लक्ज़री बाबा उर्फ चुनमुन परदेसी

यह बात कई हज़ार साल पुरानी है। एक राज दरबार में चुनमुन नाम का एक कर्मठ दरबारी हुआ करता था। एक दिन उसके मन में वैराग्य का भूत सवार हुआ। उसने सरकारी नौकरी, यानी “राजा की चाकरी,” छोड़ दी और संन्यासी बन गया। मन में यह भाव था कि अब हर तरफ़ जय-जयकार होगी, त्यागी-बैरागी कहेंगे। लोग चरणों में गिरेंगे, राजा-मंत्री दंडवत करेंगे, और आकाशवाणी होगी कि चुनमुन परदेसी महान सन्त है!
लेकिन किस्मत को उसकी जय-जयकार मंजूर न थी। हुआ उलटा। भूखों मरने की नौबत आ गई। गाँव-गाँव घूमता, पेट भरने की आस में भीख मांगता, पर मिलता ताना। लोग कहने लगे, “अरे! सरकारी नौकरी छोड़कर भिखारी बन गया बेचारा।”
जिससे भी मदद मांगता, वही दुत्कार देता। क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से देश में अच्छे दिनों का प्रकोप चल रहा था। जैसे ही वह अपना कटोरा बढ़ाता, लोग उपदेशों की फसल उगाने लगते, “हट्टे-कट्टे हो, मेहनत करो। हमारी तरह अपने ही देश को दीमक की तरह बर्बाद करने वाले लुटेरों और माफियाओं के गिरोह की चाकरी, चापलूसी और गुलामी करो। बेरोजगारों की तरह रैलियाँ करो और लाठियां खाओ या घास छीलो। लेकिन दान मत माँगो, सहयोग मत माँगो क्योंकि हम स्वयं बर्बाद हुए पड़े हैं।
देश में वैसे भी “अच्छे दिनों” का मौसम चल रहा था। अच्छे दिनों ने प्रजा को ऐसा “आशीर्वाद” दिया था कि लोग खुद बेरोजगारी और महंगाई की माला जपते हुए जिंदा रहने के नए तरीके खोज रहे थे। कोई अपने बच्चों को भूखे सुला रहा था, तो कोई डिग्री के साथ ठेले खींच रहा था, कोई कीर्तन-भजन मंडली में शामिल हो रहा था। ऐसे में चुनमुन की कटोरी का क्या काम?
लेकिन चुनमुन परदेसी की अंतरात्मा अब जाग चुकी थी। और जिसकी अंतरात्मा जाग जाये, वह भिखारी का जीवन जीना स्वीकार लेगा, लेकिन देश के लुटेरों और माफियाओं की चाकरी और गुलामी करके अपना पेट भरना स्वीकार नहीं सकता। अंत में जब कोई उपाय ना बचा तो चुनमुन परदेसी ने एक समाज सेवी संस्था बना ली। सरकारी नौकरी का अनुभव काम आया और देखते ही देखते चुनमुन परदेसी देश का सबसे धनवान सन्त बन गया। अब बड़े-बड़े लोग उसकी दरबार में हाजिरी लगाने लगे।
अंतरात्मा का जागरण
कुछ महीनों की इस दुर्दशा के बाद चुनमुन की अंतरात्मा ने दस्तक दी। वह सोचने लगा, “भिखारी का जीवन भले कठिन है, लेकिन लुटेरों और माफियाओं की गुलामी से बेहतर है।”
लेकिन भूख बड़ी निर्दयी चीज़ है। जब हाथ खाली हों, पेट खाली हो, और भविष्य खाली दिखे, तो अंतरात्मा भी घबरा जाती है। चुनमुन के पास योजना तो थी, पर योजना तो मूर्तरूप देने के लिए धन नहीं था।
“संन्यासी” से “संत” बनने की यात्रा
एक दिन एक विचार कौंधा उसके मस्तिष्क में—“क्यों न समाजसेवा का खेल खेला जाए?” सरकारी नौकरी के अनुभव ने उसकी राह आसान कर दी। उसने एक “समाजसेवी संस्था” बना डाली। कुछ दिन में संस्था को लोगों का समर्थन मिला और फिर पैसा भी। देखते ही देखते चुनमुन परदेसी का परिश्रम रंग लाया।

अब वह देश का सबसे “धनवान संत” बन चुका था। बड़े-बड़े राजा, मंत्री, व्यापारी, और अभिनेता उसके दरबार में हाजिरी देने लगे। जहां पहले लोग उसे तानों से नवाज़ते थे, अब वही उसकी चरणधूलि माथे पर लगाने को तैयार थे।
विरोधियों की जलन और “असली संत” का तमगा
लेकिन विरोधी कहां चुप बैठते? उनके पेट में मरोड़ उठी। उन्होंने कहना शुरू कर दिया,
“अरे! ये कोई संत है? असली संत तो वो होते हैं, जो लंगोट में रहते हैं, कटोरा लेकर भीख मांगते हैं, और एक दिन भूख से मर जाते हैं। ये संत नहीं, व्यापारी है! समाजसेवा के नाम पर आलीशान जिंदगी जी रहा है। ऐशो-आराम भोग रहा है, जो हमारे हिस्से का था।”
चुनमुन परदेसी को अब इन बातों से फर्क नहीं पड़ता था। उसने जीवन का सबसे बड़ा सबक सीख लिया था—“पैसे वालों की जय-जयकार करती है दुनिया।”
निष्कर्ष: “पैसा ही सत्य है”
आज चुनमुन परदेसी समझ चुका था कि दुनिया में मान-सम्मान और शक्ति का मूल मंत्र है पैसा।
“चाहे ईमान बेचो या जमीर, चाहे देश बेचो या देशवासियों का अधिकार—अगर जेब में पैसा है, तो दुनिया झुकेगी।”
मीडिया, अदालत, नेता, और जनता सब पैसे के गुलाम हैं। जो यह खेल समझ लेता है, वही इस गुलामों की दुनिया का असली “संत” कहलाता है।
और इस प्रकार, चुनमुन परदेसी ने प्रमाणित कर दिया कि त्याग और वैराग्य की राह पर चलने के लिए भी “धन और संसाधन” होना आवश्यक है।
~ विशुद्ध चैतन्य
Support Vishuddha Chintan
