दीपावली: दीयों का त्यौहार या शोर-शराबे का ?
उत्सवों का उद्देश्य होता है हर्षोल्लास के साथ पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धों को सशक्त बनाना, प्रेम और आनन्द बाँटना और साथ दरिद्रों को भोजन और वस्त्र दान करना।
दान करने का मुख्य उद्देश्य होता है अपनी समृद्धि का अहंकार न हो जाये, इसलिए कुछ अंश दूसरों को बाँटकर उन्हें भी अपनी प्रसन्नता में सम्मिलित करना।
लेकिन जब उत्सवों का उद्देश्य स्वार्थ और साम्प्रदायिक द्वेष और घृणा का प्रचार-प्रसार करना हो जाता है, तब सारा समाज ही अंधा हो जाता है। वह दूसरों का अहित करने के लिए इतना आतुर हो जाता है कि सही और गलत देख पाने में अक्षम हो जाता है।
यही कारण है कि उत्सवों में जब साम्प्रदायिक द्वेष और घृणा से भरे लोगों का जुलूस निकलता है, तब दंगा-फसाद होता है, लूट-पाट से लेकर हत्याएं तक हो जाती हैं।
मेरी समझ में कभी नहीं आता कि जब कोई सम्प्रदाय अपना सामाजिक उत्सव मना रहा होता है, तब दूसरों के धार्मिक स्थलों पर उत्पात करना अनिवार्य क्यों हो जाता है ?
जिद है शोर मचाने की, परिणाम चाहे जो हो
प्रतिवर्ष दिवाली पर पटाखों का शोर होता है, प्रदूषण होता है और प्रतिवर्ष सरकारें पटाखों पर प्रतिबन्ध लगाने का ढोंग करती है। लेकिन पटाखे चलाये जाते हैं, प्रदूषण होता है।
चूंकि दीवाली पर पटाखों के जलाने से प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है, अधिकारियों ने कई शहरों में पटाखों के उपयोग पर प्रतिबंध लगाया, लेकिन फिर भी लोग इसे जलाने से नहीं चूके। दिल्ली के अलावा, मुंबई और चेन्नई जैसे मेट्रो शहरों में भी खराब हवा की स्थिति देखी गई। मौसम की ठंडी स्थिति और हवा की धीमी गति के कारण इन क्षेत्रों में स्मॉग बना रहा, जिससे प्रदूषण स्तर सामान्य से अधिक रहा।
इस वर्ष प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए सड़कों की पानी से सफाई और वाहनों के उत्सर्जन को नियंत्रित करने जैसे कदम उठाए गए थे, लेकिन दीवाली पर पटाखों का व्यापक उपयोग प्रदूषण बढ़ाने में सहायक रहा।
दिवाली 2024 के बाद भारत के कई प्रमुख शहरों में वायु गुणवत्ता में भारी गिरावट देखी गई। दिल्ली में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) 400 के करीब रहा, जिससे इसे “खतरनाक” श्रेणी में रखा गया। हरियाणा का करनाल 471 AQI के साथ सबसे प्रदूषित शहर था, और अन्य शहर जैसे मुरादाबाद, रामपुर, संभल, और पिलीभीत भी उच्च प्रदूषण स्तर पर थे। इन शहरों में AQI स्तर 400 से ऊपर था, जो स्वास्थ्य सम्बन्धी गंभीर दुष्परिणामों का कारक है।
ऊपर से डीजे के शोर से ध्वनि प्रदूषण प्राणघातक स्तर तक बढ़ जाता है। कई दुर्घटनाएँ भी हो चुकीं ध्वनि प्रदूषण के कारण। फिर भी स्वयं को धार्मिक, सभ्य और सात्विक मानने वाले पढ़े-लिखों ने बुद्धि-विवेक का प्रयोग करना उचित नहीं समझा। वे तर्क देते हैं कि ध्वनि प्रदूषण से साल में एक बार परेशानी होती है बुजुर्गों और बच्चों को। लेकिन वे ही बुजुर्ग और बच्चे पारिवारिक कलह से पूरे साल परेशान रहते हैं। और जब पारिवारिक कलह साल भर झेल सकते हैं, तो फिर एक दो दिन का शोर सहन नहीं करते ?
ऐसे तर्कों को सुनकर यही लगता है कि या तो इन्होंने अपनी विवेक-बुद्धि बेच खाई है, या फिर आनुवांशिक मानसिक रोग से ग्रस्त हैं।
पटाखों का आविष्कार और भारतीय संस्कृति
दिवाली पर पटाखे चलाने के समर्थकों को पता ही नहीं है कि श्रीराम का स्वागत पटाखों से नहीं किया था, क्योंकि तब तक पटाखों का आविष्कार ही नहीं हुआ था। पटाखों का आविष्कार चीन में हुआ था। माना जाता है कि पटाखों का उपयोग पहली बार लगभग 200 ईसा पूर्व किया गया था। शुरुआत में, चीनी लोग बांस की टहनियों को आग में डालते थे, जिससे उनमें धमाका होता था। इसके बाद, 9वीं शताब्दी के आसपास चीनी वैज्ञानिकों ने बारूद (गनपाउडर) का आविष्कार किया और इसका उपयोग पटाखों में करना शुरू किया। इस तरह, चीन में ही आधुनिक पटाखों की नींव रखी गई। जो बाद में विभिन्न देशों में फैल गई और आज दुनिया भर में मनोरंजन और उत्सवों में पटाखों का व्यापक रूप से उपयोग होता है।
जबकि श्री राम का स्वागत अयोध्यावासियों ने लगभग 5114 ईसा पूर्व किया ऐसा माना गया है। अर्थात पाँच हज़ार वर्षों तक पटाखों के बिना दिवाली मनाते रहे हैं।
दिवाली पर पटाखों का चलन
पटाखों का उपयोग भारत में लगभग 15वीं-16वीं शताब्दी के आसपास शुरू हुआ माना जाता है, जब बारूद (गनपाउडर) भारत में आया। माना जाता है कि मुगल काल के दौरान भारत में पटाखों का इस्तेमाल बढ़ा और धीरे-धीरे उत्सवों का हिस्सा बन गया। इसके बाद दिवाली जैसे त्योहारों में पटाखों का उपयोग लोकप्रिय हो गया, क्योंकि इसे बुरी आत्माओं को भगाने और खुशी व्यक्त करने का प्रतीक माना जाने लगा।
इस प्रकार, दिवाली पर पटाखों का चलन 16वीं शताब्दी के आसपास या इसके बाद धीरे-धीरे शुरू हुआ और आधुनिक दिवाली समारोह का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया।
अपनी संस्कृति और मूल्यों का पुनः आकलन
अब आप ही बताइये कि पटाखे भी हमारे अपने देश की खोज नहीं है। लाने वाले भी वही लोग हैं जिनसे घृणा करते हैं दिवाली मनाने वाले वे लोग, जो मस्जिदों में हनुमान चालीसा पढ़ने और भगवा झण्डा फहराने जाते हैं विदेशी कपड़े पहनकर। अर्थात कपड़े भी अपने नहीं, लेकिन निकल पड़ते हैं धर्म और संस्कृति की रक्षा करने विदेशी संस्कृति को ओढ़कर। क्या ऐसा करके हम अपने धर्म और संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं ?
बड़े दुःख की बात है कि आज के समय में कई लोग बिना यह समझे कि ये त्यौहार किस उद्देश्य से मनाए जाते हैं, परंपराओं का विकृत रूप अपनाए हुए हैं। विदेशों से आए उत्पादों का उपयोग करते हुए भी ये लोग धर्म और संस्कृति की रक्षा का दावा करते हैं। क्या वास्तव में ये शोर-शराबा और प्रदूषण हमें अपनी जड़ों से जोड़ता है, या फिर हमें और अधिक अलग करता है?