प्राचीन भोजन परंपरा और आधुनिक विकसित समाज

प्राचीनकाल में जब हम छोटे बच्चे हुए करते थे, तब भोजन बड़े सम्मान से सजा कर खिलाने की प्रथा थी। घर की स्त्रियाँ भोजन बड़ी रुचि से बनाया करती थीं और बनाते समय सभी की पसंद का ध्यान भी रखा करती थीं। फिर भोजन सुपाच्य हो इसलिए हींग, दालचीनी, तेजपत्ता आदि का प्रयोग करना नहीं भूलती थीं।
भोजन में ना केवल उनकी मेहनत होती थी, बल्कि उनके स्नेह भी समाहित होता था। इसीलिए चाहे पराँठे बनें हों, या पकौड़े। खीर या दालफ्राई….. सभी कुछ सहजता से हजम हो जाता था।
लेकिन आधुनिक युग में जब हम विकसित हो चुके हैं, वैज्ञानिक सोच के हो चुके हैं… तो वैसे भोजन इतिहास बन गया। अबकी पढ़ी-लिखी स्त्रियों को मैगी बनाना तो आता है, लेकिन वैसा भोजन बनाना नहीं आता। और कई घरों में उतने प्रेम से भोजन भी नहीं परोसा जाता, जितने प्रेम से ज़ोमेटो, स्वीगी, माँ की रसोई और ढाबे वाले परोसते हैं।
परिणाम यह हुआ कि घर जैसा भोजन करना हो तो होटल जाना पड़ता है। और ऊपर से स्वास्थ्य विशेषज्ञ इतने सारे परहेज बता रहे हैं कि कुछ वर्षों बाद ऐसी सजी हुई भोजन की थाली भी देखने नहीं मिलेगी।
क्योंकि लोग भोजन ही त्याग देंगे और टैबलेट्स, कैप्सूल, इंजेक्शन लेना शुरू कर देंगे। तब थाली में भोजन की बजाए टैबलेट्स, कैप्सूल, इंजेक्शन सजा कर परोसा जाएगा।
और जो लोग इनसे भी एडवांस हो चुके होंगे, वे सीधे सोलर/इलेक्ट्रिक चार्जर से चार्ज हुआ करेंगे। उनके लिए होटल/रेस्टोरेन्ट में विशेष चार्जर वाली कुर्सियाँ लगी होंगी।
दुनिया इतनी तेजी से विकास कर रही है कि ना जाने कब सरकार घोषणा कर दे कि जो भी दाल-भात, रोटी-सब्जी खाता दिखाई दे, उसे महामारी से ग्रस्त घोषित करके उसके पेट से सारी आँतें निकालकर अदानी/अंबानी/मोदी छाप सोलर बैटरी फिट करवाओ। ताकि भोजन जैसा अनहाइजेनिक पदार्थो का सेवन करके अपना पेट और स्वास्थ्य खराब न कर सके।
तब भी लोग छुप-छुप कर भोजन किया करेंगे। जिन्होंने बैटरियाँ लगवा ली हैं वे बिलकुल वैसे ही इतरा कर घूमेंगे, जैसे प्रायोजित सुरक्षा कवच ले चुके लोग घूम रहे हैं। और जिन्होंने नहीं लिया, उन्हें बड़ी दयनीय नजर से देखेंगे और कहेंगे कि तुम लोग गंवार के गंवार ही रहोगे। विज्ञान ने इतनी तरक्की कर ली और तुम लोग अभी तक दाल, भात, रोटी, सब्जी खा रहे हो ?
यह हास्य और व्यंग्य के माध्यम से लिखी गई कल्पना हमें सोचने पर मजबूर करती है कि क्या सच में आधुनिकता के चक्कर में हमने अपनी मूलभूत परंपराओं और सजीवता को खो दिया है? क्या हम इतना “एडवांस” हो चुके हैं कि हमें यह भी याद नहीं रहता कि भोजन केवल शरीर का ईंधन नहीं, बल्कि आत्मा का पोषण भी है?
~ विशुद्ध चैतन्य
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