जब अपने साथ छोड़ देते हैं तब परायों से सहयोग मिलता है

सोशल मीडिया के समझदार, कर्मवादी और मेहनती लोगों ने मुझे अपनी फ्रेंडलिस्ट से बाहर निकाल दिया है। कारण पर चिंतन किया तो यही समझ में आया कि मैं उनकी तरह समझदार, कर्मवादी और मेहनती नहीं हूँ। मैं सोशल मीडिया पर दान और आर्थिक सहयोग मांग लेता हूँ। और मेहनती, कर्मवादी लोगों की नजर में दान या आर्थिक सहयोग मांगना नीचता है, महापाप है।
बहुत से लोग यह मानकर जी रहे हैं कि मैं अपने लेखों के माध्यम से लाखों करोड़ों कमा रहा हूँ और ऊपर से दान मांगकर अपनी तिजोरी भर रहा हूँ स्विस बैंक में जमा करवाने के लिए। तो स्वाभाविक है जिस देश में अपना सगा-सम्बन्धी आर्थिक रूप से समृद्ध होने लगे तो पेट में दर्द होने लगता है, उस देश में मेरे जैसा भिखारी समृद्ध होने लगे तो पेट में मरोड़ तो उठेगा ही।
समाज और सत्य
यह भारत है, जहाँ सच्ची बात कहने पर शत्रु उत्पन्न हो जाते हैं और झूठ सुनाने पर अंधभक्तों की भीड़ उमड़ पड़ती है। ऐसी भीड़ को ही समाज और विकसित सभ्यता के रूप में देखा जाता है। लेकिन क्या यह सही है कि हम विवेक-बुद्धि को गिरवी रखकर केवल आदेशों का पालन करें? क्या हमें माफियाओं के अधीन समाज का हिस्सा बन जाना चाहिए?
क्यों मुझे उनकी तरह हो जाना चाहिए जैसे माफियाओं के गुलाम समाज के सदस्य हो चुके हैं ?
क्यों मुझे दान नहीं मांगना चाहिए ?
क्या राजनेता, राजनैतिक पार्टियां और साम्प्रदायिक द्वेष घृणा फैलाने वाले नेता, संगठन दान पर आश्रित नहीं हैं ?
क्यों मुझे भी कर्मवादी, मेहनती श्रमिकों, सैनिकों, पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों की तरह पूँजीपतियों का गुलाम हो जाना चाहिए और गर्व करना चाहिए अपनी गुलामी पर ?
ना तो मैं श्रमिक हूँ, ना सैनिक हूँ, ना पुलिस, ना सरकारी या गैर-सरकारी प्रशासनिक अधिकारी या कर्मचारी। और ना ही भक्त, अंधभक्त या गुलाम हूँ किसी का, तो फिर मुझे सैनिकों, शूद्रों और अंधभक्तों पर लागू अनिवार्य नियम का पालन क्यों करना चाहिए ?
क्या आप जानते हैं सैनिक, शूद्र और अंधभक्त होने के लिए पहला ही नियम यह है कि विवेक बुद्धि का प्रयोग किए बिना केवल आदेशों का पालन करना है ?
उन्हें यह अधिकार ही नहीं है कि वे सही या गलत का निर्णय लें। उन्हें केवल वह करना है जो उनसे कहा गया है, फिर चाहे वह नैतिक हो या अनैतिक, उन्हें चिंतन करने का अधिकार नहीं है। आदेशों का पालन करते समय एक क्षण के लिए भी यह विचार नहीं आना चाहिए कि सही कर रहा है या गलत कर रहा है।
क्या सारी मानव जाति को कुछ मुट्ठीभर अमीरों के आदेशों का गुलाम हो जाना चाहिए ?
क्या मानव को यह अधिकार नहीं कि वह अपनी विवेक बुद्धि कर प्रयोग करके यह सुनिश्चित करे कि सही कर रहा या गलत कर रहा है ?
क्या मानव को एक रोबोट यानि मशीनी मानव, या सैनिक या ज़ोम्बी की तरह जीना चाहिए ?
ओशो कहते हैं; “यदि आप जागरूकता के साथ जीते हैं, तो आप सही तरीके से जीते हैं। यदि आप अनुकरण के साथ जीते हैं, तो आप गलत तरीके से जीते हैं।

एक दफा दिखाई पड़ना शुरू हो जाए तो सब नावें कागज की हैं और सब घर बालू से बने हैं। और सब सपने पानी पर खींची गई लकीरें हैं। और हम कितने दौड़ते हैं, कितना श्रम लेते हैं, कितना गंवाते हैं–कुछ कमाने की आशा में! और फिर खाली हाथ जाते हैं। और ऐसा नहीं है कि कमाई नहीं हो सकती है; कमाई हो सकती है, मगर हमारी दिशा गलत है।
पलटू कहते हैं: द्वारे से दूर हो लंडी रे,
पइठु न घर के माहिं।
कहते हैं: आगे बढ़! माया से कहते हैं: आगे बढ़! अब कागज की नावें मैं नहीं चलाऊंगा। रेत में भवन मैं नहीं बनाऊंगा। पानी के बबूलों पर मैं नहीं अब अपनी अभीप्साएं रोपूंगा। आगे बढ़! जैसे कोई भिखमंगों को कह दे कि आगे बढ़ो!
और माया को कहते हैं दासी। साधारणतः तो आदमी माया का दास है। सारे लोग माया की सेवा में लगे हैं। फिर चाहे धन, चाहे पद, चाहे प्रतिष्ठा–क्या तुम्हारी माया का नाम है, इससे भेद नहीं पड़ता, तुम सेवा में संलग्न हो। लेकिन जो जागते हैं, जरा सा भी जागते हैं, उन्हें दिखाई पड़ता है कि हम मालिक हैं। हम उस मालिक के हिस्से हैं, हम मालिक ही हो सकते हैं।
उपनिषद कहते हैं: उस पूर्ण से पूर्ण को निकाल लो, फिर भी पीछे पूर्ण ही शेष रह जाता है। हम उस मालिक के हिस्से हैं, इतना ही नहीं; वह मालिक कुछ ऐसा है कि उसके हिस्से हो नहीं सकते। तो जब भी हम उस मालिक से आते हैं, पूरा का पूरा मालिक हमारे भीतर होता है।” (काहे होत अधीर, प्रवचन ~ १३)
There is no free meal in this world of Slaves.
अर्थात दासों की इस दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता।
केवल दासों की दुनिया में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता। यहाँ लोग दान भी करते हैं तो व्यक्तिगत स्वार्थ और दान प्राप्त करने वाले की ताकत और लोकप्रियता देखकर दान करते हैं।
दान करने वाले उन नेताओं को दान करना पसंद करते हैं, जिन्हें सत्ता से सुरक्षा और सभी प्रकार की सुख सुविधाएं प्राप्त हैं। क्योंकि उनसे उनका स्वार्थ सिद्ध होता है।
दान करने वाले मंदिरों, तीरथों, ऐश्वर्यवान बाबाओं को दान करना पसंद करते हैं, क्योंकि उनसे उनका स्वार्थ सिद्ध होता है।
भले दुनिया इसे दान मानती हो, लेकिन वास्तव में यह रिश्वत है, कमीशन है।
इसलिए हम यह कह सकते हैं की दासों की दुनिया में दान देने की प्रथा समाप्त हो चुकी है।
दान का सत्य
दान मांगना क्या वास्तव में अनुचित है? क्या राजनेता, राजनीतिक पार्टियाँ, और साम्प्रदायिक नेता दान पर निर्भर नहीं हैं? मंदिरों और ऐश्वर्यवान बाबाओं को दान देने वाले लोग क्या सचमुच निस्वार्थ होते हैं, या यह एक प्रकार की रिश्वत है? यह स्पष्ट है कि दासों की इस दुनिया में दान का मूल स्वरूप समाप्त हो चुका है।
स्वामित्व की परिभाषा
स्वामी चार प्रकार के होते हैं:
- दूसरों से मिली उपाधि: आश्रम, अखाड़े या समाज द्वारा दी गई उपाधि। ऐसे स्वामी उतने ही स्वतंत्र होते हैं, जितने सरकारी अधिकारी।
- जन्मजात उपनाम: जैसे दक्षिण भारत में प्रचलित स्वामी।
- दूसरों का मालिक: जो किसी पर अधिकार रखता हो।
- स्वयं का मालिक: यह वास्तविक स्वामी होता है।
स्वघोषित स्वामी अर्थात स्वयं का मालिक होना समाज में अपराध है। क्योंकि समाज में वही स्वीकृत है, जो दूसरों का अधीनस्थ हो। समाज स्वतंत्र और जागृत लोगों को सहन नहीं करता, क्योंकि समाज स्वयं देश के लुटेरों और माफियाओं का अधीनस्थ है।
और जो समाज स्वयं देश के लुटेरों और माफियाओं का अधीनस्थ हो, और उन्हें दिल और तिजोरी खोलकर दान, चन्दा, कमीशन, चढ़ावा चढ़ाते हों, ऐसे समाज को यह अधिकार ही नहीं कि स्वयं के मालिकों अर्थात स्वामियों को सिखाएँ कि दान मांगना चाहिए या नहीं। ऐसे समाज को तो यह भी अधिकार नहीं कि वे दूसरों को नैतिकता, अनैतिकता और देशभक्ति का पाठ पढ़ाएँ।
ऐसा समाज जब किसी जागृत व्यक्ति का साथ छोड़ देता है, तब ईश्वरीय शक्तियाँ उसका साथ देने के लिए पहुँच जाती हैं।
और मैं चतुर्थ श्रेणी का स्वामी हूं।
जागरूकता का महत्व
ओशो कहते हैं, “यदि आप जागरूकता के साथ जीते हैं, तो आप सही तरीके से जीते हैं। अनुकरण के साथ जीना गलत है।” हमारा जीवन कागज की नावों और बालू के महलों जैसा होता है, जो क्षणभंगुर हैं। लेकिन जागरूक होकर जीना हमें वास्तविक स्वतंत्रता प्रदान करता है।
ईश्वरीय सहयोग
जब समाज किसी जागरूक व्यक्ति का साथ छोड़ देता है, तब ईश्वरीय शक्तियाँ उसका साथ देती हैं। यह प्रकृति का नियम है कि जो व्यक्ति सत्य और नैतिकता के साथ जीता है, उसकी आवश्यकताएँ स्वयं प्रकृति पूरी करती है।
जैसा कहा गया है: “Don’t be surprised if your support doesn’t come from familiar faces. The Universe will place strangers in your life to take you to higher places.”
~ विशुद्ध चैतन्य ✍️
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