जीवन की वास्तविकता: दूसरों की थोपी मान्यताओं से परे

हमारे जीवन में कई बार ऐसा समय आता है जब हमें यह समझने का अवसर मिलता है कि सही-गलत, नैतिक-अनैतिक, पाप-पुण्य, हराम-हलाल जैसी अवधारणाएँ हमारे स्वयं के विचार नहीं हैं। ये सब हमारे ऊपर समाज, धर्म, संस्कृति, और संस्थाओं द्वारा थोपी गई मान्यताएँ हैं। इनका सत्य से कोई संबंध नहीं होता, बल्कि यह दूसरों के दृष्टिकोण का परिणाम होता है।
असलियत यह है कि हम अक्सर वही चीज़ सही मानते हैं, जो हमारे अपनों से जुड़ी हो। चाहे वह हमारा बेटा हो, हमारी पार्टी हो, हमारा समाज हो, या हमारी विचारधारा। जब तक वह हमारे ‘अपने’ लोग करते हैं, हमें वह सही लगता है। पर जब वही काम कोई और करता है, तो हमें वह गलत, अनैतिक, या पाप लगता है।
सही और गलत का यह दोहरापन
यह सोचने का विषय है कि हम अपने समाज, परिवार, और संस्थाओं में जो भी देखते हैं, उसे सही मान लेते हैं। उदाहरण के लिए:
- अगर हमारा परिवार किसी काम को करता है, तो वह नैतिक हो जाता है।
- अगर हमारी सरकार कोई निर्णय लेती है, तो वह धर्म-सम्मत हो जाता है।
- अगर हमारी सेना कोई कार्रवाई करती है, तो वह देशभक्ति कहलाती है।
लेकिन, यही सब काम अगर कोई और समाज, पार्टी, या सरकार करे, तो हम उसे गलत ठहराने लगते हैं। उदाहरण के तौर पर:
- अगर हमारी सरकार कर वसूली में सख्ती करे, तो वह देशहित में है।
- लेकिन अगर किसी और देश की सरकार वही करे, तो वह अत्याचार कहलाता है।
- अगर हमारे लोग किसी विरोध प्रदर्शन में हिंसा करें, तो वह “धर्मयुद्ध” है।
- लेकिन अगर अन्य लोग यही करें, तो वह “दंगा” कहलाता है।
समाज और संगठनों की सीमाएँ
हमारा समाज, धर्म, और राजनीति इस दोहरे मापदंड का सबसे बड़ा उदाहरण है। हम अक्सर यह सोचते हैं कि जो हमारे धार्मिक ग्रंथ या गुरु कहते हैं, वही अंतिम सत्य है। हमें यह अहसास तक नहीं होता कि यह विचारधाराएँ किसी एक विशेष समूह के लिए सही हो सकती हैं, लेकिन यह सार्वभौमिक सत्य नहीं हैं।
यह मान्यताएँ हमें बचपन से ही सिखाई जाती हैं, और हम इन्हें बिना सवाल उठाए अपनाते जाते हैं। लेकिन सच तो यह है कि ये विचार अक्सर सत्ता, राजनीति, और व्यक्तिगत स्वार्थ के उपकरण होते हैं।
उदाहरण के लिए:
- अगर हमारा समाज सांप्रदायिक हिंसा में शामिल होता है, तो हम इसे धर्म की रक्षा मानते हैं।
- लेकिन जब कोई अन्य समुदाय ऐसा करता है, तो वह पाप और अत्याचार कहलाता है।
महामूर्खता का चक्र
हमारा जीवन इन्हीं दोहरे मानकों में उलझा हुआ है। हम एक प्रकार की महामूर्खता में जी रहे हैं, जहाँ हमें यह समझ में ही नहीं आता कि जो चीजें हमें सही लग रही हैं, वे केवल हमारी सीमित दृष्टि का परिणाम हैं।
जो व्यक्ति इन सीमाओं को पार कर जाता है, वह यह समझ पाता है कि इन सारी मान्यताओं का कोई ठोस आधार नहीं है। वह जानता है कि यह सब केवल एक मानसिक कैद है। लेकिन इस जागरूकता तक पहुँचना आसान नहीं है।
जिन्हें यह जागरूकता नहीं मिलती, वे जीवन के अंतिम क्षणों तक अपने ही छोटे-छोटे समूहों और दड़बों में कैद रहते हैं। वे इन्हीं सीमित विचारों को जीवन का सत्य मानकर जीते हैं।
जागरूकता का महत्व
जब कोई व्यक्ति जागृत और चैतन्य हो जाता है, तो वह इस मानसिक कैद से मुक्त हो जाता है। वह यह समझ पाता है कि:
- सत्य किसी समूह, धर्म, या विचारधारा तक सीमित नहीं है।
- सही और गलत का निर्धारण कोई बाहरी ताकत नहीं कर सकती।
- जो चीजें हमें दूसरों पर थोपनी पड़ती हैं, वे कभी सत्य नहीं हो सकतीं।
जागृत व्यक्ति समाज के इन दड़बों से बाहर निकलकर यह देख पाता है कि उसकी जिंदगी इन सीमित मान्यताओं से कहीं बड़ी है। वह यह भी समझ पाता है कि जो लोग इन दड़बों में फंसे हुए हैं, वे वास्तव में अपनी पूरी जिंदगी महामूर्खता में बिता देते हैं।
अपनी मान्यताओं की समीक्षा करें
यह लेख हमें अपने जीवन की गहराई से समीक्षा करने की प्रेरणा देता है। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि:
- हम जिन चीजों को सत्य मानते हैं, क्या वे वास्तव में सत्य हैं?
- क्या हमारा सही और गलत का मापदंड निष्पक्ष है, या केवल हमारे स्वार्थ पर आधारित है?
- क्या हम दूसरों के विचारों को केवल इसलिए नकारते हैं क्योंकि वे हमारे विचारों से मेल नहीं खाते?
इन सवालों पर गहराई से चिंतन करना हमें उस स्थिति तक पहुँचाता है, जहाँ हम सच्चाई को बिना किसी पूर्वाग्रह के देख सकते हैं।
निष्कर्ष
व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर यह कह सकता हूँ कि सत्य की खोज व्यक्तिगत होती है। इसे बाहरी मान्यताओं, धर्म, समाज, या राजनीति में नहीं ढूँढा जा सकता।
सत्य वही है, जो हमें भीतर से मुक्त करे। जो हमें दूसरों की थोपी गई मान्यताओं और दड़बों से बाहर निकाले। जो व्यक्ति इस सत्य को समझ लेता है, वह समाज की सीमाओं और दोहरे मापदंडों से परे जाकर एक स्वतंत्र और जागरूक जीवन जीता है।
हम सभी को अपनी सोच और मान्यताओं पर विचार करना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि जीवन का उद्देश्य दूसरों की बनाई सीमाओं में कैद होकर जीना नहीं है, बल्कि इन सीमाओं को तोड़कर सत्य को जानना है। यही जीवन का वास्तविक अर्थ है।
~ विशुद्ध चैतन्य
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