सुख और दुःख: भ्रम या जीवन के वास्तविक अनुभव ?

विद्वान कहते हैं कि सुख और दुःख केवल भ्रम हैं, असल में न तो कोई सुख है और न ही कोई दुःख। लेकिन क्या यह सच है ? क्या वास्तव में सुख और दुःख केवल हमारी मानसिक स्थिति का परिणाम हैं, या फिर ये जीवन के वास्तविक अनुभव हैं ?
यह प्रश्न मेरे मन में तब उठता है जब मैं अपने जीवन के कुछ गहरे और चुनौतीपूर्ण अनुभवों पर विचार करता हूँ।
आश्रम का अनुभव: सुख और दुःख की परिभाषा
जब मैं आश्रम में था, तब मुझे दुःख था। मुझे दुःख था क्योंकि मैं उन ढोंग-पाखंडों और आडंबरों से मुक्त नहीं हो पा रहा था, जिनसे मुक्त होने के लिए मैंने संन्यास लिया था। आश्रम का आधार ही ढोंग, पाखंड और आडंबर होता है। यदि इन्हें हटा दिया जाए, तो आश्रम एक वीरान खंडहर बनकर रह जाएगा। और हो सकता है कि भूत-प्रेत भी वहाँ नाचने न जाएं।
वहाँ मैं दुःखी था, जबकि वहाँ के लोग नाच-गाने में मग्न थे, उत्सव मना रहे थे। उन लोगों को यह आश्चर्य होता था कि जब सब नाच गा रहे होते हैं, तो मैं अपने कमरे में क्यों बंद बैठा रहता हूँ। मुझे समझ में नहीं आता था कि मैं खुशी किस बात की मनाऊँ ?
क्या इस बात की खुशी मनाऊँ कि गुरुओं द्वारा स्थापित समाज धार्मिक होने के बजाय जपनाम मंडली बनकर रह गया है?
या फिर यह खुशी मनाऊँ कि आश्रम खंडहर हो गया है और आश्रम के भक्त और साधु-संत “मैं सुखी तो जग सुखी” के सिद्धांत पर जीते हुए केवल भोजन, भजन और शयन पर सिमट कर रह गए हैं ?
ओशो का दृष्टिकोण: सुख और दुःख का वास्तविक अर्थ
ओशो कहते हैं:
“स्वयं के अनुकूल जो जिएगा, सुख में जिएगा। स्वयं के प्रतिकूल जो जिएगा, वह दुःख में जिएगा। दुःख की तुम इसे परिभाषा समझो। अगर जीवन में दुःख हो, तो जानना कि तुम स्वभाव के प्रतिकूल जी रहे हो। दुःख केवल सूचक है।”
यदि मैं ओशो की बात मानूं, तो यह समझ आता है कि देश और समाज के लुटेरे, माफिया, अधर्मी और उनके भक्त, समर्थक और सहयोगी अपने स्वभाव के अनुकूल जी रहे हैं, इसलिए वे सुखी हैं। और जो इनके विरुद्ध हैं, वे स्वभाव के प्रतिकूल जी रहे हैं, इसलिए दुःखी हैं।
बुराई का विरोध या मौन समर्थन ?
बहुत से विद्वान लोग कहते हैं कि हमें दूसरों को देखना छोड़कर स्वयं को देखना चाहिए, स्वयं को सुधारना चाहिए। तो क्या इसका मतलब यह है कि हमें बुराई का विरोध नहीं करना चाहिए ?
क्या मौन समर्थन देना, या बुराई के साथ सहयोगी बन जाना, सुखी और समृद्ध जीवन जीने का तरीका है ?
आज यह भी समझ पाना कठिन हो गया है कि किस गुरु का अनुसरण किया जाए, क्योंकि सभी गुरुओं के पंथ और समाज अब देश के लुटेरों और माफियाओं के चापलूस और गुलाम बन चुके हैं। क्या हम उन्हें नैतिक, सात्विक और धार्मिक मान सकते हैं, जो इन लुटेरों की चाकरी कर रहे हैं ?
नैतिकता, सात्विकता और धार्मिकता का अर्थ
अगर देश के लुटेरों और माफियाओं की चाकरी करना धार्मिकता, सात्विकता और नैतिकता है, तो फिर अधर्म क्या है ?
क्या वर्तमान युग में अधर्मी होना ही धार्मिकता है ?
मुझे यह दुविधा बचपन से है, और आज तक इसका उत्तर नहीं मिल पाया है।
सच तो यह है कि मैं न तो अपने अनुसार जी पा रहा हूँ और न ही दूसरों के अनुसार। मेरा जीवन केवल ढोंग है — जीवन जीने का ढोंग, जिसे मैं अब तक निभा रहा हूँ।
सुख और दुःख: भ्रम या वास्तविकता ?
यदि सुख और दुःख केवल मानसिक भ्रम हैं, जैसा कि कहा जाता है, तो फिर लोग सुख पाने के लिए क्यों दौड़ रहे हैं ?
क्या किसी को कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है ?
क्या हम केवल ध्यान में बैठकर या भजन कीर्तन और नामजाप करते हुए सुखी हो सकते हैं ?
तो फिर क्यों लोग अच्छे व्यवसाय, अच्छी नौकरी, राजनीति में शामिल होने, या धन कमाने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं ?
क्या यह केवल एक भ्रम है ?
गुरुओं और पंथों का पालन: एक स्वतन्त्र दृष्टिकोण
बहुत से लोग कहते हैं कि वे मेरा साथ इसलिए दे रहे थे, क्योंकि उन्हें लगा कि मैं उनके गुरु के आदर्शों के अनुरूप कार्य कर रहा हूँ। लेकिन जब उन्होंने देखा कि मैं उनके गुरु, पंथ और धार्मिक ग्रंथों की शिक्षाओं के विपरीत कार्य कर रहा हूँ, तो उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। लेकिन यही लोग उनका साथ नहीं छोड़ते, जो देश के लुटेरों और माफियाओं का साथ दे रहे हैं।
क्या किसी व्यक्ति को, जो अपने तरीके से कार्य कर रहा हो, उसे किसी गुरु के बनाए पंथ में कैद कर लेना चाहिए ?
क्या उसे किसी पंथ के दिशानिर्देशों के अनुसार जीवन जीने के लिए विवश करना चाहिए ?
मैं किसी पंथ, संप्रदाय, या व्यक्ति के अधीन नहीं रह सकता, क्योंकि मैं एक स्वतंत्र चित्त का व्यक्ति हूँ और स्वयं का मालिक हूँ। जो स्वयं का स्वामी हो, वह किसी और की अधीनता कैसे स्वीकार कर सकता है ?
सुख और दुःख: मेरा दृष्टिकोण
सुख और दुःख मेरे लिए केवल मानसिक स्थिति नहीं हैं। मैं दुःखी होता हूँ जब मैं दूसरों को कष्ट में देखता हूँ, जब मेरा पालतू पशु सड़क दुर्घटना में मारा जाता है, जब कोई प्रियजन मुझसे दूर हो जाता है, या जब कोई मेरा अपमान या उपेक्षा करता है।
दुनिया हमें सिखाती है कि सुख और दुःख को नियंत्रित करना ही सफलता का मापदंड है। लेकिन मैंने इसे नकारा है। मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि सुख और दुःख केवल मानसिक स्थिति नहीं है, बल्कि हमारे अस्तित्व का एक स्वाभाविक अंग है। मैं यह मानता हूँ कि यह जीवन के प्रति हमारे भावनात्मक जुड़ाव और संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति है।
दुःख के क्षण: संवेदनशीलता का प्रमाण
मेरा दुःख तब प्रकट होता है, जब मैं देखता हूँ कि:
- कोई व्यक्ति कष्ट में है।
- मेरा पालतू पशु सड़क दुर्घटना में मारा जाता है।
- मेरा कोई प्रियजन मुझसे दूर हो जाता है।
- मुझे अपमानित या उपेक्षित किया जाता है।
यह दुःख मेरे भीतर की उस मानवता का हिस्सा है जो आज की प्रतिस्पर्धात्मक और स्वार्थपूर्ण दुनिया में कहीं खोती जा रही है।
मैं क्यों नहीं बनना चाहता “निर्विकार”?
मैं उन लोगों में से नहीं हूँ जिन्होंने बुद्धत्व को प्राप्त कर लिया है, जहाँ सुख-दुःख का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। न ही राजनेताओं, पूंजीपतियों या सरकारी अधिकारियों और गुलाम मानसिकता के लोगों की तरह बुद्धत्व को उपलब्ध हो गया हूँ, और न ही ऐसा होना चाहता हूँ।
बुद्धत्व या निर्विकारता का मार्ग अपनाने वाले लोग अक्सर दुःख और सुख से ऊपर उठने का दावा करते हैं। वे अक्सर अपनी संवेदनाओं को दबाने का प्रयास करते हैं। मैं उन राजनेताओं, पूंजीपतियों, और गुलाम मानसिकता वाले लोगों की तरह नहीं हूँ जो अपनी संवेदनाओं को छोड़कर एक यांत्रिक जीवन जीते हैं, जिनके लिए सुख-दुःख केवल एक बौद्धिक चर्चा का विषय है।।
“मैं जैसा हूँ, वैसा ही ठीक हूँ”
यह जीवन मेरे लिए एक व्यक्तिगत यात्रा है, और मैं इसे अपनी तरह से जीने में विश्वास करता हूँ। मुझे किसी और की नकल करने या किसी आदर्श स्थिति को प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं है।
मैं जैसा हूँ, वैसा ही ठीक हूँ। मुझे किसी और की तरह नहीं बनना है, और न ही बनने के लिए आया हूँ।
निष्कर्ष: मेरी मौलिकता की स्वीकार्यता
यदि आप मुझे मेरी मौलिकता, मेरी कमियों और बुराइयों के साथ स्वीकार नहीं कर सकते, तो कृपया मुझे छोड़ दें। लेकिन मुझे सुधारने की कोशिश मत करिए, और न ही मुझे गौतम बुद्ध या महावीर बनाने का प्रयास करें। मुझे किसी दड़बे में शामिल करने का भी प्रयास न करें।
पाठकों के लिए संदेश
यह लेख हमें यह सोचने पर विवश करता है कि क्या हम अपने दुःख और सुख को सही रूप में समझ पाते हैं? क्या हम अपने स्वभाव के अनुकूल जी रहे हैं, या फिर समाज द्वारा थोपे गए आदर्शों को ढो रहे हैं? इस पर चिंतन करें और स्वयं को स्वीकारें, क्योंकि यही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है।
यदि मेरे विचारों से आप सहमत हैं और आर्थिक सहयोग करना चाहते हैं, तो पोस्ट के अंत में दिये गए YONO-SBI का क्यूआर कोड का सदुपयोग कर सकते हैं।
~ विशुद्ध चैतन्य
Support Vishuddha Chintan
