संन्यास: सामाजिक मान्यताओं और परम्पराओं का बंधन है या स्वतंत्रता ?
क्या आपने कभी सोचा है कि जीवन में हम कितनी चीजों के लिए दूसरों पर निर्भर रहते हैं?
कितनी बार हमारे अपने ही शुभचिंतक और हितैषी हमारे निर्णयों के कारण दूर हो जाते हैं?
पिछले साल 3 नवंबर को मैंने भी ऐसा एक कदम उठाया – आश्रम छोड़कर गाँव के एक साधारण घर में रहने का निर्णय लिया, जो ना तो मंदिर है, ना तीर्थ, और ना ही मठ।
शुरुआत में बहुत से लोग साथ थे, आर्थिक सहयोग भी कर रहे थे। लेकिन जैसे-जैसे लोगों को पता चला कि मैं गाँव के साधारण घर में रह रहा हूँ, लोगों ने धीरे-धीरे दूरी बनानी शुरू कर दी। इस दीवाली पर शुभकामनाओं के संदेश भी कम आए। पहले की तरह शुभचिंतक अब नहीं थे, जो मुझे सोचने पर मजबूर कर गया: क्या वाकई हमारे रिश्ते इतनी जल्दी बदल सकते हैं?
भ्रम का टूटना: क्या सच में अच्छा लेखक हूँ मैं ?
मुझे भ्रम था कि मैं लिखना जानता हूँ। लेखन के ज़रिये समाज की सच्चाई को उजागर करने की कोशिश करता था, गलत को गलत कहता था। लेकिन लोगों ने बताया कि लिखना छोड़ दो, क्योंकि तुम्हारा लिखा कई लोगों को बुरा लग जाता है। कहते हैं कि साधु-संन्यासी को शिकायत नहीं करनी चाहिए, जो मिले उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए। फिर, मान मिले या अपमान, उन्हें सहनशील होना चाहिए। लेकिन क्या सहनशीलता का अर्थ आत्म-स्वीकृति का त्याग है?
संन्यास: क्या यह सामाजिक मान्यताओं और परम्पराओं का बंधन है या स्वतंत्रता ?
मेरा मानना है कि संन्यास का अर्थ थोपे गए मान्यताओं और परम्पराओं से परे होना है। यह समाज द्वारा बनाए गए बंधनों को तोड़ना है। कोई अन्य व्यक्ति तय नहीं कर सकता कि संन्यासी को कैसा होना चाहिए; यह निर्णय तो संन्यासी स्वयं करता है। यदि समाज के ढांचों में ही ढलना होता, तो मैं भी हरिद्वार या काशी में साधु-संन्यासियों की भीड़ का हिस्सा होता।
महर्षि रमण का संदेश: जीवन का सच्चा सार
महर्षि रमण कहते हैं, “समाज से तिरस्कृत होने पर व्यक्ति दार्शनिक बनता है, शासन से प्रताड़ित होने पर विद्रोही, परिवार से उपेक्षित होने पर महात्मा और स्त्री से अनासक्त होने पर देवता बनता है।” लेकिन क्या इसके लिए इंतजार करना आवश्यक है कि समाज हमें ठुकराए या परिवार हमें त्यागे? हम अभी जाग सकते हैं। संकल्प करने की ज़रूरत है, कि हम इस माया से मुक्त होना चाहते हैं और यथार्थ को देखना चाहते हैं।
सत्य की ओर चलने का साहस: समाज का सम्मान या आत्म-सम्मान ?
समाज का सम्मान केवल तब तक मिलता है, जब तक आप उनके अनुसार चलते हैं। जैसे ही आप उनकी आवश्यकताओं के बाहर कदम रखते हैं, वे आपको छोड़ देते हैं। यही समय होता है सच्चाई का सामना करने का – माया और रिश्तों के दिखावे से मुक्त होकर अपने सच्चे आत्म की पहचान करने का।
आप सभी से एक सवाल पूछता हूँ: क्या आप सच्चाई के इस मार्ग पर चलने का साहस रखते हैं? क्या आप समाज के बंधनों से मुक्त होकर स्वयं के संकल्पों पर चलने का निर्णय कर सकते हैं?