समाज सेवा जैसी मूर्खतापूर्ण कार्य मैं नहीं करता

संन्यास लेने के बाद जो सबसे बड़ा बदलाव मेरे भीतर हुआ, वह यह कि अब मुझे समाज मे रुचि नहीं। अब मुझे किसी के घर जाने से, किसी उत्सव, किसी सभा, किसी सत्संग में जाने पर आनन्द की अनुभूति नहीं होती।
सच तो यह है कि अब मुझे किसी से मिलकर, किसी से बात करने पर भी कोई खुशी नहीं होती। अब केवल एकांत में रहना, अपने में मस्त रहना, लिखना, पढ़ना अच्छा लगता है।
लोग कहते हैं समाज के लिए कुछ करो। लेकिन जो समाज गरीबों, असहायों, पीड़ितों के लिए कुछ नहीं करता, उसके लिए भला कोई क्या कर सकता है ?
जो समाज देश के लुटेरों और माफियाओं के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकता, उस समाज के लिए भला कोई क्यों करेगा कुछ भी ?
फिर प्रश्न यह उठता है कि कुछ करना ही क्यों है ?
जो लोग कर रहे हैं, वे सब कर क्या रहे हैं ?
सभी अपने लिए ही तो जी रहे हैं, अपने लिए ही कर रहे हैं और अपने में मस्त हैं। लेकिन ढोंग कर रहे हैं कि वे परिवार के लिए कर रहे हैं, समाज के लिए कर रहे हैं, देश के लिए कर रहे हैं।
और जो वास्तव में दूसरों के लिए कर रहा है, वह बेचारा ना घर का ना घाट का। धोबी का गधा बनकर रह जाता है और कोल्हू के बैल की तरह कमाता रहता है दूसरों के लिए। अपने लिए कभी जी ही नहीं पाता। और जब बूढ़ा हो जाता है, तो किसी कोने में पड़ा रहता है, या वृद्धाश्रम में छोड़ दिया जाता है या फिर लावारिस मवेशियों की तरह सड़कों पर भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है।

कहाँ गायब हो जाता है समाज तब जब कोई बूढ़ा-लाचार व्यक्ति सड़कों पर भटक रहा होता है, भीख मांग रहा होता है या फिर मजदूरी कर रहा होता है ?
जिस समाज पर गर्व करते हो, वह समाज कहाँ गायब हो जाता है, जब कोई किसान गरीबी, भुखमरी और कर्ज की मार से आत्महत्या कर लेता है ?
कहाँ गायब हो जाता है समाज जब एक भाई दूसरे भाई की संपत्ति हथियाने का षड्यंत्र करता है, या एक रिश्तेदार अपने ही किसी रिश्तेदार की भूमि हथिया लेता है ?
समाज कहीं नजर नहीं आता, जब माफिया और देश के लुटेरे समाज और देश को लूट और लुटवा रहे होते हैं।
क्या आपको कहीं नजर आता है समाज ?
मुझे तो कहीं नजर नहीं आता समाज ऐसे समय पर। हाँ समाज नामक भीड़ अवश्य नजर आती है तब, जब कोई ईशनिन्दा कर दे, मोहम्मद की तस्वीर या कार्टून बना दे, धार्मिक ग्रंथ को फाड़ दे, किसी दड़बे की लड़की किसी अन्य दड़बे के लड़के के साथ भागकर शादी कर ले। बाकी समय कहीं दिखाई देता है समाज ?
कहते हैं विद्वान लोग कि गैरजिम्मेदार व्यक्ति पशु समान होता है।
तो फिर गैर जिम्मेदार समाज और सरकार किसके समान होते हैं ?
यदि समाज का कोई अस्तित्व होता, तो कोई भूखा ना मर रहा होता, कोई पीड़ित, शोषित ना हो रहा होता, कोई माफिया, कोई लुटेरा सामाजिक प्राणियों का शोषण ना कर रहा होता, लूट या लुटवा ना रहा होता। लेकिन सत्य तो यही है कि समाज का कोई आस्तित्व ही नहीं है।
अब तो समाज, पंथ, संप्रदाय, संगठन, पार्टी के नाम पर केवल मवेशियों, बत्तखों की भीड़ मात्र है जो अपनी ही बरबादी पर थाली, ताली बर्तन बजाकर नाचती है। जो लूटने और लुटवाने वालों की चाकरी, चापलूसी और गुलामी करके स्वयं को धन्य मानती है।
इसलिए समाज सेवा जैसी मूर्खतापूर्ण कार्य मैं नहीं करता। इसीलिए मैं समाज नामक भीड़ से दूर रहना ही पसंद करता हूँ। एकांत में रहना, अपने में मस्त रहना पसंद करता हूँ।
फोन भी उन्हें करता हूँ, जो मेरे सुख दुःख में काम आते हैं, मुझे समझते हैं। बाकी सभी से दूरी बनाए रखना ही पसंद करता हूँ।
~ विशुद्ध चैतन्य
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