दुनिया के झूठे सुधारक और मौलिकता का सवाल

आज के समय में लेखक, साहित्यकार, समाज सुधारक और स्वास्थ्य विशेषज्ञों की ऐसी बाढ़ आ चुकी है कि अब यह तय कर पाना मुश्किल हो गया है कि इनकी बातों को गंभीरता से लिया जाए या इन्हें खर-पतवार की श्रेणी में डाल दिया जाए।
लोग अब किताबों और लेखों में अपना समय नष्ट करने की बजाय रील्स और वीडियो गेम्स में मशगूल हैं। वजह? शायद इन विशेषज्ञों की परस्पर विरोधाभासी सलाहें।
कोई कहता है, “हरी सब्जियां खाओ, स्वास्थ्यवर्धक हैं।”
तो दूसरा तर्क देता है, “हरी सब्जियां नुकसान पहुंचा सकती हैं।”
एक कहता है, “दूध पीना जीवन का अमृत है।”
तो दूसरा चिल्लाता है, “दूध स्वास्थ्य का सबसे बड़ा दुश्मन है।”
कभी-कभी ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया का ज्ञान सुनने और पढ़ने के बाद मेरे दिमाग का दही हो जाता है। और लोगों को मेरे लेख पढ़कर सिरदर्द होने लगता है।
सही और गलत का भ्रम
समाज में हर कोई दूसरों को सुधारने के अभियान में लगा हुआ है। सवाल उठता है—क्या यह सुधार वाकई जरूरी है?
क्यों हर कोई चाहता है कि दुनिया उसकी सोच के अनुसार चलने लगे?
क्या यह इंसानी मौलिकता के खिलाफ नहीं है?
सबकी अपनी भूमिका
हर इंसान के जीवन का एक उद्देश्य होता है। जैसे:
- कुछ लोग भजन-कीर्तन, व्रत-उपवास और धर्मिक अनुष्ठानों में जीवन बिताते हैं।
- कुछ लोग राजनीति, अफरातफरी और दंगे-फसाद के लिए पैदा होते हैं।
- कुछ ईमान बेचते हैं, तो कुछ रिश्वतखोरी और घोटालों में अपना नाम बनाते हैं।
- और कुछ, मेरी तरह, सब कुछ छोड़कर शांत, एकांतिक जीवन जीने में विश्वास रखते हैं।
क्या वाकई इन प्रवृत्तियों को बदलना संभव है? कितने भी धर्मग्रंथ पढ़ा दो, नैतिकता के उपदेश दे दो, या महंगी डिग्रियां थमा दो—जो जैसा है, वैसा ही रहेगा।
मौलिकता में जीने का अधिकार
हर व्यक्ति का अधिकार है कि वह अपनी मौलिकता के साथ जिए। दूसरों पर अपनी सोच थोपने के बजाय, हमें उन्हें उनकी प्रवृत्ति और रुचि के अनुसार जीने देना चाहिए।
तो अगली बार जब कोई आपको सुधारने की कोशिश करे, तो मुस्कुराकर जवाब दीजिए—
“मैं अपनी तरह ठीक हूं।”
~ विशुद्ध चैतन्य
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