मैंने साधु-समाज को बहुत निकट से देखा है

लोग मेरा भगवा देखकर सीधे रामायण, गीता, वेदों की बातें करने लगते हैं। भले इन ग्रन्थों को कभी पढ़ा न हो, केवल कुछ किस्से कहानियाँ पढ़ या सुन ली कहीं से और चले आते हैं वाद-विवाद करने। और जब मैं कहता हूँ कि इन सब विषयों में मेरी कोई रुचि नहीं, तो उन्हें बड़ा आश्चर्य होता है कि कैसा साधू है जो वेद-पुराण, गीता, रामायण पर चर्चा करना नहीं चाहता ?
यह सत्य है कि मेरी रत्तीभर भी रुचि नहीं है इन ग्रन्थों पर चर्चा करने में, क्योंकि ये ग्रंथ तो उन्हें भी इंसान नहीं बना पाये, जो इनके प्रकांड विद्वान बने बैठे हैं, जिन्हें से सारे ग्रंथ कंठस्थ हो रखे हैं, जो यही सब बाँच कर आजीविका कमा रहे हैं। मैंने साधु-समाज को बहुत निकट से देखा है और जाना कि साधु-समाज भी बाकी सभी समाजों की तरह पूँजीपतियों, माफियाओं और लुटेरों का गुलाम है, उनके सामने नतमस्तक रहकर उनकी चाकरी और गुलामी करता है, उनके अन्याय, अत्याचार, शोषण और लूटपाट के विरुद्ध आवाज नहीं उठा सकता।
और जो माफियाओं और देश के लुटेरों के सामने नतमस्तक हो जाये, वह स्वयं सिद्ध कर देता है कि धार्मिक ग्रंथ उसके सर के ऊपर से निकल गए, भले वह धार्मिक ग्रन्थों का प्रकांड विद्वान ही क्यों ना हो। ऐसे विद्वानों की स्थिति उन आईएएस, आईपीएस, वकील, जज की तरह होती है, जो कानून के विशेषज्ञ होते हैं, लेकिन चाकरी और गुलामी करते हैं देश को लूटने और लुटवाने वाले माफियाओं और पूँजीपतियों की।
समाज पर ही नजर डाल लीजिये ?
समाज में कहीं दिखता है नैतिकता, धार्मिकता, देशभक्ति, सदाचार ?
सभी व्यापार में लिप्त हैं, धन कमाने में लिप्त हैं और व्यापार में सब जायज है।

शास्त्रों में लिखा है कि यदि आपके पास आवश्यकता से अधिक धन है, तो दान करिए। लेकिन लोग दान पर आश्रित लोगों को भिखारी कहकर दुतकारते हैं, अपमानित करते हैं।
आज से जब भी कभी किसी संन्यासी से प्रश्न करने का मन करे कि हट्टे-कट्टे होते हुए भी दान या भीख पर क्यों आश्रित हो, तो पहले स्वयं से प्रश्न करें कि हट्टे-कट्टे, पढे-लिखे होते हुए भी देश के लुटेरों और माफियाओं की चाकरी और गुलामी क्यों करते हो ?
प्रश्न करिए स्वयं से कि ईमान, ज़मीर, जिस्म बेचकर परिवार पालना किस धर्मग्रंथ या शास्त्र, या गुरु ने सिखाया है ?
आज ऐसा कोई भी वेतन और पेंशन भोगी नहीं है इस जगत में, जो माफियाओं और देश के लुटेरों का चाकर या गुलाम न हो, जिसने अपना ईमान, ज़मीर, जिसम गिरवी न रखा हो आजीविका कमाने के लिए। जिसने आँख, कान, मुंह बंद रखकर माफियाओं और देश के लुटेरों का सहयोगी बनना ना स्वीकारा हो….. फिर वह नीलामी में बिकने वाला खिलाड़ी हो, विधायक हो, या फिर चंद रुपयों में तमाशा दिखाने वाला अभिनेता/अभिनेत्री हो, या फिर सरकारी जांच एजेंसी का अधिकारी, कर्मचारी ही क्यों न हो।
प्रश्न करिए स्वयं से कि ईमान, ज़मीर, जिस्म बेचकर माफियाओं और देश के लुटेरों की चाकरी करना श्रेष्ठ है या फिर दान या भीख आश्रित किन्तु माफियाओं और लुटेरों की चाकरी या गुलामी से मुक्त स्वतंत्र जीवन जीना श्रेष्ठ है ?
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️
Support Vishuddha Chintan
