परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है – ठहराव का नहीं
प्रकृति सदैव नवीनता को अपनाती है, जबकि अक्सर धार्मिक लोग पुरातन चीजों में आस्था रखते हैं। प्रकृति का नियम है कि यदि कुछ नया, बेहतर, या उन्नत संभव है तो वह पुराने को मिटाकर नया रचती है। चाहे वह डायनासौर जैसे विशालकाय जीवों का विलुप्त होना हो या मंगल ग्रह को निर्जीव करके पृथ्वी को सजीव बनाना हो। यह सतत प्रयोगशीलता और गतिमयता का प्रमाण है।
इसी प्रकार यदि हम समाज, सभ्यताओं, और मान्यताओं पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि जो ठहर जाते हैं, वे नष्ट हो जाते हैं। भारतीय दर्शन में वैराग्य, त्याग और दान पर बहुत बल दिया गया है, क्योंकि यह समाज के सतत विकास और चक्र को चलायमान रखने में सहायक है। इस चक्र के कारण ही भारत में कभी चोरी-डकैती नगण्य थी और लोग बिना ताले के घरों में रहते थे। त्याग और दान का उद्देश्य केवल इतना था कि समाज के आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को मदद मिल सके, और समाज में समृद्धि और संतुलन बना रहे।
जब हम आज की धार्मिक मान्यताओं पर दृष्टि डालते हैं, तो देखते हैं कि वे अक्सर कठोर और अपरिवर्तनीय हो चुकी हैं। अफगानिस्तान में बुद्ध प्रतिमाओं का ध्वंस हो या इराक में ऐतिहासिक स्मारकों का नाश, यह उन मान्यताओं के ठहराव का ही लक्षण है। इन घटनाओं से स्पष्ट होता है कि जिनकी सोच ठहर चुकी है वे पीछे लौटना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें भविष्य का भय है। प्रकृति, जो सतत परिवर्तनशील है, किसी को भी पीछे लौटने का अवसर नहीं देती।
सनातन धर्म इसी सतत परिवर्तन और विकास का प्रतीक है। यह किसी मानव द्वारा निर्मित धर्म न होकर वह स्वाभाविक नियम है, जिसे सभी जीव-जंतु स्वाभाविक रूप से अपनाते हैं। यह धर्म शेर, अजगर, और प्रकृति के अन्य जीवों के व्यवहार में दिखाई देता है, जहां वे केवल अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही हिंसा करते हैं। मनुष्य ने भी इन नियमों को समझा और सभ्यता के विकास में उनका उपयोग किया। परंतु, दुर्भाग्य से आज वही शास्त्र, जो मार्गदर्शन के लिए थे, कठोर नियमों का रूप ले चुके हैं, और समाज का नैतिक पतन होते देखा जा सकता है।
हम जब ठहराव की स्थिति में पहुँच जाते हैं तो समाज में व्यभिचार, शोषण, आतंकवाद जैसे विकार उत्पन्न होने लगते हैं। जैसे ठहरा हुआ पानी जीवाणुओं को जन्म देता है और अंततः मृत हो जाता है, उसी प्रकार ठहराव की स्थिति समाज में बीमारी का रूप ले लेती है। यह आवश्यक है कि हम आत्मावलोकन करें और उस ठहराव से बाहर निकलें, जो समाज की रुग्णता का कारण बन चुका है।
अब समाज को स्वयं तय करना है कि वे इस व्यवस्था को पुनः गतिमान कैसे बना सकते हैं। क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें और अपनी संस्कृति को ठहराव में धकेल दें, या फिर कुछ ठोस कदम उठाएँ, ताकि समाज स्वस्थ हो सके?