहुत थक गए हैं, अब हमसे नहीं हो पाएगा। और माता-पिता, प्रोड्यूसर सब मिलकर उन्हें फुसलाते कि बस दो एपिसोड बचे हैं। उसके बाद फ्री हो जाओगे और हम तुम्हें चॉकलेट भी गिफ्ट में देंगे।
यह सब होते हुए मैंने अपनी आँखों से देखा है। लेकिन समाज की नजर में यह सब गलत नहीं है। गलत है किसी गरीब का बच्चा यदि दो वक्त की रोटी के लिए मजदूरी करने लगे।
क्यों पढ़ना चाहिए गरीब के बच्चे को अपना रोजगार छोडकर ?
केवल इसलिए क्योंकि गरीब का बच्चा सैनिक बनेगा, सरकारी अधिकारी बनेगा और फिर अपने ही देश की जनता पर गोलियां बरसाएगा, लाठी भांजेगा मालिकों के आदेश पर। लेकिन यदि गरीब का बच्चा अपना रोजगार खड़ा कर लेगा बचपन में ही, तो फिर माफियाओं को गुलाम कहाँ से मिलेंगे ? कौन किसानों और आदिवासियों पर लाठी और गोली बरसाएगा ?
तो शिक्षित होने का अर्थ केवल इतना ही समाज की नजर में कि अब वह नीलाम होने वाले घोड़े, खिलाड़ी, और विधायकों की तरह महत्वपूर्ण हो गया। जितनी ऊँची कीमत में बिकेगा, उतनी शान बढ़ेगी परिवार की समाज में।
और यही कारण है कि समाज आज परतंत्रता को स्वतन्त्रता से अधिक महत्व देता है। यदि कोई स्वतन्त्र जीवन जीना चाहता है, तो समाज ही उसके विरुद्ध खड़ा हो जाता है।
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