स्वयं को स्वीकारना: डर से पार पाने का पहला कदम

डर एक ऐसा भाव है जिसे हम सभी जीवन के अलग-अलग पड़ावों पर अनुभव करते हैं। हालांकि अनिश्चितता या खतरे जैसे बाहरी कारण डर को जन्म दे सकते हैं, इसका सबसे गहरा स्रोत हमारे भीतर होता है। जैसा कि जिद्दु कृष्णमूर्ति ने कहा है,
“डर के प्रमुख कारणों में से एक यह है कि हम स्वयं का सामना वैसे नहीं करना चाहते जैसे हम हैं।”

यह गहन विचार एक सार्वभौमिक सत्य को उजागर करता है: आत्म-जागरूकता और आत्म-स्वीकृति चुनौतीपूर्ण तो हैं, लेकिन जरूरी भी हैं। अपनी कमजोरियों, कमियों, या असुरक्षाओं का सामना करने के बजाय, हम अक्सर स्वयं को व्यस्त रखने, बहाने बनाने या बाहरी validations के पीछे छिपा लेते हैं। लेकिन यह टालमटोल डर को और बढ़ा देता है।
हम खुद से डरते क्यों हैं?
- अपूर्णता का डर: हम आदर्शों की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित होते हैं, और कुछ भी कम होना हमें अस्वीकार्य लगता है।
- आलोचना का डर: हम दूसरों की धारणा से डरते हैं, यह भूलकर कि सबसे कठोर आलोचक अक्सर हमारा स्वयं का मन होता है।
- अनसुलझी भावनाएँ: दबे हुए भाव जैसे अपराधबोध, पछतावा या शर्म का सामना करना कठिन लगता है।
मुक्ति का मार्ग
- आत्म-जागरूकता: ईमानदारी से आत्म-विश्लेषण करें। जर्नलिंग, ध्यान, या शांत चिंतन इसमें सहायक हो सकते हैं।
- स्वीकृति: यह समझें कि पूर्णता एक भ्रम है। अपनी मानवता, अपनी कमजोरियों और अपनी विशिष्टताओं को अपनाएं।
- कदम उठाएं: अपने आप को अस्वीकार करने के बजाय, आत्म-प्रेम से प्रेरित होकर छोटे-छोटे सुधार के प्रयास करें।
डर टालने से बढ़ता है, लेकिन साहस का जन्म आमने-सामने होने से होता है। जब हम भीतर झांकने की हिम्मत करते हैं और स्वयं को बिना शर्त स्वीकार करते हैं, तो डर अपनी पकड़ खो देता है।
आज हम स्वयं को याद दिलाएं कि रुकें, विचार करें, और दर्पण का सामना करें—चाहे वह वास्तविक हो या मानसिक। ऐसा करने से हम न केवल डर से ऊपर उठते हैं बल्कि सच्ची आज़ादी और शांति का अनुभव करते हैं।
आप आज स्वयं को अपनाने के लिए कौन-सा कदम उठाएंगे? अपने विचार नीचे साझा करें!
जे0 कृष्णमूर्ति के विचारों पर आधारित लेख।
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