चक्रवर्ती सम्राट और सुमेरु पर्वत

जैन शास्त्रों में एक बड़ी प्यारी कथा है। तुमने चक्रवर्ती शब्द सुना होगा, लेकिन ठीक-ठीक शायद उसका अर्थबोध तुम्हें न हो।
चक्रवर्ती का अर्थ होता है: वह व्यक्ति जो छहों महाद्वीपों का सम्राट हो, सारी पृथ्वी का। जिसका राज्य कहीं भी समाप्त न होता हो, जिसके राज्य की कोई सीमा न हो, जिसका चक्र पृथ्वी के चारों तरफ घूमता हो। तो चक्रवर्ती सम्राट बड़ी मुश्किल से कोई हो पाता है। बड़ी मुश्किल से। करीब-करीब असंभव है मामला।
एक व्यक्ति चक्रवर्ती सम्राट हो गया। और चक्रवर्ती सम्राटों के लिए जैन शास्त्रों में ऐसा कहा है कि चूंकि वे इतना महान कार्य कर लेते हैं, उनके लिए एक विशेष सुविधा मिलती है जो किसी को नहीं मिलती। जब वे स्वर्ग जाते हैं तो स्वर्ग में मेरु पर्वत है–जैन शास्त्रों की पुराणकथा है–सुमेरु है। वह पर्वत सच में ही अचल है।
इस पृथ्वी के पर्वत तो कहने को ही अचल हैं। आज हैं, कल नहीं हो जाते हैं। पृथ्वी के पर्वत भी नहीं हो जाते हैं। जमीन पर बहुत से नए पर्वत पैदा हो गए हैं, पुराने पर्वत विदा हो गए हैं। विंध्याचल सबसे पुराना पर्वत है। उसकी कमर झुक गई है, वह बूढ़ा हो गया है, वह मर रहा है–मरणशय्या पर पड़ा है। और हिमालय अभी बच्चा है। अभी बढ़ रहा है, अभी बड़ा हो रहा है। रोज थोड़ा-सा ऊपर उठ रहा है। हर साल कोई एक फिट ऊपर उठ जाता है। अभी विकासमान है। विंध्याचल सबसे पुराना पर्वत है, हिमालय सबसे नया। एक दिन विंध्याचल समाप्त हो जाएगा। महाद्वीप उभरे और विदा हो गए, पहाड़ों की क्या गिनती!
अटलांटिस कभी बड़ा महाद्वीप था। उसकी बड़ी सभ्यता थी। विराट सभ्यता थी। लेकिन अब तो अटलांटिस कहीं भी नहीं है। अटलांटिक महासागर है। पूरा का पूरा महाद्वीप खो गया अतल सागर में। आज भी सागर की गहराइयों में उसके अवशेष मौजूद हैं।
इस पृथ्वी पर तो हम कामचलाऊ रूप से कहते हैं कि पर्वत अचल हैं; वे भी चलते हैं। वे भी गिरते हैं, उठते हैं। वे भी बच्चे होते हैं, जवान होते हैं, बूढ़े होते हैं। लेकिन स्वर्ग में वह जो सुमेरु पर्वत है जैन शास्त्रों का, वह अडिग है, अचल है। वह जैसा है वैसा ही है। चक्रवर्ती सम्राट को उस पर हस्ताक्षर करने का अवसर मिलता है। वह हर किसी को नहीं मिलता।
तो यह एक व्यक्ति चक्रवर्ती सम्राट हो गया। इसके आनंद का ठिकाना न रहा। बस, इसके जीवन में एक ही आकांक्षा थी कि सुमेरु पर्वत पर हस्ताक्षर कर दूं–क्योंकि और कहीं भी हस्ताक्षर करो तो मिट जाएंगे। अरे, पर्वत ही खो जाएगा तो हस्ताक्षर कहां बचेंगे! पानी पर हस्ताक्षर करो, जल्दी मिट जाते हैं, पहाड़ पर करोगे, थोड़ी देर में मिटेंगे–मगर मिटेंगे जरूर। देर-अबेर की बात है।
यह सम्राट बड़ा प्रसन्न था–मरणशय्या पर भी प्रसन्न था। पूछा भी किसी ने कि आप इतने प्रसन्न हैं, क्या बात? तो उसने कहा, बस, एक ही आकांक्षा थी, वह अब पूरे होने के करीब आ रही है, कि सुमेरु पर हस्ताक्षर कर सकूंगा। उस पर किए हस्ताक्षर कभी नहीं मिटते। मिटते ही नहीं, क्योंकि सुमेरु ही नहीं मिटता है।
वजीर हंसा। सम्राट ने कहा, तुम क्यों हंसते हो? उसने कहा कि अभी कहूंगा तो समझ में न आएगा। लेकिन सुमेरु पर्वत पर पहुंच कर समझ में आ जाएगा कि मैं क्यों हंसा था।
एक पहेली हो गई! सम्राट मरा, मगर वह पहेली उसे याद रही। वजीर हंसा था। क्यों हंसा था? सुमेरु पर्वत पर जाकर राज खुलेगा। सुमेरु पर्वत के द्वार पर पहरेदारों ने कहा कि रुकिए, आप अकेले ही भीतर जा सकते हैं। वह ले गया था अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को, अपने मित्रों को। वे सब उसके साथ मरे थे। उनके मरने का इंतजाम किया गया था।
क्योंकि अकेले क्या मजा कि तुमने सुमेरु पर हस्ताक्षर किए। अरे, अपने वाले मौजूद न हों, कोई देखने वाला ही न हो, पत्नी देख न सकेगी कि पति सुमेरु पर हस्ताक्षर कर रहा है, तो क्या मजा! बच्चे न देख सकें, मित्र न देख सकें! तो ले गया होगा मित्रों को, बच्चों को, अखबार वालों को, फोटोग्राफरों को, जनसंपर्क अधिकारियों को–ले गया होगा! मगर पहरेदार ने कहा कि आप अकेले ही जा सकेंगे, इन सबको बाहर ही छोड़ना होगा। यह नियम है।
उसे बड़ा दुख हुआ। उसने कहा, यह कैसा नियम! जीवन भर मेहनत की, सारा जीवन बर्बाद किया सिर्फ इस आशा में कि दिखा दूंगा! जिनको दिखाना है उनको बाहर छोड़ दूं! कृपा करो, जाने दो!
वह पहरेदार हंसा। वह हंसी ठीक वैसी ही थी जैसी वजीर की। वजीर की याद आ गई। पूछा सम्राट ने पहरेदार से, हंसते क्यों हो? उसने कहा कि जब तुम पहुंचोगे सुमेरु पर्वत पर तो तुम्हें समझ आ जाएगा। मगर मेरी मानो, मत आग्रह करो इनको ले जाने का, नहीं तो पीछे पछताओगे।
जब उसने यह कहा तो सम्राट अकेला ही गया लेकर छैनी-हथौड़ा, क्योंकि सुमेरु पर नाम खोदना है। और जाकर चकित हो गया! तब वजीर की हंसी भी समझ में आ गई, तब पहरेदार की हंसी भी समझ में आ गई, तब यह बात भी समझ में आ गई कि अच्छा हुआ मैंने पहरेदार की बात मान ली और अपने संगी-साथियों को साथ न लाया, नहीं तो बड़ी भद्द हो जाती!
और वजीर क्यों हंसा? बूढ़ा होशियार था। और पहरेदार ने क्यों रोका? यह नियम उचित है। मामला यह था कि वह–सुमेरु पर्वत तो बड़ा पर्वत था; न ओर न छोर; विराट था, अंतहीन था–लेकिन उस पर जगह ही न थी जहां हस्ताक्षर करो!
इतने हस्ताक्षर हो चुके थे, इतने चक्रवर्ती सम्राट पहले हो चुके थे! खोज-खोज मर गया, जगह न मिले! सोच कर तो गया था बड़े-बड़े अक्षरों में हस्ताक्षर करूंगा, ऐसे कि किसी ने भी न किए हों, मगर जगह ही न थी। लौट कर पहरेदार से पूछा कि क्या करूं? वहां तो कोई जगह ही नहीं है!
पहरेदार ने कहा कि मेरे पिता भी यहां पहरेदार का काम करते थे, उनके पिता भी यहां पहरेदार का काम करते थे, उनके पिता भी–यह हमारा वंशानुगत काम है। और यह हमेशा हुआ है, यह कोई नई बात नहीं है। जहां तक मुझे याद है, जहां तक मेरे पिता को याद था, उनके पिता को याद था, जब भी कोई चक्रवर्ती आया, यही झंझट खड़ी हुई कि वहां जगह नहीं। और उपाय एक ही है कि तुम पुराने कुछ नाम पहले साफ कर दो और अपना नाम लिख दो। यही होता रहा है। पुराने नाम साफ करने पड़ते हैं और नया नाम लिखना होता है।
सम्राट के हाथ से हथौड़ी और छैनी गिर गई। उसने कहा, वजीर ठीक हंसा था। तो क्या मतलब हुआ! आज मैं हस्ताक्षर करके जाऊंगा, कल कोई मेरे नाम को पोंछ कर हस्ताक्षर करेगा। कल कोई लिख गया है, उसका नाम मैं पोंछूंगा और हस्ताक्षर करूंगा। मजा ही जाता रहा।
मगर कितने अकड़ते हैं लोग! पद पर होते हैं तो कैसे अकड़ जाते हैं! पैर जमीन नहीं छूते, पंख लग जाते हैं। होश ही नहीं रह जाता। पद जैसी बेहोशी लाता है, कोई चीज और नहीं लाती। धन क्या पास हो, दीवाने हो जाते हैं। जैसे सब पा लिया!
और सब यहीं पड़ा रह जाएगा; कुछ साथ न जाएगा, “जब बांध चलेगा बंजारा’। सब यहीं पड़ा रह जाएगा। और सारी मेहनत जो इसे जुटाने में गई, पानी में गई। पानी पर लकीरें खींच रहे हैं लोग। पानी पर हस्ताक्षर कर रहे हैं लोग।
इतनी कूटनीति, इतनी चालबाजी, इतनी बेईमानी, और हाथ क्या लगेगा? यह कच्ची दीवार! और अभी उड़े! अभी वक्त आ जाएगा! अभी खबर आती होगी कि बस समय समाप्त हुआ, कि अब चलो, कि यमदूत द्वार पर आकर खड़े हो गए! चार दिन की जिंदगी में कितना धोखा देते हो! कितनी बेईमानी करते हो! और क्या पा लेते हो! हाथ क्या लगता है! कुछ भी तो हाथ नहीं लगता।
हां, चालबाजियों में कुछ गंवा जरूर देते हो। वह जो सरलता लेकर आए थे जगत में, वह गंवा देते हो।
सरलता का प्रतीक है हंस। शुभ्रता का, शुक्लता का। इसलिए जब कोई ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है, उसे हम परमहंस कहते हैं।
वह पुनः बच्चे की भांति सरल हो गया। जैसे बच्चा होता है, कोरी किताब की तरह, जिस पर अभी कुछ लिखा नहीं गया है, वैसा चित्त हंस कहा जाता है। इसको पुनः पा लेना परमहंस की अवस्था है।
– ओशो
लगन महुरत झूठ सब-(प्रश्नोंत्तर)-प्रवचन-02
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