अकेले होने से ज्यादा सुंदर कुछ भी नहीं है
समाधि का दूसरा चरण है : अकेले होने का बोध। अकेले होने से ज्यादा सुंदर कुछ भी नहीं है।
मैंने सुना है कि किसी देश में, किसी गरीब माली के घर में, बहुत से सुंदर फूल खिले थे। सम्राट तक खबर पहुंच गई थी। सम्राट भी प्रेमी था फूलों का। उसने कहा, मैं भी आऊंगा। कल सुबह जब सूरज ऊगेगा , तो तेरी बगिया में फूल देखने मुझे भी आना है।
माली ने कहा, स्वागत है आपका।
दूसरे दिन सुबह सम्राट पहुंचा। वजीरों ने कहा था, मित्रों ने कहा था, हजारों फूल खिले हैं। लेकिन जब सम्राट पहुंचा तो बहुत चकित रह गया — सारे बगीचे में बस एक डंठल पर एक ही फूल था !
सम्राट ने माली से कहा, मैंने तो सुना था बहुत फूल खिले हैं। वे सब फूल कहां हैं ?
तो वह माली हंसने लगा, उसने कहा, भीड़ में सौंदर्य कहां ! एक को ही बचा लिया है। क्योंकि सुना है जानने वालों से कि अकेले के अतिरिक्त और सौंदर्य कहीं भी नहीं।
पता नहीं वह सम्राट समझा या नहीं समझा, लेकिन निश्चित ही वह माली केवल फूलों का माली न रहा होगा, वह आदमियों का भी माली रहा होगा। जीवन में जो भी सुंदर है वह अकेले में ही खिलता है, फूलता है, सुगंधित होता है। जीवन में जो भी श्रेष्ठ है वह सब अकेले में पैदा हुआ है। भीड़ ने कुछ भी महान को जन्म नहीं दिया — न कोई गीत, न कोई सौंदर्य, न कोई सत्य, न कोई समाधि। नहीं, भीड़ में कुछ भी पैदा नहीं हुआ है। जो भी जन्मा है, एकांत में, अकेले में जन्मा है।
लेकिन हम अकेले होते ही नहीं। हम सदा भीड़ में घिरे हैं। या तो बाहर की भीड़ से या भीतर की भीड़ से घिरे हैं। भीड़ से हम छूटते ही नहीं, क्षण भर को अकेले नहीं
होते। इसलिए जो भी महत्वपूर्ण है जीवन में, वह चूक जाता है।
समाधि में तो केवल वे ही जा सकते हैं, जो बाहर की ही भीड़ से नहीं, भीतर की भीड़ से भी मुक्त हो जाते हैं, बस अकेले रह जाते हैं। निपट अकेले, टोटली अलोन, कुछ है ही नहीं। बस अकेला हूं, अकेला हूं, अकेला।
सत्य भी यही है। अकेले ही जन्मते हैं, अकेले ही मरते हैं, अकेले ही होते हैं, लेकिन भीड़ का भ्रम पैदा कर लेते हैं कि चारों तरफ भीड़ है। उस भीड़ के बीच इस भांति खो जाते हैं कि कभी पता ही नहीं चलता कि मैं कौन हूं।
तो दूसरा चरण है। अकेले हो जाने का भाव। पांच मिनट तक हम अकेले हो जाने का भाव करेंगे।
आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। आंख बंद कर लें, शरीर को ढीला छोड़ दें। एक मिनट तक अंधकार का भाव करें: चारों ओर अंधकार ही अंधकार है, अनंत अंधकार है.’ अंधकार, अंधकार, अंधकार।
न कुछ दिखाई पड़ता, न कुछ सूझता, बस अंधकार ही अंधकार है। कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता – लेकिन मैं हूं, अंधकार है और मैं हूं, और मैं बिलकुल अकेला हूं।
न कोई संगी है, न कोई साथी है। अकेला हूं, बिलकुल अकेला हूं। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। श्वास-श्वास में, शरीर के रोएं-रोएं में, मन के कोने-कोने में, बस एक ही भाव बैठ जाने दें: मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। और जैसे-जैसे यह भाव गहरा होगा, वैसे-वैसे अपूर्व शांति जन्मने लगेगी, भीतर सब शांत हो जाएगा।
मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं। न कोई संगी, न कोई साथी, रास्ता सूना है, निर्जन है, अंधकार है और मैं अकेला हूं, मैं अकेला, मैं अकेला हूं, पांच मिनट के लिए बिलकुल अकेले हो जाएं .मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, में अकेला हूं ……
मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं.. मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं… मन बिलकुल शांत हो गया है, मन बिलकुल शीतल और शांत हो गया है… मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं ……
मन शांत हो गया है, मन बिलकुल शांत हो गया है, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया … मैं अकेला हूं .. डूब जाएं, बिलकुल डूब जाएं, अंधेरा है, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं… कोई नहीं, कोई नहीं, कोई संगी नहीं, साथी नहीं, मैं अकेला हूं, और अकेले होते-होते सब शांत हो जाता है ……
मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया, मन बिलकुल शांत हो गया.. मन शांत हो गया, मन शांत हो गया, मन शांत हो गया… मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं.. मैं अकेला हूं .मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं.. और जैसे-जैसे अकेले हो जाएंगे, वैसे-वैसे ही शांत हो जाएंगे…श्वास-श्वास शांत हो गई है, रोआं-रोआं शांत हो गया है, मन शांत हो गया है…मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, में अकेला हूं.. देखें भीतर देखें, सब कैसा शांत हो गया, सब कैसा शांत हो गया। इस अकेले होने को ठीक से पहचान लें, समाधि का दूसरा चरण है।
ठीक से पहचान लें , यह अकेला होना क्या है ?
यह अकेले होने की शांति क्या है। मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं, मैं अकेला हूं…और मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है, मन शांत हो गया है…।
अब धीरे-धीरे आंख खोलें .जैसी शांति भीतर है, वैसी ही शांति बाहर है। और जो भीतर अकेला होना पहचान ले, वह फिर बाहर की भीड़ में भी अकेला है। देखें, आंख खोलें, बाहर देखें… कितने लोग हैं चारों ओर, लेकिन फिर भी मैं तो अकेला हूं… धीरे-धीरे आंख खोलें, देखें, कितने लोग हैं चारों ओर, फिर भी मैं तो अकेला हूं।
* ओशो *
समाधि के द्वार पर / प्रवचन २
समाधि के तीन चरण से संकलित ।