विवाह और समाज: वास्तविकता यह सामना

कहते हैं विवाह दो आत्माओं का मिलन है। कोई कहता है विवाह दो दिलों का मिलन हैं। कोई कहता है विवाह दो जिस्मों का मिलन है। कोई कहता है जोड़ियाँ आसमान में बनती है। कोई कहता है जोड़ियाँ पंडित जी बनाते हैं ग्रह नक्षत्र मिलाकर।
चाहे जितने भी भावनात्मक पहलुओं से जोड़ा जाए, अधिकांश विवाह परिवार और समाज के बनाए हुए मापदंडों पर आधारित होता है। यह दिल, प्रेम, आत्मा, या ईश्वर को ध्यान में रखकर नहीं, बल्कि धन, पद, प्रतिष्ठा, जाति और सामाजिक स्वीकृति के आधार पर होता है। अर्थात दिल, प्रेम, आत्मा और ईश्वर का कोई महत्व नहीं होता परिवार और समाज की नजर में।
समाज और दिखावे का खेल
आज विवाह एक निजी संबंध कम और सामाजिक प्रदर्शन का साधन अधिक बन गया है। लोग कर्ज लेकर भी भव्य समारोह आयोजित करते हैं, केवल इस उद्देश्य से कि समाज के सामने अपनी अमीरी और ऐश्वर्य का प्रदर्शन कर सकें। यह दिखावे की संस्कृति पैसों की बर्बादी के अलावा कुछ नहीं है। यहां तक कि जो लोग विवाह में शामिल होते हैं, वे इस दिखावे को सराहने और मुफ्त का भंडारा खाने के लिए आते हैं। लेकिन जब यही समाज किसी विवाहित व्यक्ति की पीड़ा या शोषण को देखता है, तो वह मूकदर्शक बना रहता है।
विवाह और व्यक्तिगत त्रासदी
कितनी विडंबना है कि एक पति, पत्नी के अत्याचारों से तंग आकर आत्महत्या कर लेता है, या एक स्त्री पति के दुर्व्यवहार से त्रस्त होकर अपनी जान दे देती है। जिस समाज ने उनके विवाह में तमाशा देखने के लिए भीड़ जुटाई थी, वही समाज उनकी मदद के लिए आगे नहीं आता।
समाज को क्यों दें महत्व?
एक ऐसा समाज जो शोषितों और पीड़ितों की सहायता नहीं कर सकता, उसे इतना महत्व देना निरर्थक है। यह समाज केवल आडंबर और परंपराओं के नाम पर खर्च और कर्ज बढ़ाने के लिए ही सक्रिय रहता है।
भविष्य की दिशा
वह समय दूर नहीं जब लोग समाज को दिखाने के लिए नहीं, बल्कि अपने व्यक्तिगत जीवन में खुशी और संतोष लाने के लिए विवाह करेंगे। लोग धीरे-धीरे तथाकथित समाज की उपेक्षा करना सीख जाएंगे, क्योंकि समाज केवल आडंबर और भंडारा वाली भीड़ बनकर रह गया है।
समाज की वास्तविकता
आज का समाज किसी की सहायता करने में सक्षम नहीं है। यह धर्म और जाति के नाम पर बंटा हुआ है और राजनीतिक तथा धार्मिक ठेकेदारों के इशारों पर नाचता है। ऐसे समाज में व्यक्ति का महत्व केवल तब तक है, जब तक व्यक्ति की मौलिकता, स्वतंत्रता और विवेक को कुचल न दे।
निष्कर्ष:
विवाह को निजी और अर्थपूर्ण संबंध के रूप में पुनर्परिभाषित करने की आवश्यकता है। इसे समाज की अपेक्षाओं से परे रखकर, व्यक्तिगत खुशी और परस्पर साझेदारी के आधार पर देखा जाना चाहिए। समाज को अपनी प्राथमिकताओं में तभी स्थान दें, जब वह वास्तव में आपके जीवन में सकारात्मक योगदान दे सके।
~ विशुद्ध चैतन्य
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