धर्म, धम्म और आध्यात्म में क्या अंतर है ?
धर्म क्या है ?
विभिन्न ग्रन्थों, विद्वानों ने धर्म की अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं। किसी के लिए धर्म कर्तव्य है, तो किसी के लिए धर्म आचरण है, तो किसी के लिए धर्म स्वभाव है, तो किसी के लिए धर्म गुण है।
ओशो कहते हैं धर्म विद्रोह है।
लेकिन मैं कहता हूँ कि धर्म वह आचरण है, वह व्यवहार है, वह गुण है जो स्थान, परिस्थिति और आवश्यकता पर निर्भर होता है। उदाहरण के लिए हिंसा करना अधर्म है। लेकिन आत्मरक्षा के लिए हिंसा करनी पड़े, अपने परिजनों, अपनी भूमि, अपनी संपत्ति की रक्षार्थ हिंसा करनी पड़े, तो वह धर्म है।
लुटेरों और माफियाओं का साथ देना अधर्म है। लेकिन यूपीएससी टॉप करने के बाद आईएएस, आईपीएस जैसे उपाधि या संवैधानिक रूप से स्वीकृत लाइसेन्स प्राप्तकर लुटेरों और माफियाओं की सेवा, सहयोग करना धर्म है।
जुआ खेलना या खिलवाना, वेश्यावृति करना या करवाना अधर्म है। लेकिन सरकारी लाइसेन्स प्राप्त कर लेने बाद धर्म हो जाता है।
रिश्वत लेना या देना अधर्म है। लेकिन आधुनिक युग में रिश्वत लेना और देना सामान्य व्यावहारिक धर्म है।
यदि हम आधुनिक समाज, सरकार और डिग्रिधारियों के आचरण को अलग कर दें, तो पाएंगे कि धर्म और धम्म में कोई अंतर नहीं है। अर्थात जो अधर्म नहीं है, वह धर्म है। जिस व्यवहार, आचरण, कर्म से दूसरों के साथ-साथ स्वयं को भी सुख, प्रसन्नता की अनभूति होती है, वह धर्म है। जिस कर्म या अचारण से किसी निर्दोष प्राणी का अहित ना होता हो, जिससे निर्बल, निर्धन व्यक्ति का कल्याण होता है, जिससे कोई बेघर ना होता हो, जिससे प्राकृतिक सम्पदाओं का दुरुपयोग ना होता हो, वह धर्म है।
धम्म क्या है ?
ऑस्ट्रेलिया के एक बौद्ध भिक्षु का इंटरव्यू सुना, पत्रकार भिक्षु से पूछता है कि कोई अगर आपकी पवित्र पुस्तक त्रिपिटक को फाड़कर शौचालय के कमोड में फेंक दे तो आप क्या करेंगे ?
बौद्ध भिक्षु ने उत्तर दिया कि मैं सबसे पहले प्लम्बर को फोन करूंगा ताकि नाली चोक न हो जाए। इस पर पत्रकार को हंसी आती है।
दूसरा प्रश्न पूछता है कि बामियान में बुद्ध प्रतिमाएं नष्ट कर दी गईं, इस पर आप क्या कहेंगे ?
बौद्ध भिक्षु ने कहा कि धम्म(धर्म) न तो मूर्तियों में है और न ही प्रेस पर छपी किताबों में है। धम्म हमारे दिलों में और हमारे व्यवहार में जब तक जिंदा है तब तक किताबों को फाड़ने से कुछ नहीं होता है,किताब हम दुबारा छपवा लेंगे, मूर्तियां नई बना ली जाएंगी लेकिन अगर हम अपने आचरण और अपने दिलों में धम्म को खो देते हैं और किताबों,मूर्तियों को बचा लेते हैं तो कोई फायदा नहीं है। तब केवल मूर्तियां और किताबें रह जाएंगी, धम्म खो चुका होगा,उसके प्राण खो चुके होंगे।
सभी धर्मों हिंदू, सिख,ईसाई आदि को इसे समझने की जरूरत है। हमारी धार्मिक किताबो का अपमान हो गया, हम सब देश जला देंगे, क्योंकि हमारा शास्त्र प्रेम और शांति का संदेश देता था… तब हम अपनी किताब की रक्षा के लिए प्रेम और शांति को नष्ट कर देते हैं और उस किताब को बचा लेते हैं, जिसमे प्रेम और शांति का संदेश लिखा था…
अशोक ने दूसरे तथा सातवें स्तंभ-लेखों में ‘धम्म’ की व्याख्या इस प्रकार की है, “धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया-दान तथा शुचिता।” आगे कहा गया है कि, “प्राणियों का वध न करना, जीवहिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मण तथा श्रवणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार और दास तथा भृत्यों के प्रति उचित व्यवहार।”
ब्रह्मगिरि शिलालेख में इन गुणों के अतिरिक्त शिष्य द्वारा गुरु का आदर भी धम्म के अंतर्गत माना गया है।
अशोक के अनुसार यह पुरानी परम्परा (पोराण पकिति) है।
तीसरे शिलालेख में अशोक ने अल्प व्यय तथा अल्प संग्रह का भी धम्म माना है। अशोक ने न केवल धम्म की व्याख्या की है, वरन् उसने धम्म की प्रगति में बाधक पाप की भी व्याख्या की है—चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, मान और ईर्ष्या पाप के लक्षण हैं। प्रत्येक व्यक्ति को इनसे बचना चाहिए। अशोक ने नित्य आत्म-परीक्षण पर बल दिया है। मनुष्य हमेशा अपने द्वारा किए गए अच्छे कार्यों को ही देखता है, यह कभी नहीं देखता कि मैंने क्या पाप किया है। व्यक्ति को देखना चाहिए कि ये मनोवेग—चंडता, निष्ठुरता, क्रोध, ईर्ष्या, मान—व्यक्ति को पाप की ओर न ले जाएँ और उसे भ्रष्ट न करें।
आध्यात्म क्या है ?
आध्यात्म व्यक्तिगत विषय है, जबकि धर्म/मजहब/पंथ/मार्ग/पार्टी/संगठन/समाज/सरकार…. आदि सभी भीड़ है भेड़ों की, जिन्हें कुछ मुट्ठीभर लुटेरे और माफिया हाँकते हैं कुर्सी, सत्ता, शोषण और दोहन के लिए।
सदियों से यह भ्रांति (भ्रम) या कहें अंधविश्वास बनाकर रखा गया है लुटेरों और माफियाओं ने कि झुण्ड में बड़ी शक्ति होती है, झुण्ड में रहोगे तो सुरक्षित रहोगे, भीड़ में रहोगे तो सुरक्षित रहोगे। और यदि देखा जाये भौतिक दृष्टि से तो भीड़ में सुरक्षा मिलती भी है छोटे-मोटे चोर-उचक्कों से।
लेकिन बड़े-लुटेरे और माफियाओं से सुरक्षा नहीं मिलती। क्योंकि वे पूरे समाज, पूरे संगठन, पूरी संस्था, पूरी सरकार को खरीदकर गुलाम बना लेते हैं उनके ठेकेदारों, अधिकारियों, उत्तराधिकारियों को।
इसे ऐसे समझिए कि किसी पराक्रमी योद्धा या किसी महान स्वतन्त्रता सेनानी के नाम पर कोई एक दड़बा या बाड़ा बनाया गया। उसमें बहुत सी भेड़ों, बकरियों, गाय, भैंसों और बत्तखों को यह कहकर कैद किया गया कि हमारे दड़बे में रहने वालों को स्वर्ग मिलता है, जन्नत मिलता है, अप्सराएँ और हूरें मिलती हैं, शराब और दूध की नदियां मिलती हैं और वह सारे ऐश्वर्य मिलते हैं जो पृथ्वी पर जीते जी कभी नहीं मिल सकते।
अब सारे मवेशी, बत्तख बाड़े में स्वेच्छा से कैद हो जाते हैं। और फिर उन बाड़ों पर उन मवेशियों और बत्तखों को स्वर्ग और जन्नत भेजने के लिए पहले उनके बाल काटे जाते हैं, खाल निकाली जाती है….. और फिर बाकी आपको पता ही है क्या-क्या होता है।
अब मरने वाले तो लौटकर बता नहीं सकते कि उन्हें स्वर्ग मिला है या नर्क, जन्नत मिला या दोज़ख ?
लेकिन उन्हें स्वर्ग, जन्नत भेजने वाले ठेकेदार जीते जी ऐश्वर्य भोगते हैं। और जो दड़बे से बाहर निकलना चाहता है, या भेड़ों को समझाता है कि दड़बों से बाहर निकलो, ठेकेदार उन्हें धर्म, समाज और देश का दुश्मन घोषित कर बहिष्कार या हत्या करवा देते हैं।
तो दड़बों, बाड़ों और ठेकेदारों द्वारा थोपी गयी खोखली मान्यताओं, परम्पराओं से स्वयं को मुक्त कर लेना ही आध्यात्म है। मवेशियों, ज़ोम्बियों और बत्तखों की भीड़ से स्वयं को मुक्त कर लेना ही संन्यास है। साम्प्रदायिक द्वेष और घृणा से मुक्त हो जाना ही सनातन धर्मी होना है।
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️