प्राचीन दिवाली: जब भारत सोने की चिड़िया था

कई हजार वर्ष पुरानी बात है। उन दिनों भारत को “सोने की चिड़िया” कहा जाता था, क्योंकि यहाँ समृद्धि और सुख की कोई कमी नहीं थी। ऐसा लगता था मानो यह सोने के पिंजरे में बंद कोई शांति से सोती हुई चिड़िया हो।
देश की प्रजा इतनी खुशहाल और संपन्न थी कि जीवन में न कोई झंझट थी और न ही कोई चिंता। लोग जीवन के किसी भी तनाव से मुक्त होकर दिन बिता रहे थे। न तो किसी को कान्वेंट स्कूल में जाने की ज़रूरत थी, न ही किसी को अंग्रेजी पढ़ने-लिखने का विचार आता था। उस समय न कोई यूपीएससी, नीट जैसी कठिन परीक्षाओं की तैयारी करता था, न बेरोजगारों का कोई संघ होता था। हर व्यक्ति जीवन के सुखद पल का आनंद उठा रहा था, किसी के पास कोई काम नहीं था, केवल आराम ही आराम था।
इसलिए जब भी कोई उत्सव आता था, सभी लोग मिलजुल कर उसे मनाते थे। घर की मिठाइयाँ घर पर ही बनती थीं, जिन्हें हर घर में बाँटने का रिवाज था। दिवाली के मौके पर गरीब से गरीब व्यक्ति को भी भरपेट भोजन मिलता था, किसी के भी पेट खाली नहीं रहते थे।
परिवर्तन की आंधी
लेकिन फिर एक दिन भारत का भाग्य बदला और उसने सोने के पिंजरे से स्वतंत्रता प्राप्त की। आजादी के बाद उसे समझ में आया कि पढ़ाई-लिखाई और मेहनत-मजदूरी कितनी महत्वपूर्ण है। इसके बाद सारा भारत शिक्षा और रोजगार की दिशा में अग्रसर हुआ। धीरे-धीरे हर व्यक्ति ने डिग्रियाँ और डिप्लोमा प्राप्त करने का लक्ष्य बना लिया।
देखते ही देखते, भारत की जीडीपी भी उन्नति की ओर बढ़ने लगी, और यहाँ की पारंपरिक धोती-कुर्ता की जगह अमेरिकी पेंट-शर्ट, जींस, और टी-शर्ट ने ले ली। धीरे-धीरे हमारी संस्कृति भी बदलती चली गई। आज भारतीय संस्कृति कोट-पेंट, जींस-टी-शर्ट, और बरमूडा तक सीमित हो गई है। अब यहाँ तक कि संस्कृति की रक्षा करने वाले भी जींस और टी-शर्ट पहनकर धर्म और संस्कृति के नाम पर सड़कों पर निकलते हैं।
आधुनिकता का प्रभाव
आज के समय में घर में मिठाइयाँ नहीं बनतीं और ना ही गाँव में बाँटी जाती हैं। अब लोग दिवाली पर केवल सोशल मीडिया के माध्यम से मिठाई और पटाखों के स्टिकर्स भेजते हैं। स्टिकर्स से ही एक-दूसरे का मुँह मीठा कराया जाता है।
जिनका जन्म 19080 से पहले हुआ है, उन्होंने वह समय जरूर देखा होगा जब घर-घर में मिठाइयाँ बनती थीं और उन्हें गाँव में जाकर बाँटना पड़ता था। लेकिन अब हम आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के युग में प्रवेश कर चुके हैं, तो शायद आने वाले समय में मिठाई भी कृत्रिम ही खानी और खिलानी पड़ेगी।

यह लेख उन सुनहरे दिनों की याद दिलाता है जब भारतीय समाज में एकता और अपनापन हुआ करता था। आज आधुनिकता के इस दौर में हमारे त्योहार और परंपराएं तो वहीं हैं, परंतु उनके मनाने का तरीका और उनके प्रति हमारे दृष्टिकोण में बहुत अंतर आ गया है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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