पारंपरिक संन्यास और नवसंन्यास में अंतर क्यों है ?

संन्यास, एक ऐसा शब्द है जिसे हम सभी ने सुना है, लेकिन क्या हम सच में इसके अर्थ को समझ पाए हैं? क्या संन्यास का केवल एक ही रूप होता है, या फिर इसे समझने के कई दृष्टिकोण हो सकते हैं? पारंपरिक संन्यास और नवसंन्यास में अंतर समझने के लिए हमें पहले संन्यास की सही परिभाषा जाननी होगी।
संन्यास और धर्म का वास्तविक स्वरूप
धर्म, भी एक ऐसा शब्द है जो कई रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। पर क्या धर्म केवल धर्म ही होता है, या फिर मानव ने समय के साथ उसे विभाजित कर दिया है? आज तक मानव ना तो धर्म को पूरी तरह समझ पाया है, और ना ही संन्यास के सही अर्थ को। धर्म और संन्यास के नाम पर जो कुछ राजनीतिज्ञ और समाज के ठेकेदार हमें परोस रहे हैं, वही हम बिना प्रश्न किए स्वीकार लेते हैं।
आजकल अगर किसी ने संन्यास लिया, तो तुरंत समाज यह सिखाने लगता है कि संन्यासी को कैसा होना चाहिए। हम समाज और सरकार के बारे में, राजनेताओं और धर्म के ठेकेदारों के बारे में शायद कभी प्रश्न नहीं उठाते, लेकिन संन्यासी को लेकर सभी के पास एक धारणा होती है कि वह कैसा होना चाहिए।
ओशो से संन्यास की सही परिभाषा
मैंने संन्यास की सही परिभाषा ओशो से समझी। जब तक ओशो को नहीं पढ़ा था, तब तक संन्यास का सही अर्थ मुझे भी नहीं पता था। मैं भी अपने समाज की तरह पारंपरिक संन्यास को ही वास्तविक संन्यास मानता था। लेकिन ओशो को पढ़ने और समझने के बाद मुझे यह एहसास हुआ कि संन्यास का मतलब समाज द्वारा थोपे गए मान्यताओं और परंपराओं से मुक्त होना है।
वास्तविक संन्यास, अपने जीवन को स्वतंत्रता और स्वविवेक के आधार पर जीने का नाम है। यह संन्यास हमें अपने आंतरिक शांति और संतुलन की ओर ले जाता है, जबकि पारंपरिक संन्यास सिर्फ बाहरी आचार-व्यवहार से जुड़ा होता है।
समाज का विरोध और संन्यास का रूपांतरण
समाज कभी नहीं चाहेगा कि व्यक्ति जागृत हो जाए। इसलिए उसे विभिन्न प्रपंचों में उलझाए रखता है। माफिया और उनकी गुलाम सरकारों को जागृत व्यक्ति से भय होता है, क्योंकि जागृत व्यक्ति उन कुरीतियों और अव्यवस्थाओं को चुनौती देता है जो समाज और सरकार ने बनाए हैं।
वह प्रश्न उठाता है कि अगर प्रायोजित महामारी शादी-ब्याह की दावतों में जा सकती है, तो राजनीतिक रैलियों और शराब के ठेकों में क्यों नहीं?
वह यह सवाल करता है कि क्या मानव का जन्म सिर्फ माफियाओं और उनके गुलामों की गुलामी करने के लिए हुआ है?
इसी कारण से समाज और सरकार के ठेकेदार यह तय करते हैं कि संन्यासी को कैसा होना चाहिए। वे वही संन्यासी स्वीकार करते हैं जो उनके बनाए नियमों और परंपराओं का पालन करते हैं। जो संन्यासी समाज और सरकार की नीतियों और कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाते हैं, उन्हें या तो हाशिए पर डाल दिया जाता है, या फिर उन्हें ‘असामाजिक’ करार दे दिया जाता है।
वास्तविक संन्यास की पहचान
वास्तविक संन्यासी वही होता है जो पहले खुद को जागृत करता है, और फिर उन लोगों को जागृत करने का प्रयास करता है जो अभी तक नींद में हैं। वह अपने जीवन के हर पहलू को स्वयं निर्धारित करता है, और उसका जीवन एक आदर्श बनता है। जबकि पारंपरिक संन्यासी की जीवनशैली माफियाओं के गुलाम समाज, धर्म, जाति और राजनीति के ठेकेदारों द्वारा तय की जाती है।
निष्कर्ष
आज समाज में संन्यासियों की एक बड़ी संख्या है, लेकिन क्या वे वास्तव में उस संन्यास का पालन कर रहे हैं जो उनके आंतरिक जागरण और स्वतंत्रता की ओर ले जाता है? या वे सिर्फ समाज के बनाए नियमों का पालन कर रहे हैं?
यह चिंतन-मनन करने योग्य महत्वपूर्ण प्रश्न है।
ओशो के विचारों ने मुझे यह समझने में मदद की कि वास्तविक संन्यास समाज की परंपराओं और कुरीतियों से ऊपर उठकर अपनी स्वतंत्रता को पहचानने का नाम है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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