सामाजिक शिष्टाचार और वास्तविकता का अंतर

कैसे हैं आप?
जब भी किसी व्यक्ति से मिलते हैं, पहला प्रश्न यही होता है, “कैसे हैं आप? क्या हाल हैं आपके ?” और उत्तर सामान्यतः यही मिलता है, “मैं बिलकुल ठीक हूं। ईश्वर की कृपा है।”
लेकिन क्या यह संवाद हमारी वास्तविकता को दर्शाता है?
प्रश्न करने और उत्तर देने वाले दोनों जानते हैं कि यह केवल सामाजिक शिष्टाचार है। ना तो प्रश्न पूछने वाला यह जानना चाहता है कि आप वास्तव में कैसे हैं, और ना ही उत्तर देने वाला अपनी वास्तविक स्थिति बताना चाहता है। ऐसे प्रश्न करने वाले का उद्देश्य आपकी वास्तविक समस्याओं को जानना नहीं, बल्कि बातचीत शुरू करना है।
समाज का व्यवहारिक पहलू
ऐसा क्यों है?
क्योंकि अधिकांश लोग यह जानते हैं कि:
- सुनने वाला आपकी समस्या हल नहीं कर सकता।
- उसकी अपनी समस्याएं ही इतनी बड़ी हैं कि वह दूसरों की समस्या का बोझ उठाने में सक्षम नहीं है।
फिर भी, एक-दूसरे का हालचाल पूछने की प्रथा सदियों से चली आ रही है। इसे बनाए रखना शायद सामाजिक सामंजस्य और शिष्टता का अंग बन गया है। लेकिन, क्या यह प्रथा हमारी वास्तविकता का प्रतिबिंब है?
सामाजिक शिष्टाचार और वास्तविकता का अंतर
आजकल यह प्रश्न और इसका उत्तर केवल औपचारिकता मात्र बनकर रह गए हैं। ना प्रश्न पूछने वाला सच में जानना चाहता है कि आप कैसे हैं, और ना ही उत्तर देने वाला सच बताने का इच्छुक होता है। यह मात्र एक शिष्टाचार है, जिसे निभाना हमारी आदत बन चुकी है।
गहराई से विचार करें तो यह व्यवहार हमारी सामाजिक शिष्टाचार का अंग है। हम एक-दूसरे से हाल-चाल पूछते हैं, लेकिन यह पूछने और उत्तर देने के पीछे भावनात्मक जुड़ाव या सहयोग की भावना अक्सर नहीं होती।
क्या इसे बदला जा सकता है?
शायद नहीं। यह हमारी संस्कृति और सामाजिक शिष्टाचार का अंग है। लेकिन आप इतना जरूर कर सकते हैं कि यदि कोई आपका हाल पूछे, तो यह सुनिश्चित करें कि क्या वह व्यक्ति आपके वास्तविक उत्तर पाने का अधिकारी है ?
यदि नहीं, तो औपचारिकता निभाएं। और यदि हां, तो खुलकर चर्चा करें।
परिवार और समाज में वास्तविक हितैषी कौन है?
कहते हैं लोग सोशल मीडिया आभासी दुनिया है, यहाँ बनने वाले सम्बन्ध वास्तविक नहीं होते। लेकिन मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि सोशल मीडिया पर ही नहीं, आपके अपने परिवार, समाज में भी बहुत कम लोग होते हैं जो वास्तव में आपके हितैषी, शुभचिंतक और सहयोगी होते हैं। और सत्य तो यही है कि कोई आपका अपना होता ही नहीं, सभी अपने लिए इस दुनिया में आए हैं। सभी निर्भर हैं दूसरे पर निहित स्वार्थों के कारण, इसीलिए परिवार, समाज, पार्टी, संगठन, सरकारों का गठन होता है। यदि स्वार्थ न हो, तो ना कोई परिवार होगा, ना कोई समाज होगा, न संगठन होगा, न सरकारें होंगी।
सच्चाई यह है:
- कोई भी वास्तव में आपका अपना नहीं होता।
- हर व्यक्ति अपने स्वार्थों को पूरा करने के लिए ही दूसरों के साथ संबंध बनाता है।
- परिवार, समाज, पार्टी, संगठन, और सरकार—यह सब स्वार्थ के कारण ही अस्तित्व में हैं।
यदि स्वार्थ ना हो, तो न कोई परिवार रहेगा, न कोई समाज, और न ही कोई संगठन।
आपका भी व्यवहार ऐसा ही होता है।
आप भी किसी के नहीं होते, यदि आपका व्यक्तिगत कोई स्वार्थ सिद्ध न हो रहा हो। या फिर कोई ईश्वरीय प्रेरणा आपको प्रेरित नहीं करती किसी की सहायता या सेवा करना करने के लिए।
- हम किसी की मदद या सेवा तभी करते हैं, जब हमें उससे कोई व्यक्तिगत लाभ की उम्मीद होती है।
- सैनिक भी अपने देश के लिए बलिदान तभी देता है, जब उसे यह भरोसा हो कि मरणोपरांत उसके परिवार को सम्मान और आर्थिक सुरक्षा मिलेगी।
भ्रम और वास्तविकता
अधिकांश लोग इस भ्रम में रहते हैं कि किसी बड़े समाज, संगठन, या समूह से जुड़ने से उन्हें अधिक सुरक्षा और सहायता मिलेगी।
लेकिन वास्तविकता यह है:
- बड़े-बड़े संगठन और समाज के सदस्य भी शोषण, अत्याचार, और भ्रष्टाचार का शिकार होते हैं।
- वे आर्थिक और सामाजिक रूप से सुरक्षित महसूस नहीं करते।
- यहां भी हाल-चाल पूछना केवल औपचारिकता बनकर रह जाता है।
अपना दुःख और समस्याएं साझा करना
माना जाता है कि दुःख को साझा करने से मन हल्का हो जाता है। परंतु मेरा अनुभव ऐसी मान्यताओं के विपरीत है।
- जब आप अपना दुःख किसी ऐसे व्यक्ति को बताते हैं, जो आपकी भावनाओं को नहीं समझता या आपकी समस्या को हल करने में सक्षम नहीं है, तो यह दुःख बढ़ाने का कारण बन सकता है।
- कई बार आपका दुःख उपहास का कारण भी बन जाता है। लोग आपकी तकलीफ को गंभीरता से नहीं लेते और इसे दूसरों के सामने मजाक में प्रस्तुत कर देते हैं। लोगों का सहानुभूति दिखाना केवल एक औपचारिकता होती है।
इसलिए मेरा मानना है कि अपनी समस्याओं या दुःखों को केवल उन्हीं लोगों से साझा करें:
- जो आपके प्रति गहरा जुड़ाव रखते हों।
- जिनके मन में आपके लिए प्रेम और सम्मान हो।
- जो आपकी समस्या का निदान करने में सक्षम हों।
व्यर्थ का आश्वासन
बहुत बार लोग सहानुभूति के शब्द कहकर हमें सांत्वना देते हैं:
- “सब ठीक हो जाएगा।”
- “भगवान पर भरोसा रखो।”
- “समय के साथ सब सुधर जाएगा।”
हालांकि, इन शब्दों से मन को थोड़ी देर के लिए राहत मिल सकती है, लेकिन वास्तविकता यह है कि इससे समस्या हल नहीं होती। जीवन के कई वर्ष केवल आश्वासन सुनते-सुनते बीत जाते हैं।
क्या करना चाहिए?
- आत्ममंथन करें और अपनी समस्याओं को गहराई से समझें
सबसे पहले यह सुनिश्चित करें कि क्या आप अपनी समस्या को स्वयं हल कर सकते हैं ? यदि उत्तर हाँ में है, तो आत्म-निर्भर बनें और समाधान पर काम करें। - सही व्यक्ति का चयन करें।
अपनी समस्याएं साझा करने के लिए ऐसे व्यक्ति का चयन करें, जिनसे आप वास्तव में जुड़ाव महसूस करते हैं, जो वास्तव में आपकी स्थिति को समझे और मदद कर सके। - अपनी सीमाएं समझें।
हर किसी से सहायता या सहानुभूति की आशा करना आपको और अधिक निराश कर सकता है। इसीलिए जब भी कोई समस्या हो, तो सोच-समझकर ही इसे साझा करें। - व्यक्तिगत जीवन को खुली किताब बनाने से बचें:
हर किसी को अपनी निजी जिंदगी में झांकने का अधिकार न दें। आपका दुःख और आपकी समस्याएँ केवल आपके लिए महत्वपूर्ण है, दूसरों के लिए नहीं।

दिखावे से बचें
हमारी दुनिया में अधिकांश सम्बन्ध व्यापारिक हो गए हैं। लोग आपसे तभी तक जुड़े रहना पसंद करते हैं, जब तक उन्हें आपसे कोई लाभ प्राप्त हो रहा हो, या आप उनके इशारों पर नाच रहे हों। जब ऐसा नहीं होता तो सम्बन्ध भी समाप्त हो जाते हैं। इसलिए दिखावों और आडंबरों से बचें।
एक सच्चाई यह भी है:
- हम जो कुछ भी करते हैं, वह अपने हितों को ध्यान में रखकर करते हैं।
- जब कोई व्यक्ति आपके हाल-चाल पूछे, तो यह तय करें कि वह वास्तव में जानना चाहता है या यह महज औपचारिकता है।
निष्कर्ष: अपना हाल खुद संभालें
“हाल चाल ठीक-ठाक है”—यह वाक्य जितना साधारण लगता है, उतना ही गहरा है।
सच्चाई यह है कि:
- हर व्यक्ति अपनी समस्याओं में उलझा हुआ है।
- सामाजिक शिष्टाचार और वास्तविक भावनाओं के बीच का अंतर समझना जरूरी है।
- अपने हाल का ध्यान रखना और स्वयं पर निर्भर रहना सर्वश्रेष्ठ जीवन शैली है।
समाज का मूल सत्य:
- सम्बन्ध और संगठन स्वार्थ पर आधारित होते हैं।
- दिखावे और औपचारिकता से बचते हुए आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करें।
- अपनी समस्याओं के निदान के लिए दूसरों से अपेक्षा रखने की बजाय स्वयं कोई उपाय खोजें।
सरल, सहज जीवनशैली, सच बोलने का साहस और समझदारी से उसे साझा करने की कला ही जीवन को संतुलित बनाती है।
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️
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