सुख और दुःख में साथ खड़े होने वालों का महत्व: ओशो का दृष्टिकोण

जीवन में जब हम सुखी होते हैं, तो हमारे आसपास बहुत से लोग खड़े नजर आते हैं। यही स्थिति दुःख के समय भी होती है। अक्सर हम मान लेते हैं कि ये लोग, जो हमारे सुख और दुःख में साथ खड़े होते हैं, हमारे अपने हैं। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? ओशो का कहना है कि सुख-दुःख में केवल साथ खड़ा होना पर्याप्त नहीं है।
ओशो का दृष्टिकोण
ओशो के अनुसार, सुख और दुःख में साथ खड़े होने वाले लोग केवल बोझ बनते हैं। उनके होने या न होने से हमारी स्थिति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। असली महत्व उन लोगों का है जो इन परिस्थितियों में हमारा साथ देते हैं और सहयोग करते हैं। उनका उद्देश्य हमारे बोझ को हल्का करना होता है, न कि उसे बढ़ाना।
उदाहरण:
1. खुशी के समय
मान लीजिए आप बहुत खुश हैं और आपने इस खुशी में पार्टी का आयोजन किया है। इस अवसर पर “साथ खड़े होने वाले” लोग खुशी मनाने और दावत का आनंद लेने सपरिवार आ जाएंगे। लेकिन “साथ देने वाले” लोग न केवल पार्टी में शामिल होंगे, बल्कि वे दारू और चखना भी अपने साथ लाएंगे। उनका प्रयास होगा कि आपकी खुशी में किसी भी प्रकार की कमी न हो।
2. दुःख के समय
अब कल्पना कीजिए कि आप बहुत दुःखी हैं। “साथ खड़े होने वाले” लोग आपके दुःख में डूब जाएंगे। वे छाती पीट-पीटकर रोएंगे और वातावरण को और भी गंभीर बना देंगे। कुछ लोग अपनी-अपनी दुःखभरी कहानियां सुनाकर वातावरण को और भारी कर देंगे। इसके विपरीत, “साथ देने वाले” लोग आपकी परेशानी को हल करने का प्रयास करेंगे। वे दारू और चखना लेकर आएंगे, ताकि आपको थोड़ा हल्का महसूस हो और दुःख के क्षणों में कुछ राहत मिले।
सारांश
ओशो के विचारों का सार यही है कि सामान्य व्यक्ति को ऐसे लोगों की आवश्यकता नहीं है, जो केवल सुख-दुःख में खड़े होकर भीड़ का हिस्सा बनें। उसे उन लोगों की आवश्यकता होती है जो सहयोगी बनें, जो उसके बोझ को कम करें। साथ खड़े होने वाले लोग नेताओं, अभिनेताओं और बाबाओं के लिए उपयोगी हो सकते हैं, लेकिन एक साधारण व्यक्ति को साथ देने वाले लोग चाहिए।
निष्कर्ष
जीवन में ऐसे मित्रों और सहकर्मियों का चयन करें, जो केवल उपस्थित रहकर बोझ न बढ़ाएं, बल्कि आपकी खुशी और दुःख दोनों में वास्तविक सहयोग दें। यही असली संबंधों का आधार होना चाहिए।
~ विशुद्ध चैतन्य
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